स्टेट लेजिसलेटिव ब्रीफ

कर्नाटक

कर्नाटक धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण अध्यादेश, 2022

मुख्य विशेषताएं

  • अध्यादेश गलत बयानी, जबरदस्तीलालचधोखाधड़ी या शादी के वादे के जरिए जबरन धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है। इन तरीकों से धर्म परिवर्तन नहीं किया गया है, इसे साबित करने की जिम्मेदारी (बर्डन ऑफ प्रूफ) उस व्यक्ति पर होगी, जो ऐसे धर्म परिवर्तन का कारण बनता है या उसे उकसाता है।
     
  • अध्यादेश उस व्यक्ति के लिए धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया को निर्दिष्ट करता है जो अपनी इच्छा से अपना धर्म बदलना चाहता है। इसके तहत धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति, उससे संबंधित व्यक्ति या सहकर्मी को गैरकानूनी धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की अनुमति दी गई है।

प्रमुख मुद्दे और विश्लेषण

  • स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन के लिए सार्वजनिक नोटिस की जरूरत से निजता के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है।
     
  • अध्यादेश में व्यक्ति के एकदम पहले के धर्म में दोबारा धर्मांतरण की अनुमति दी गई है। इससे संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता के अधिकार का उल्लंघन हो सकता है।
     
  • यह स्पष्ट नहीं है कि कौन गैरकानूनी धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकता है। इसके अलावा ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके तहत पीड़ित व्यक्ति डीएम के आदेश के खिलाफ अपील कर सके।  

 

इस अध्यादेश को 17 मई2022 को जारी किया गया था। दिसंबर 2021 में कर्नाटक विधानसभा ने एक बिल पारित किया था जिसके प्रावधान अध्यादेश जैसे ही थे। यह बिल विधान परिषद में पेश होने के लिए लंबित है। संविधान के अनुसार, अगर परिषद के सामने बिल पेश करने के बाद तीन महीने से ज्यादा समय गुजर जाता है तो विधानसभा उसी या उसके बाद के सत्र में बिल को फिर से पारित कर सकती है।

भाग क : अध्यादेश की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

संविधान सभी लोगों को इस बात का अधिकार देता है कि वे किसी को धर्म को कबूल सकते हैं, उसका प्रचार कर सकते हैं और उसकी प्रैक्टिस कर सकते हैं, जोकि सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने (1977) कहा है कि किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से अपना धर्म बदलने का मौलिक अधिकार है। हालांकि व्यक्ति को यह मौलिक अधिकार नहीं है कि वह जबरदस्ती किसी का धर्म बदले।[1]  

पिछले कुछ वर्षों के दौरान अनेक राज्यों ने जबरन धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों को लागू किया है। मध्य प्रदेश (1967) और ओड़िशा (1968) के कानून धोखाधड़ी, बलपूर्वक या लालच देकर धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाते हैं।[2],[3] सर्वोच्च न्यायालय (1977) ने इन कानूनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। उसने सार्वजनिक व्यवस्था की रक्षा करने के लिए जबरन धर्म परिवर्तनों को रेगुलेट करने की राज्य विधानमंडलों की क्षमता को स्वीकार किया है।1 हाल में झारखंड (2017), उत्तराखंड (2018), हिमाचल प्रदेश (2019), उत्तर प्रदेश (2021) और मध्य प्रदेश (2022) ने धर्म परिवर्तनों को रेगुलेट करने के लिए कानून पारित किए हैं।[4],[5],[6],[7],[8]  इन कानूनों की विस्तृत अंतरराज्यीय तुलना के लिए अनुलग्नक की तालिका 2 देखें।  

कर्नाटक में धर्म परिवर्तन की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए कर्नाटक विधि आयोग (2013) ने एक ऐसा कानून बनाने का सुझाव दिया था जो व्यक्ति के धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करे। उसने कहा था कि जबरन धर्म परिवर्तन से शांति भंग होती है और संघर्ष बढ़ता है।[9]  

