भारत में ट्रिब्यूनल प्रणाली
मुख्य विशेषताएं
- ट्रिब्यूनल्स ऐसी संस्थाएं होती हैं जो न्यायिक या अर्ध न्यायिक कार्य करती हैं। इसका उद्देश्य न्यायपालिका के काम के बोझ को कम करना, या तकनीकी मामलों में किसी विषय पर विशेषज्ञता प्रदान करना हो सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अर्ध न्यायिक निकाय होने के कारण ट्रिब्यूनल्स को भी न्यायपालिका की तरह कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए। मुख्य कारकों में सदस्यों के चयन का तरीका, ट्रिब्यूनल्स का संयोजन और सेवा की शर्तें तथा अवधि शामिल है।
- यह सुनिश्चित करने के लिए कि ट्रिब्यूनल्स कार्यपालिका से स्वतंत्र हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया था कि सभी प्रशासनिक मामलों को विधि मंत्रालय द्वारा प्रबंधित होना चाहिए, न कि उस विषय से जुड़े हुए मंत्रालय द्वारा। इसके बाद अदालत ने ट्रिब्यूनल्स के प्रशासन के लिए स्वतंत्र राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल्स आयोग की स्थापना का सुझाव दिया था। लेकिन इन सुझावों को अमल में नहीं लाया गया।
- हालांकि कुछ ट्रिब्यूनल्स को इसीलिए स्थापित किया गया था ताकि अदालतों में लंबित मामलों को कम किया जा सके, लेकिन कई ट्रिब्यूनल्स में केस लोड और लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक है।
ट्रिब्यूनल प्रणाली का विकास
ट्रिब्यूनल्स कानून द्वारा स्थापित न्याय या अर्ध न्यायिक संस्थाएं होती हैं।[1] इनका उद्देश्य परंपरागत अदालतों की तुलना में तेजी से फैसले लेने के लिए मंच प्रदान करना है, साथ ही कुछ खास विषयों पर विशेषज्ञता प्रदान करना है।1,[2] अदालतों में लंबित मामलों की संख्या न्यायिक प्रणाली की मुख्य चुनौतियों में से एक है।[3],[4] 6 जून, 2021 तक भारत के उच्च न्यायालयों में 30 वर्ष से भी अधिक समय से लंबित मामलों की संख्या 91,885 है।[5] 1 मई, 2021 तक सर्वोच्च न्यायालयों में 67,898 मामले लंबित हैं।[6] 2017 में भारतीय विधि आयोग ने कहा था कि अदालतों में लंबित मामलों के कारण न्याय प्रदान करने में देरी होती है, और इस तरह न्यायिक प्रणाली की कार्यकुशलता पर असर होता है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया कि कुछ तकनीकी मामलों में परंपरागत अदालतों को फैसले के लिए विशेष ज्ञान की जरूरत होती है।1
इस नोट में भारत में ट्रिब्यूनल प्रणाली के विकास, प्रशासन, कार्यों और उनके कामकाज में सुधार हेतु सुझाए गए उपायों पर चर्चा की गई है।
रेखाचित्र 1: भारतीय ट्रिब्यूनल प्रणाली की संरचना |
Source: PRS |
1976 में 42वें संशोधन के जरिए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 323ए और 323बी को शामिल किया गया। अनुच्छेद 323ए संसद को इस बात का अधिकार देता है कि वह लोक सेवकों की भर्ती और सेवा शर्तों से संबंधित मामलों पर फैसला लेने के लिए प्रशासनिक ट्रिब्यूनल बना सकती है (केंद्रीय और राज्य स्तर पर)। अनुच्छेद 323बी कुछ विषयों को निर्दिष्ट करता है जिसके लिए संसद या राज्य विधानमंडल कानून बनाकर ट्रिब्यूनल्स की स्थापना कर सकते हैं। 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि अनुच्छेद 323बी के अंतर्गत आने वाले विषय विशेष नहीं हैं और विधायिका को अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले किसी भी विषय, जोकि संविधान की सातवीं अनुसूची में निर्दिष्ट है, पर ट्रिब्यूनल बनाने का अधिकार है।[7]
वर्तमान में ट्रिब्यूनल्स को उच्च न्यायालयों के विकल्प और उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ, दोनों के तौर पर बनाया गया है (देखें रेखाचित्र 1)। जहां ट्रिब्यूनल्स उच्च न्यायालय के विकल्प के तौर पर बनाए गए हैं, वहां ट्रिब्यूनल्स (जैसे सिक्योरिटीज़ अपीलीय ट्रिब्यूनल) के फैसलों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। जहां वे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ अदालत (जैसे कॉपीराइट एक्ट, 1957 के अंतर्गत अपीलीय बोर्ड) के तौर पर बनाए गए हैं, वहां संबंधित उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
