विचारणीय मुद्दे

राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन बिल, 2019

भारतीय मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 के अंतर्गत भारतीय मेडिकल काउंसिल (एमसीआई) की स्थापना की गई थी। इसका उद्देश्य मेडिकल शिक्षा के मानदंडों को बरकरार रखना, मेडिकल कॉलेजों, मेडिकल कोर्सेज को शुरू करने को मंजूरी देना और मेडिकल क्वालिफिकेशन को मान्यता देना था। एमसीआई मेडिकल प्रैक्टिस के रेगुलेशन के लिए जिम्मेदार है और ऑल इंडिया मेडिकल रजिस्टर में डॉक्टरों को रजिस्टर करने का कार्य भी करती है।[1]  राज्यों के अपने खुद के कानून हैं जोकि मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के नैतिक और पेशेवर दुर्व्यवहार से संबंधित मामलों को रेगुलेट करने के लिए राज्य मेडिकल काउंसिल की स्थापना करते हैं।[2]

पिछले कुछ वर्षों के दौरान एमसीआई के कामकाज से जुड़ी कई समस्याएं सामने आई हैं। इनमें काउंसिलों की रेगुलेटरी भूमिका, संरचना, भ्रष्टाचार के आरोप और उत्तरदायित्व का अभाव शामिल है।[3],[4]  2009 में यशपाल कमिटी और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने मेडिकल शिक्षा और मेडिकल प्रैक्टिस के रेगुलेशन को अलग-अलग करने का सुझाव दिया था।[5],[6]  सुझाव में कहा गया था कि मेडिकल शिक्षा को रेगुलेट करने का दायित्व एमसीआई का नहीं होना चाहिए बल्कि वह एक ऐसी प्रोफेशनल बॉडी होनी चाहिए जो मेडिकल प्रोफेशन में प्रवेश करने के लिए क्वालिफाइंग परीक्षाएं संचालित करे।

पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016), प्रोफेसर रंजीत राय चौधरी की अध्यक्षता में एक्सपर्ट कमिटियों और नीति आयोग (2016) ने सुझाव दिया कि एमसीआई के कामकाज में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए विधायी संशोधन किए जाने चाहिए।4,[7]  मेडिकल शिक्षा एवं क्वालिफाइंग परीक्षाएं, मेडिकल एथिक्स एवं प्रैक्टिस, मेडिकल कॉलेजों के एक्रेडेशन जैसे कार्यों के लिए नीति आयोग ने एमसीआई की संरचना में बदलाव और कई स्वायत्त बोर्डों की स्थापना का सुझाव दिया।[8] 

29 दिसंबर, 2017 को लोकसभा में राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन बिल, 2017 पेश किया गया। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने इस बिल की समीक्षा की और 20 मार्च, 2018 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। कमिटी ने निम्नलिखित के संबंध में अनेक सुझाव दिए: (i) राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन की संरचना, (ii) निजी मेडिकल कॉलेजों में कम से कम 50% सीटों के लिए फीस का रेगुलेशन, और  (iii) लाइसेंशिएट परिक्षी को एमबीबीएस की अंतिम वर्ष की परीक्षा में शामिल करना। 16वीं लोकसभा के भंग होने के साथ 2017 का बिल लैप्स हो गया। नई लोकसभा में 22 जुलाई, 2019 को राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन बिल को पेश किया गया। यह बिल भारतीय मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 को निरस्त करता है।

बिल की मुख्य विशेषताएं

राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन की संरचना और कामकाज

  • बिल राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (एनएमसी) का गठन करता है। एनएमसी में 25 सदस्य होंगे। एक सर्च कमिटी चेयरपर्सन और पार्ट टाइम सदस्यों के लिए नामों का सुझाव देगी। एनएमसी के सदस्यों का कार्यकाल अधिकतम चार वर्ष होगा और उन्हें दोबारा नियुक्त नहीं किया जाएगा।
     