मुख्य विशेषताएं

  • जबरन धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध: कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को गलत बयानी, लालचधोखाधड़ी या शादी के वादे के जरिए धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर नहीं करेगा। हालांकि एकदम पहले के धर्म में दोबारा धर्मांतरण करने की अनुमति है। सिर्फ गैरकानूनी धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से शादी और या सिर्फ शादी करने के लिए गैरकानूनी धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध है। अगर किसी शादी में कोई पक्ष अपना धर्म बदलने की इच्छा रखता है तो उस शादी को तभी संपन्न माना जाएगा, जब स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया का पालन किया जाता है।  
  • जबरन धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायतधर्म परिवर्तन करने वाला व्यक्ति, उस व्यक्ति से संबंधित कोई व्यक्ति (जो उससे रक्त, शादी या एडॉप्शन के जरिए जुड़ा हो), या उसके सहकर्मी गैरकानूनी धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं। 
  • बर्डन ऑफ प्रूफधर्म परिवर्तन जबरन या गैरकानूनी नहीं था, यह साबित करने की जिम्मेदारी (बर्डन ऑफ प्रूफ) उस व्यक्ति की है जो धर्म परिवर्तन का कारण बना है, और उस व्यक्ति पर, जिसने धर्म परिवर्तन में मदद की है या उसके लिए उकसाया है। 
  • धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया: अपने धर्म को बदलने के इच्छुक व्यक्ति को जिला मेजिस्ट्रेट (डीएम) को इस संबंध में डेक्लरेशन सौंपना होगा। धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति (कनवर्टर), जो धर्म परिवर्तन की रस्म करता है, को भी डीएम को डेक्लरेशन देना होगा। डीएम प्रस्तावित धर्म परिवर्तन पर दो बार सार्वजनिक आपत्तियों को आमंत्रित करेगा- एक बार, धर्म परिवर्तन से पहले और दूसरी बार, धर्म परिवर्तन के बाद। दूसरी बार आपत्तियां उसी स्थिति में आमंत्रित की जाएंगी, जब कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई जाती। आपत्ति मिलने की स्थिति में डीएम धर्म परिवर्तन के इरादे और उद्देश्य की जांच करेगा। अगर धर्म परिवर्तन गैरकानूनी पाया जाता है तो डीएम आपराधिक कार्रवाई कर सकता है। अध्यादेश के तहत धर्म परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया का विवरण पेज 4 के रेखाचित्र 1 में दिया गया है।  
  • अपराध और दंडतालिका 1 में गैर कानूनी धर्म परिवर्तन के संबंध में दंड का उल्लेख किया गया है। अध्यादेश के तहत हर अपराध संज्ञेय और गैर जमानती है। अगर कोई संस्थान अध्यादेश के प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो उस संस्थान के प्रभारी व्यक्ति या व्यक्तियों को तालिका 1 के प्रावधानों के तहत दंडित किया जाएगा।   

तालिका 1: 2022 के अध्यादेश के तहत निर्धारित दंड

 

धर्म परिवर्तन

कैद

जुर्माना (रु.में)

किसी व्यक्ति का

3-5 वर्ष

25,000

नाबालिग, मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति, या महिला या एससी/एसटी समुदाय के लोगों का

3-10 वर्ष

50,000

दो या उससे अधिक व्यक्तियों का (सामूहिक धर्म परिवर्तन)

3-10 वर्ष

1,00,000

भाग खप्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

धर्म परिवर्तन के मौजूदा सिद्धांत 

जबरन धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाने वाले पहले कानून थे, ओड़िशा धर्म की स्वतंत्रता एक्ट, 1967 और मध्य प्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 1968।2,3 ये कानून बलपूर्वक, धोखाधड़ी से या उकसाकर धर्म परिवर्तन करने पर प्रतिबंध लगाते हैं। इन कानूनों की संवैधानिक वैधता को निम्नलिखित आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी: (i) ये कानून धर्म के प्रचार के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं, और (ii) कानून धर्म को रेगुलेट करते हैं (जोकि संघीय सूची का विषय है), सार्वजनिक व्यवस्था को नहीं (जोकि राज्य सूची का विषय है)।

सर्वोच्च न्यायालय ने (1977) में कहा था कि धर्म के प्रचार के अधिकार में किसी अन्य व्यक्ति के धर्म को परिवर्तित करने का अधिकार शामिल नहीं है।1  इसमें अपने धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या करके उसका प्रचार करना शामिल है। अदालत ने यह भी कहा था कि ये कानून सार्वजनिक व्यवस्था को रेगुलेट करते हैं, धर्म को नहीं। ये कानून जबरन धर्म परिवर्तन पर रोक लगाकर सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हैं।1 

अध्यादेश के तहत नोटिस देने की आवश्यकता 

व्यक्ति के धर्म परिवर्तन के सार्वजनिक नोटिस की आवश्यकता से निजता के अधिकार का हनन हो सकता है

अध्यादेश के अनुसार, किसी व्यक्ति के धर्म परिवर्तन के इरादे की सूचना डीएम और तहसीलदार के दफ्तरों के नोटिस बोर्ड्स पर दी जाती है। यह नोटिस सार्वजनिक आपत्तियों के लिए धर्म परिवर्तन की रस्म के पहले और बाद में, दोनों के लिए 30 दिनों तक खुली होती है। स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन के सार्वजनिक नोटिस की आवश्कता व्यक्ति के निजता के अधिकार का हनन हो सकता है (अध्यादेश के तहत निर्दिष्ट प्रक्रिया के बारे में विस्तार से जानने के लिए अनुलग्नक के रेखाचित्र 1 को देखें)।