पिछले 80 वर्षों के दौरान ट्रिब्यूनल प्रणाली को परंपरागत न्याय प्रणाली के समानांतर विकसित किया गया है। 1941 में इनकम टैक्स अपीलीय ट्रिब्यूनल को अदालत में लंबित मामलों को कम करने के उद्देश्य से बनाया गया था।1 323ए और 323बी की प्रविष्टि के बाद अस्सी के दशक के बाद से कई ट्रिब्यूनल्स बनाई गईं जिनमें केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के साथ ही क्षेत्र विशेष ट्रिब्यूनल शामिल हैं। फाइनांस एक्ट, 2017 ने कई ट्रिब्यूनल्स को एक कर दिया। 2021 में नौ ट्रिब्यूनल्स को भंग करने और उनके मामलों को अदालतों में ट्रांसफर करने के लिए एक बिल पेश किया गया।
तालिका 1 में भारत में ट्रिब्यूनल प्रणाली के मुख्य घटनाक्रमों का सारांश प्रस्तुत किया गया है।
तालिका 1: भारतीय ट्रिब्यूनल प्रणाली के मुख्य घटनाक्रम
वर्ष |
मुख्य घटनाक्रम |
1941 |
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1969 |
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1974 |
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1976 |
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1980 के बाद |
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2017 |
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2021 |
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Sources: Respective reports, Acts, Bills, and Ordinances as cited in the corresponding items above; PRS.
ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, युनाइटेड किंगडम और युनाइडेट स्टेट्स ऑफ अमेरिका में ट्रिब्यूनल प्रणाली की संरचना
ऊपरी ट्रिब्यूनल की अपील कोर्ट ऑफ अपील में की जा सकती है। कोर्ट ऑफ अपील देश के सुप्रीम कोर्ट के बाद दूसरी सबसे उच्च अदालत है। रोजगार संबंधी मामलों के लिए अलग से ट्रिब्यूनल है, जिसे इंप्लॉयमेंट अपील्स ट्रिब्यूनल कहा जाता है। इस ट्रिब्यूनल की अपील कोर्ट ऑफ अपील में की जा सकती है। सभी अदालतों और ट्रिब्यूनल्स के प्रशासन का प्रबंधन एक अलग संगठन करता है जिसे हर मेजेस्टीज़ कोर्ट्स एंड ट्रिब्यूनल्स सर्विस (एचएमसीटीएस) कहा जाता है।
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मुख्य मुद्दे
ट्रिब्यूनल्स के कामकाज से संबंधित दो मुख्य मुद्दे हैं। पहला, अर्ध न्यायिक होने के कारण क्या उन्हें कार्यपालिका से उतनी ही आजादी मिली चाहिए, जितनी उन अदालतों की मिलती है जिनका ये स्थान लेते हैं। दूसरा, विवादों पर तुरंत फैसले लेने में उनकी सफलता का स्तर। इसके अतिरिक्त संवैधानिक व्यवस्था में उनकी मौजूदगी पर ही सवाल खड़े किए जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इनमें से कुछ मुद्दों की जांच की है और कुछ सिद्धांतों को निर्धारित किया है। तालिका 2 में इनमें से कुछ फैसलों का सारांश प्रस्तुत किया गया है।
तालिका 1: सर्वोच्च न्यायालय के ट्रिब्यूनल संबंधी मुख्य फैसले
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय |
निर्दिष्ट सिद्धांत |
एस. पी, संपत कुमार इत्यादि बनाम भारत संघ एवं अन्य, 1986[20] |
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एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ एवं अन्य, 1997[21] |
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आर. गांधी बनाम भारत संघ एवं एक अन्य, 20107 |
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मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ एवं एक अन्य, 2014[22] |
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रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड एवं अन्य, 2019[23] |
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मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ, 2020[24] |
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मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ, 2021[25] |
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Sources: Respective judgements, PRS.