  • सर्च कमिटी में सात सदस्य होंगे, जिनमें कैबिनेट सचिव, केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव और केंद्र सरकार द्वारा नामित पांच विशेषज्ञ शामिल होंगे (इनमें से तीन मेडिकल क्षेत्र के विशेषज्ञ होंगे)।
     
  • एनएमसी के सदस्यों में निम्नलिखित शामिल होंगे : (i) चेयरपर्सन, (ii) एनएमसी के अंतर्गत गठित चार बोर्ड्स के प्रेज़िडेंट, (iii) स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय और भारतीय मेडिकल रिसर्च काउंसिल के महानिदेशक, (v) जिपमेर, पुद्दूचेरी तथा टाटा मेमोरियल अस्पताल, मुंबई जैसे मेडिकल संस्थानों के कोई भी दो निदेशक, और (vi) पांच सदस्य (पार्ट टाइम), जिन्हें बिल के अंतर्गत निर्धारित क्षेत्रों से पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टीशनर्स द्वारा चुना जाएगा, और (vii) मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल में राज्यों के प्रतिनिधियों में से छह सदस्य, जिन्हें रोटेशन के आधार पर चुना जाएगा।
     
  • राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन के कार्य: एनएमसी के कार्यों में निम्नलिखित शामिल हैं : (i) मेडिकल संस्थानों और मेडिकल प्रोफेशनल्स को रेगुलेट करने के लिए नीतियां बनाना, (ii) स्वास्थ्य सेवा से संबंधित मानव संसाधनों और इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत का आकलन करना, और (iii) बिल के अंतर्गत रेगुलेट होने वाले प्राइवेट मेडिकल संस्थानों और मानद (डीम्ड) विश्वविद्यालयों की अधिकतम 50% सीटों की फीस तय करने के लिए दिशानिर्देश बनाना।
     
  • बिल की अनुसूची में सूचीबद्ध श्रेणियों के दायरे में आने वाले भारत के किसी वैधानिक या अन्य संस्थान द्वारा प्रदत्त मेडिकल क्वालिफिकेशन मान्यता प्राप्त होगी। राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों (जैसे एम्स और जिपमेर) के अपने अधिनियम हैं और वे एनएमसी के अंतर्गत नहीं आते।
     
  • स्वायत्त बोर्ड्स: एनएमसी की निगरानी में चार स्वायत्त बोर्ड्स का गठन किया गया है। प्रत्येक बोर्ड में एक प्रेज़िडेंट और चार सदस्य होंगे (सदस्यों में से दो पार्ट टाइम होंगे)। इन्हें केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा। 

रेखाचित्र 1:  एनएमसी के अंतर्गत चार स्वायत्त बोर्ड्स

  • मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल: बिल के अंतर्गत केंद्र सरकार एक मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल का गठन करेगी। काउंसिल वह मुख्य प्लेटफॉर्म होगा, जिसके जरिए राज्य/केंद्र शासित प्रदेश एनएमसी से संबंधित अपने विचार और चिंताओं को साझा कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त काउंसिल एनएमसी को इस संबंध में सलाह देगी कि किस प्रकार सभी लोगों को समान रूप से मेडिकल शिक्षा प्राप्त हो सके।
     
  • प्रवेश परीक्षाएं: बिल द्वारा रेगुलेट किए जाने वाले सभी मेडिकल संस्थानों में अंडर-ग्रैजुएट और पोस्ट ग्रैजुएट सुपर-स्पैशियलिटी मेडिकल शिक्षा में प्रवेश के लिए यूनिफॉर्म नेशनल एलिजिबिलिटी कम इंट्रेंस टेस्ट (नीट) होगा। इन सभी मेडिकल संस्थानों में प्रवेश के लिए कॉमन काउंसिलिंग का तरीका एनएमसी द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाएगा।
     