ट्रिब्यूनल्स का संवैधानिक आधार और क्षमता
ट्रिब्यूनल्स की संवैधानिक स्थिति पर सवाल उठाया जाता रहा है। खास तौर से यह कि क्या वे उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में आती हैं। 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संसद उच्च न्यायालयों के विकल्प के तौर पर संस्थाओं की स्थापना कर सकती है, बशर्ते उनकी क्षमता उच्च न्यायालयों के ही समान हो।20
1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ट्रिब्यूनल्स कानूनी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता के सवालों पर फैसले सुना सकती हैं।21 हालांकि ऐसे मामलों में उन्हें उच्च न्यायालयों के विकल्प के बजाय अनुपूरक के रूप में माना जाएगा।21 इसलिए ऐसे मामलों पर उनके फैसलों की जांच उच्च न्यायालय की खंडपीठ कर सकती है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ट्रिब्यूनल्स को अपने मूल कानून की संवैधानिकता से संबंधित सवालों पर फैसला नहीं करना चाहिए। ऐसे मामलों पर सीधे उच्च न्यायालयों को फैसला करना चाहिए।21
ट्रिब्यूनल्स की स्वतंत्रता
2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि भारत में ट्रिब्यूनल्स को पूरी स्वतंत्रता नहीं मिली है।[26] 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय टैक्स ट्रिब्यूनल, 2005 की समीक्षा करते हुए कहा था कि जब ट्रिब्यूनल में उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र निहित हो तो उसे कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त होना चाहिए।22 ट्रिब्यूनल के प्रशासनिक कामकाज में केंद्र सरकार के किसी भी दखल (जैसे सदस्यों के अवकाश को मंजूर करना) से उनकी स्वतंत्रता प्रभावित होगी।22 ट्रिब्यूनल की स्वतंत्रता को निर्धारित करने वाले घटकों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) सदस्यों की चयन प्रक्रिया, (ii) ट्रिब्यूनल्स का संयोजन, और (iii) सदस्यों का कार्यकाल और सेवा शर्तें।22
- सदस्यों की चयन प्रक्रिया: 1986 में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल एक्ट, 1985 की समीक्षा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के सभी प्रकार के हस्तक्षेपों से दूर करना संविधान की एक बुनियादी अनिवार्यता है।20 इसलिए केंद्र सरकार को यह अधिकार देना कि वह उच्च न्यायालय के विकल्प के तौर पर स्थापित ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन और अन्य सदस्यों को नियुक्त करे, न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।20 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि ट्रिब्यूनल्स की सिलेक्शन कमिटीज़ में न्यायिक प्रभुत्व की कमी से शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होता है और यह न्यायिक क्षेत्र में अतिक्रमण है।23 इसके अतिरिक्त अदालत ने स्पष्ट किया कि कार्यपालिका अक्सर मुकदमेबाजी में एक पक्ष होती है और इसलिए उसे न्यायिक नियुक्तियों में प्रबल पक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए।23 ट्रिब्यूनल्स में सदस्यों की नियुक्ति और उन्हें हटाने की व्यवस्था और उनके कार्यकाल को विधायी और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से पर्याप्त सुरक्षित होने चाहिए।23
नवंबर 2020 में अदालत ने निर्दिष्ट किया कि ट्रिब्यूनल्स की सिलेक्शन कमिटीज़ में निम्नलिखित शामिल होने चाहिए: (i) भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित व्यक्ति (कास्टिंग वोट के साथ), (ii) ट्रिब्यूनल का पीठासीन अधिकारी या अगर पीठासीन अधिकारी न्यायिक सदस्य नहीं है या अगर वह पुनर्नियुक्ति की मांग करता है तो सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, (iii) विधि एवं न्याय मंत्रालय का सेक्रेटरी, (iv) मूल मंत्रालय के अतिरिक्त किसी दूसरे मंत्रालय से केंद्र सरकार का सेक्रेटरी, और (v) मूल मंत्रालय का सेक्रेटरी (वोटिंग अधिकार के बिना)।24
- ट्रिब्यूनल्स का संयोजन: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ट्रिब्यूनल के सदस्यों का चयन केंद्र सरकार के विभागों और अन्य विशिष्ट क्षेत्रों से किया जा सकता है।21 न्यायिक सदस्यों के साथ एक्सपर्ट सदस्यों (तकनीकी सदस्यों) की मौजूदगी ट्रिब्यूनल्स की मुख्य विशेषता है जोकि उन्हें परंपरागत अदालतों से अलग बनाती है।7 सिर्फ न्यायिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों (जैसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और निर्दिष्ट अनुभव वाले वकील जोकि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के तौर पर नियुक्ति के पात्र हैं) को न्यायिक सदस्यों के रूप में नियुक्त किए जाने पर विचार किया जा सकता है।7
सर्वोच्च न्यायालय ने निर्दिष्ट किया था कि यदि सिर्फ मामलों के जल्द निपटान के लिए न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को ट्रिब्यूनल्स में हस्तांतरित किया गया है तो तकनीकी सदस्य की कोई आवश्यकता नहीं है।7 ऐसे मामलों में न्यायिक सदस्यों के अलावा या उनके स्थान पर तकनीकी सदस्यों का प्रावधान स्पष्ट रूप से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने और उनके अतिक्रमण का मामला होगा।7,22,23 इसके अतिरिक्त जहां ट्रिब्यूनल में तकनीकी सदस्य हों, तो तकनीकी सदस्य को दो सदस्यीय पीठ में हमेशा न्यायिक सदस्य के साथ बैठना चाहिए।7 बड़ी बेंच के मामले में गैर न्यायिक सदस्यों की संख्या न्यायिक सदस्यों से अधिक नहीं होनी चाहिए।7
- कार्यकाल: 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सदस्यों के छोटे कार्यकाल (जैसे तीन वर्ष) के साथ-साथ पुनर्नियुक्ति के प्रावधान से न्यायपालिका पर कार्यपालिका का प्रभाव और नियंत्रण बढ़ता है।23 इसके अलावा कार्यकाल छोटा होने की स्थिति में, जब तक सदस्य किसी विषय का ज्ञान, विशेषज्ञता और क्षमता हासिल करते हैं, तब तक उनका कार्यकाल खत्म हो जाता है।22 इससे न्यायिक अनुभव बढ़ नहीं पाता, और ट्रिब्यूनल्स की कार्यकुशलता प्रभावित होती है।23 इसके अतिरिक्त मेधावी उम्मीदवार इन पदों के लिए आवेदन करने से हतोत्साहित होते हैं, चूंकि शायद वे इतने कम समय के लिए सदस्य बनने हेतु अपना अच्छा-खासा करियर न छोड़ना चाहें।23 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि चेयरपर्सन और अन्य सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष होना चाहिए (जोकि चेयरपर्सन के लिए 70 वर्ष और अन्य सदस्यों के लिए 67 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा के अधीन होगा)।24
- ट्रिब्यूनल्स का प्रशासन: 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल्स की नियुक्तियों और प्रशासन के एक समान प्रबंधन के लिए स्वतंत्र व्यवस्था तैयार करने का सुझाव दिया था। अदालत ने निर्दिष्ट किया था कि जब तक ऐसी स्वतंत्र एजेंसी न बनाए जाए तब तक सभी ट्रिब्यूनल्स किसी एक नोडल मंत्रालय के प्रशासन के अंतर्गत आनी चाहिए (जैसे विधि मंत्रालय)।21 इसके बाद 2014 में अदालत ने निर्दिष्ट किया कि सभी ट्रिब्यूनल्स को विधि एवं न्याय मंत्रालय से प्रशासनिक सहयोग मिलना चाहिए।22 इसके अतिरिक्त उसने निर्दिष्ट किया कि ट्रिब्यूनल्स और उनके सदस्यों को संबंधित मंत्रालय या विभाग से सुविधा की मांग नहीं करनी चाहिए या उनसे सुविधा नहीं मिलनी चाहिए।22
कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने भारत में सभी ट्रिब्यूनल्स के प्रशासन के लिए राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल्स आयोग (एनटीसी) नामक एक स्वतंत्र निकाय की स्थापना का सुझाव दिया था।[27] 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात पर जोर दिया था कि ट्रिब्यूनल्स के कामकाज और प्रशासन के अतिरिक्त नियुक्तियों पर निगरानी रखने के लिए एनटीसी बनाई जाए। हालांकि अब तक एनटीसी की स्थापना नहीं की गई है।
लंबित मामले
ट्रिब्यूनल्स को जिन मुख्य उद्देश्यों के लिए बनाया गया था, उनमें से एक यह था कि अदालतों के काम के बोझ को कम किया जा सके जिससे मामलों का जल्द निस्तारण हो। हालांकि कई ट्रिब्यूनल्स में भी लंबित मामलों का बड़ा बैकलॉग है। उदाहरण के लिए 15 मार्च, 2021 तक केंद्र सरकार के औद्योगिक ट्रिब्यूनल-लेबर कोर्ट्स में लंबित मामलों की संख्या 7,312 है; 28 फरवरी, 2021 तक आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल में 18,829 मामले लंबित हैं और 1 जनवरी, 2018 तक इनकम टैक्स अपीलीय ट्रिब्यूनल में लंबित मामलों की संख्या 91,643 है।[28],[29],[30]