  • बिल प्रस्तावित करता है कि मेडिकल संस्थानों से ग्रैजुएट होने वाले विद्यार्थियों को प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस हासिल करने हेतु राष्ट्रीय एक्जिट टेस्ट नाम की कॉमन फाइनल ईयर अंडरग्रैजुएट परीक्षा देनी होगी। मेडिकल संस्थानों में पोस्ट-ग्रैजुएट कोर्सों में प्रवेश हासिल करने के लिए यह परीक्षा आधार का काम भी करेगी।
     
  • विदेशी मेडिकल प्रैक्टीशनर्स को भारत में विनिर्दिष्ट तरीके से स्थायी रजिस्ट्रेशन की अनुमति दी जा सकती है।
     
  • सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाता: बिल के अंतर्गत एनएमसी आधुनिक चिकित्सा से जुड़े कुछ मध्य स्तरीय प्रैक्टीशनर्स को प्रैक्टिस के लिए सीमित संख्या में लाइसेंस दे सकता है। ये प्रैक्टीशनर्स प्राथमिक और रोकथामकारी स्वास्थ्य सेवा में विनिर्दिष्ट दवाओं का नुस्खा दे सकते हैं। बाकी सभी स्थितियों में ये प्रैक्टीशनर्स पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टीशनर्स की निगरानी में ही दवा का नुस्खा दे सकते हैं।
     
  • पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार: पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टीशनर के खिलाफ पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतें राज्य मेडिकल काउंसिल में की जा सकती हैं। अगर मेडिकल प्रैक्टीशनर को राज्य मेडिकल काउंसिल के फैसले से शिकायत हो तो वह एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड में अपील कर सकता है।
     
  • राज्य मेडिकल काउंसिल्स तथा एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड के पास मेडिकल प्रैक्टीशनर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की शक्ति है। वे उस पर मौद्रिक दंड भी लगा सकती हैं। अगर मेडिकल प्रैक्टीशनर को बोर्ड के फैसले से शिकायत हो तो वह उस फैसले के खिलाफ एनएमसी में अपील कर सकता है।
     
  • अपराध और सजा: राज्य रजिस्टर या राष्ट्रीय रजिस्टर में दर्ज व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य को क्वालिफाइड मेडिकल प्रैक्टीशनर के तौर पर मेडिसिन प्रैक्टिस करने की अनुमति नहीं होगी। इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर एक वर्ष तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है या पांच लाख रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है, या दोनों सजा एक साथ भुगतनी पड़ सकती है।

विचारणीय मुद्दे

राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन की संरचना

बिल मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस के रेगुलेटर के रूप में राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (एनएमसी) की स्थापना करता है। एनएमसी में 25 सदस्य होंगे जिनमें से 15 (60%) मेडिकल प्रैक्टीशनर होंगे।

भारतीय मेडिकल काउंसिल (एमसीआई) मौजूदा रेगुलेटर है जोकि एक निर्वाचित निकाय है। एमसीआई के प्रेज़िडेंट और सदस्यों को मेडिकल प्रैक्टीशनर खुद चुनते हैं। बिल एमसीआई की जगह एनएमसी को लाया है जोकि एक निर्वाचित निकाय नहीं है। एमसीआई की संरचना की पड़ताल करते हुए पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016) ने कहा था कि यह विविधतापूर्ण नहीं है और इसमें अधिकतर डॉक्टर होते हैं जोकि जनहित की अपेक्षा अपना हित देखते हैं।

4 कमिटी ने सुझाव दिया था कि डॉक्टरों की मोनोपली को कम करने के लिए एमसीआई में विभिन्न स्टेकहोल्डर्स को शामिल किया जाना चाहिए जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य के एक्सपर्ट्स, सोशल साइंटिस्ट्स, हेल्थ इकोनॉमिस्ट्स और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े गैर सरकारी संगठन।

उल्लेखनीय है कि युनाइटेड किंगडम में जनरल मेडिकल काउंसिल, जो मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस को रेगुलेट करती है, में 12 मेडिकल प्रैक्टीशनर और 12 सामान्य सदस्य (जैसे सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी और स्थानीय सरकार के अधिकारी) होते हैं।[9]

फीस निर्धारित करने की शक्ति

बिल एनएमसी को शक्ति प्रदान करता है कि वह निजी मेडिकल कॉलेजों और मानद विश्वविद्यालयों में अधिकतम 50% सीटों की फीस निर्धारित करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करे। प्रश्न यह है कि रेगुलेटर के रूप में क्या एनएमसी को निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस रेगुलेट करनी चाहिए।

सामान्य तौर पर निजी क्षेत्र लाभ के उद्देश्य से कार्य करता है लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि देश में शिक्षा प्रदान करने वाले निजी संस्थानों को धर्मार्थ और गैर लाभकारी संगठनों के रूप में कार्य करना होगा।[10] 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि निजी गैर सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों की फीस को रेगुलेट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय ने कैपिटेशन फीस पर तो प्रतिबंध लगाया था लेकिन शिक्षण संस्थानों को वाजिब (रीजनेबल) सरप्लस फीस लेने की अनुमति दी थी जिसका उपयोग उसके विस्तारीकरण और विकास के लिए किया जाना चाहिए।[11],[12]  हालांकि कई एक्सपर्ट कमिटियों ने कहा है कि अनेक निजी शिक्षण संस्थान हद से ज्यादा फीस लेते हैं जिससे प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए मेडिकल शिक्षा महंगी हो जाती है और उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाती।4,5,8  इसलिए वर्तमान में निजी गैर सहायता प्राप्त कॉलेजों की फीस संरचना को राज्य सरकारों द्वारा गठित कमिटी द्वारा तय किया जाता है जिसकी अध्यक्षता उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायाधीश करते हैं।[13]  यह कमिटी तय करती है कि कॉलेज द्वारा प्रस्तावित फीस उचित है अथवा नहीं और कमिटी का फैसला बाध्यकारी होता है।

दूसरी ओर निजी कॉलेजों का दावा है कि फीस को समय-समय पर संशोधित किया जाना चाहिए जिससे (i) मेनटेनेंस की बढ़ती लागत और प्रशासनिक खर्चों, (ii) फैकेल्टी और स्टाफ के वेतन में संशोधन, (iii) लैब उपकरणों के मेनटेनेंस, मूल्य संवर्धित कोर्सेज़ के लिए अपेक्षित अतिरिक्त संसाधनों, और दूसरी आकस्मिक परिस्थितियों को कवर किया जा सके।[14]  नीति आयोग की कमिटी (2016) का यह मानना था कि फी कैप से निजी कॉलेजों की स्थापना पर असर होगा और फलस्वरूप देश में मेडिकल शिक्षा का विस्तार सीमित होगा।8  यह भी गौर किया गया कि फी कैप को लागू करना मुश्किल है और इससे मेडिकल कॉलेज दूसरे बहानों से अंडर द टेबल कैपिटेशन फीस और अन्य नियतकालीन फीस वसूलना जारी रखेंगे।8

उल्लेखनीय है कि पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2018) ने फी स्ट्रक्चर की मौजूदा प्रणाली को जारी रखने का सुझाव दिया है जिसमें उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली कमिटी द्वारा फीस तय की जाती है।[15] हालांकि जिन निजी मेडिकल कॉलेजों और मानद विश्वविद्यालयों का रेगुलेशन मौजूदा प्रणाली के अंतर्गत नहीं किया जाता, उनकी न्यूनतम 50% सीटों की फीस रेगुलट की जानी चाहिए।

पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित फैसलों पर अपील

डॉक्टरों के दुर्व्यवहार से संबंधित अपीलों की सुनवाई करने की केंद्र सरकार की क्षमता