ट्रिब्यूनल सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा की शर्तें) अध्यादेश, 2021 ने नौ ट्रिब्यूनल्स को भंग किया है और उनके काम को उच्च न्यायालयों को ट्रांसफर किया है।15 इस अध्यादेश से उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ सकती है।
अदालतों में लंबित मामलों की बड़ी संख्या के मुख्य कारणों में से एक यह है कि मानव संसाधन की कमी है (जैसे न्यायाधीशों की अपर्याप्त संख्या)।30 कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि कई ट्रिब्यूनल्स (जैसे साइबर अपीलीय ट्रिब्यूनल और आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल) में पद रिक्त है जोकि उन्हें निष्क्रिय बनाता है।27 3 मार्च, 2021 तक आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल के न्यायिक और प्रशासनिक सदस्यों की कुल स्वीकृत संख्या 34 है जिनमें से 23 पद रिक्त हैं।29 कमिटी ने कहा है कि एनटीसी ट्रिब्यूनल्स को संसाधन (इंफ्रास्ट्रक्चरल, वित्तीय और मानव संसाधन) प्रदान करने वाली डेडिकेटेड स्वतंत्र एजेंसी हो सकती है जोकि ट्रिब्यूनल्स की इन समस्याओं को हल करने में मदद करेगी।27
न्यायिक आकलन यह तय करने में मदद करेगा कि नए कानून के लागू होने के बाद नए मामलों से निपटने के लिए कितने अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत होगी। 2019 में ट्रिब्यूनल्स के विलय की समीक्षा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि विलय के विश्लेषण के लिए न्यायिक प्रणाली पर होने वाले असर का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।23 हालांकि सरकार ने 2017 के विलय या हाल ही ट्रिब्यूनल्स को भंग किए जाने पर कोई मूल्यांकन रिपोर्ट जारी नहीं की।
अनुलग्नक
ट्रिब्यूनल्स के फैसलों के खिलाफ आम तौर पर संबंधित उच्च न्यायालय में अपील की जाती है। हालांकि कुछ कानून निर्दिष्ट करते हैं कि अपील की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में की जाएगी। तालिका 3 में अदालतों और उनके अपीलीय क्षेत्रधिकार में आने वाले कुछ ट्रिब्यूनल्स का उल्लेख किया गया है।
तालिका 2: भारत में कुछ ट्रिब्यूनल्स की अपीलीय अदालतें
ट्रिब्यूनल का नाम |
ट्रिब्यूनल को स्थापित करने वाले कानून |
अपीलीय अदालत |
औद्योगिक ट्रिब्यूनल |
औद्योगिक विवाद एक्ट, 1947 |
उच्च न्यायालय |
इनकम-टैक्स अपीलीय ट्रिब्यूनल |
इनकम टैक्स एक्ट, 1961 |
उच्च न्यायालय |
कस्टम्स, एक्साइज और सर्विस टैक्स अपीलीय ट्रिब्यूनल |
कस्टम्स एक्ट, 1962 |
उच्च न्यायालय |
अपीलीय ट्रिब्यूनल |
स्मगलर्स और विदेशी मुद्रा मैनिपुलेटर्स (संपत्ति की जब्ती) एक्ट, 1976 |
उच्च न्यायालय |
केंद्रीय प्रशासनिक ट्रिब्यूनल |
प्रशासनिक ट्रिब्यूनल एक्ट, 1985 |
सर्वोच्च न्यायालय |
रेलवे दावा ट्रिब्यूनल |
रेलवे दावा ट्रिब्यूनल एक्ट, 1987 |
उच्च न्यायालय |
सिक्योरिटीज़ अपीलीय ट्रिब्यूनल |
भारतीय सिक्योरिटीज़ एक्सचेंड बोर्ड एक्ट, 1992 |
सर्वोच्च न्यायालय |
ऋण वसूली अपीलीय ट्रिब्यूनल |
बैंक और वित्तीय संस्थानों पर देय ऋण वसूली एक्ट, 1993 |
उच्च न्यायालय |
टेलीकॉम विवाद निपटारा और अपीलीय ट्रिब्यूनल |
भारतीय टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी एक्ट, 1997 |
सर्वोच्च न्यायालय |
राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय ट्रिब्यूनल |
कंपनी एक्ट, 2013 |
सर्वोच्च न्यायालय |
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग |
उपभोक्ता संरक्षण एक्ट, 2019 |
सर्वोच्च न्यायालय |
बिजली अपीलीय ट्रिब्यूनल |
बिजली एक्ट, 2003 |
सर्वोच्च न्यायालय |
आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल |
आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल एक्ट, 2007 |
सर्वोच्च न्यायालय |
राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल |
राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल एक्ट, 2010 |
सर्वोच्च न्यायालय |
Sources: Respective Acts, PRS.
[1] Report No. 272 – Assessment of Statutory Frameworks of Tribunals in India, Law Commission of India, October 2017.
[2] Administrative Justice and Tribunals: Final report of progress against the Strategic Work Programme 2013-2016, Ministry of Justice, Government of United Kingdom, March 2017.
[3] Report No. 230 – Reforms in the Judiciary: Some Suggestions, Law Commission of India, August 2009.
[4] Report No. 245 – Arrears and Backlog: Creating Additional Judicial (wo)manpower, Law Commission of India, July 2014.
[5] National Judicial Data Grid – High Courts of India, as accessed on June 9, 2021.
[6] Monthly pending cases as of May 1, 2021, Supreme Court of India.
[7] Union of India vs R. Gandhi and Ors., 2010 (261) ELT3 (S.C.), Supreme Court of India, May 11, 2010.
[8] The Finance Act, 2017, Ministry of Law and Justice, March 31, 2017.
[10] Report No. 58 – Structure and Jurisdiction of the Higher Judiciary, Law Commission of India, January 1974.
[11] Volume I – Report of The National Commission to Review the Working of the Constitution, Ministry of Law, Justice and Company Affairs, March 31, 2002.
[13] Unstarred Question No. 675, Ministry of Law and Justice, November 20, 20219.
[14] The Tribunals Reforms (Rationalisation and Conditions of Service) Bill, 2021, Ministry of Finance, February 13, 2021.
[15] The Tribunals Reforms (Rationalisation and Conditions of Service) Ordinance, 2021, Ministry of Law and Justice, April 4, 2021.
[16] Tribunals in Australia: Their Roles and Responsibilities, Administrative Appeals Tribunal as accessed on June 13, 2021.
[18] The French Legal System, Ministry of Justice, Government of France, as accessed on June 19, 2021.
[19] Tribunals, Courts and Enforcement Act 2007, Government of United Kingdom.
[20] S. P. Sampath Kumar Etc. versus Union of India and Ors., 1987 AIR 386, Supreme Court of India, December 9, 1986.
[21] L. Chandra Kumar versus Union of India and Ors., AIR 1997 SC1125, Supreme Court of India, March 18, 1997.
[22] Madras Bar Association versus Union of India, 2014 (308) ELT209 (S.C.), Supreme Court of India, September 25, 2014.
[23] Rojer Mathew versus South Indian Bank Ltd & Ors., 2019 (369) ELT3 (S.C.), Supreme Court of India, November 13, 2019.
[24] Madras Bar Association vs Union of India & Anr., Civil Writ Petition No. 804 of 2020, November 27, 2020.
[25] Madras Bar Association vs Union of India, W.P.(C) No. 000502 of 2021, Supreme Court of India, July 14, 2021.
[26] Madras Bar Association versus Union of India and Anr., Civil appeal no. 3067 of 2004 and 3717 of 2005, Supreme Court of India, May 11, 2010.
[27] Report No. 74 - Tribunals, Appellate Tribunals and Other Authorities (Conditions of Service) Bill, 2014, Standing Committee On Personnel, Public Grievances, Law And Justice, February 26, 2015.
[28] Unstarred Question No. 4182, Ministry of Labour and Employment, March 22, 2021.
[29] Unstarred Question No. 2663, Ministry of Defence, March 10, 2021.
[30] Annual Report 2017-18, Ministry of Law and Justice.
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