बिल के अंतर्गत संबंधित राज्य कानूनों के अंतर्गत स्थापित राज्य मेडिकल काउंसिल्स पंजीक़ृत मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के खिलाफ पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों को प्राप्त करेंगी। अगर कोई मेडिकल प्रैक्टीशनर राज्य मेडिकल काउंसिल के फैसले से असंतुष्ट है तो वह एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड से अपील कर सकता है। राज्य मेडिकल काउंसिल्स तथा एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड के पास मेडिकल प्रैक्टीशनर के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की शक्ति है जिसमें आर्थिक दंड लगाना भी शामिल है। अगर बोर्ड के फैसले से मेडिकल प्रैक्टीशनर असंतुष्ट है तो वह एनएमसी से अपील कर सकता है। बिल के क्लॉज 30 (5) के अनुसार एनएमसी के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार के समक्ष अपील की जा सकती है। यह अस्पष्ट है कि मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के पेशेवर या नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित मामलों में केंद्र सरकार अपीलीय अथॉरिटी क्यों है।

कहा जा सकता है कि मेडिकल प्रैक्टिस में नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित विवादों में न्यायिक विशेषज्ञता की जरूरत हो सकती है। जैसे यूके में मेडिकल शिक्षा और प्रैक्टिस की रेगुलेटर- जनरल मेडिकल काउंसिल (जीएमसी) नैतिक दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों को प्राप्त करती है। काउंसिल से उस मामले में शुरुआती डॉक्यूमेंटरी जांच की अपेक्षा की जाती है और फिर वह उस शिकायत को ट्रिब्यूनल को भेजती है। यह ट्रिब्यूनल जीएमसी से स्वतंत्र न्यायिक निकाय है।9  ट्रिब्यूनल द्वारा न्यायिक फैसला किया जाता है और अंतिम अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है।

इसके अतिरिक्त बिल वह समयावधि निर्दिष्ट नहीं करता, जिसमें केंद्र को ऐसी किसी अपील पर फैसला करना होगा। उल्लेखनीय है कि पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2018) ने कहा है कि केंद्र सरकार को अपीलीय न्यायाधिकार देना, सेपरेशन ऑफ पावर्स के संवैधानिक प्रावधान के अनुकूल नहीं है।15उसने इसके स्थान पर मेडिकल अपीलीय ट्रिब्यूनल की स्थापना का सुझाव दिया।

राज्य मेडिकल काउंसिल्स की संरचना   

बिल कहता है कि जिन राज्यों के कानून राज्य मेडिकल काउंसिल्स को मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के खिलाफ पेशेवर और नैतिक दुर्व्यवहार के मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की शक्ति देते हैं, उन राज्यों में काउंसिल्स दुर्व्यवहार से संबंधित शिकायतों का निवारण करेंगी।

वर्तमान में 29 राज्यों ने राज्य मेडिकल काउंसिल्स की स्थापना की है। इन काउंसिल्स से अपेक्षा की जाती है कि वे मेडिकल प्रैक्टीशनर्स के पेशेवर आचरण को रेगुलेट करने के लिए आचार संहिता बनाएं और उनका उल्लंघन करने पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करें।2  गुजरात, महाराष्ट्र और दिल्ली सहित अनेक राज्यों में राज्य मेडिकल काउंसिल एक निर्वाचित निकाय है जिसके सदस्य मुख्य रूप से मेडिकल प्रैक्टीशनर होते हैं (ये अपने राज्य के कानूनों से प्रशासित होते हैं)।[16],[17],[18]   इस संबंध में मसौदा एनएमसी बिल पर नीति आयोग (2016) ने कहा था कि अगर रेगुलेटर’ (मुख्य रूप से मेडिकल प्रैक्टीशनर्स की सदस्यता वाली राज्य मेडिकल काउंसिल्स) के सदस्य उन लोगों द्वारा निर्वाचित होंगे जिनका रेगुलेशन किया जाना है’ (मेडिकल प्रैक्टीशनर) तो हितों में टकराव हो सकता है।8

पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटी (2016) ने कहा कि मौजूदा एमसीआई की एथिक्स कमिटी में पूरी तरह से मेडिकल डॉक्टर हैं और इसलिए यह एक सेल्फ रेगुलटरी निकाय है। इसकी प्रवृत्ति अपने लोगों को बचाने’ (प्रोटेक्ट इट्स ओन फोक) की होगी।4कमिटी ने यह गौर किया कि राज्य मेडिकल काउंसिल्स नैतिकता से संबंधित फैसलों को छह महीने (फैसला लेने की नियत समय अवधि) के बाद भी लटकाती हैं और दोषी डॉक्टरों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती।4  कमिटी ने मेडिकल एथिक्स के मुद्दों पर अधिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए राज्य मेडिकल काउंसिल्स में सामान्य लोगों को शामिल करने का सुझाव दिया।

प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस का रीन्यूअल

बिल मेडिकल संस्थानों से ग्रैजुएट होने वाले विद्यार्थियों के लिए नेशनल एग्जिट टेस्ट को प्रस्तावित करता है जिसे क्वालिफाई करने के बाद उन्हें प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस प्राप्त होगा। बिल में इस लाइसेंस की वैधता की अवधि निर्दिष्ट नहीं की गई है। युनाइटेड किंगडम (यूके) और ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देशों में इस लाइसेंस को नियत समय पर रीन्यू करने की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए यूके में हर पांच वर्षों में लाइसेंस रीन्यू किया जाता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया में हर साल इसे रीन्यू किया जाता है।

[19],[20]  इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि डॉक्टर अप टू डेट हैं, प्रैक्टिस करने के लिए फिट हैं और मरीजों को अच्छी देखभाल प्रदान कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें निरंतर व्यावसायिक विकास प्रदर्शित करना पड़ता है। उनका कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए। साथ ही उन्हें पेशेवर मानदंडों का भी पालन करना होता है।19,20

 

[1]. The Indian Medical Council Act, 1956.

[2]. List of State Medical Councils, Medical Council of India.

[3]. Union of India vs Harish Bhalla And Ors., LPA Nos. 299 and 301/ 2001 decided on 23.11.2001.

[4]. Functioning of the Medical Council of India, Standing Committee on Health and Family Welfare, March 8, 2016, Rajya Sabha.

[5]. Report to the Nation, 2006-09, National Knowledge Commission.

[6]. Report of The Committee to Advise on Renovation and Rejuvenation of Higher Education, Ministry of Human Resource Development, 2009.

[7]. “Medical Education, Ministry of Health and Family Welfare, Press Information Bureau, August 4, 2017.

[8]. A Preliminary Report of the Committee on the Reform of the Indian Medical Council Act, 1956, August 7, 2016, NITI Aayog.

[9]. The Medical Act, 1983, United Kingdom.

[10]. Unstarred question no 1186, Lok Sabha, Ministry of Health and Family Welfare, February 9, 2018.

[11]Islamic Academy of Education vs. State of Karnataka & Ors., Writ Petition (Civil) 350 of 1993.

[12]TMA Pai Foundation vs. State of Karnataka &Ors., Writ Petition (Civil) 317 of 1993.

[13]. Unstarred question no. 59, Lok Sabha, Ministry of Health and Family Welfare, December 15, 2017.

[14]. Report no.236:  “Prohibition of Unfair Practices in Technical Educational Institutions, Medical Educational Institutions and Universities Bill, 2010, Standing Committee on Human Resource Development, May 30, 2011, Rajya Sabha.

[15]. Report no. 109: “The National Medical Commission Bill, 2017, Standing Committee on Health and Family Welfare, March 20, 2018, Rajya Sabha.

[16]. The Delhi Medical Council Act, 1997.

[17]The Gujarat Medical Council Act, 1967.

[18]The Maharashtra Medical Council Act, 1965.

[19]. An introduction to revalidation, General Medical Council, United Kingdom.

[20]. Codes, Guidelines, and Policies, Medical Board of Australia.

 

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