व्यक्ति के निजता के अधिकार को मान्यता देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय (2017) ने कहा था कि व्यक्तिगत चयन, जो जीवन जीने के तरीके को प्रभावित करता है, निजता का अंतरंग हिस्सा है। इसमें व्यक्ति की आस्था का चयन शामिल है। निजता की अनिवार्य प्रकृति की समीक्षा करते हुए अदालत ने कहा था कि धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार में व्यक्ति को धर्म को चुनने और उसे सार्वजनिक तौर से व्यक्त करने या न करने की स्वतंत्रता शामिल है।[10]  विशेष विवाह एक्ट, 1954 में सार्वजनिक नोटिस की ऐसी ही आवश्यकता दी गई है। शादी के बाद पति के साथ रहने के महिला के फैसले से संबंधित एक मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उस एक्ट में सार्वजनिक नोटिस पर संज्ञान लिया था।[11] यह देखते हुए कि विवाह एक व्यक्तिगत मामला है, अदालत ने इस आवश्यकता को स्वैच्छिक बताया था, अनिवार्य नहीं।

हालांकि निजता का अधिकार कानून द्वारा सीमित किया जा सकता है, अगर तीन शर्तें पूरी होती हों: (i) वैध सार्वजनिक उद्देश्य, (ii) उस उद्देश्य के साथ, कानून का तर्कसंगत संबंध, और (iii) निजता का उल्लंघन करना जरूरी होना चाहिए और उस उद्देश्य के अनुपात में।10 धर्म परिवर्तन के लिए सार्वजनिक नोटिस की आवश्यकता दूसरी और तीसरी शर्त पर खरी नहीं उतरेगी। अध्यादेश सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए धर्म परिवर्तन को रेगुलेट करने का प्रयास करता है। हालांकि किसी व्यक्ति के धर्म परिवर्तन की सार्वजनिक घोषणा करने से सार्वजनिक व्यवस्था बनी रहने की बजाय बिगड़ सकती है, क्योंकि ऐसी घोषणा से सांप्रदायिक झड़पें हो सकती हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता एक्ट, 2006 की समीक्षा करते समय ऐसी ही टिप्पणी की थी। इस कानून के तहत किसी के धर्म परिवर्तन करने पर सार्वजनिक नोटिस देना जरूरी है।[12] इसके बाद 2006 का एक्ट निरस्त हो गया और उसकी जगह हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता एक्ट, 2019 लाया गया और इस नए एक्ट में धर्म परिवर्तन के लिए सार्वजनिक नोटिस की आवश्यकता नहीं है।[13]

जहां तक आनुपातिकता का सवाल है, इस लिहाज से यह जरूरी है कि सार्वजनिक व्यवस्था को बहाल रखने (जोकि एक्ट का उद्देश्य है) के उद्देश्य को हासिल करने के लिए निजता के अधिकार में कम से कम दखल दी जाए, और धर्म परिवर्तन का सार्वजनिक नोटिस इस मानदंड पर खरा नहीं उतरता (यानी यह निजता के अधिकार में बहुत दखल दे सकता है)। कर्नाटक और हरियाणा को छोड़कर सभी अन्य राज्यों, जोकि सार्वजनिक व्यवस्था को बहाल रखने के लिए धर्म परिवर्तनों को रेगुलेट करते हैं, में इन धर्म परिवर्तनों की सार्वजनिक घोषणा की आवश्यकता नहीं है। इन राज्यों के कानूनों में व्यक्तियों को डीएम को एडवांस नोटिस भेजना होता है, जिसके बाद डीएम द्वारा धर्म परिवर्तन के कारण, उसके इरादे और उद्देश्य की जांच की जाती है। 

नियोक्ताओं और शैक्षणिक संस्थानों को सूचना देने का तर्क अस्पष्ट है

जब कोई व्यक्ति अपने धर्म को परिवर्तित करने की प्रक्रिया को पूरा कर लेता है तो डीएम द्वारा संबंधित अधिकारियों को इस धर्म परिवर्तन की सूचना दी जाती है। संबंधित अधिकारियों में व्यक्ति का नियोक्ता, राजस्व विभाग के अधिकारी और शिक्षण संस्थानों के प्रधानाचार्य शामिल होते हैं। यह अस्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के धर्म परिवर्तन की सूचना नियोक्ता या शिक्षण संस्थान के प्रमुख को देनी क्यों जरूरी है।

एकदम पहले के धर्म में परिवर्तन को छूट देने से समानता के अधिकार का हनन हो सकता है 

अध्यादेश जबरन धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाता है। हालांकि यह उन धर्म परिवर्तनों की छूट देता है, जहां व्यक्ति अपने एकदम पहले के धर्म में धर्मांतरण कर रहा हो। इस प्रावधान से समानता के अधिकार का हनन हो सकता है। समानता के अधिकार के तहत कानून लोगों के समूहों के बीच तभी अंतर कर सकता है, जब उस वर्गीकरण का आधार उचित हो।[14],[15] जबरन धर्म परिवर्तन से लोगों की रक्षा करने के लिए अध्यादेश उन लोगों एक विशेष श्रेणी बनाता है जोकि अपने एकदम पहले के धर्म में धर्मांतरण कर रहे हैं और उन्हें अध्यादेश के दायरे से छूट देता है। प्रश्न यह है कि क्या सार्वजनिक व्यवस्था को बहाल करने के उद्देश्य को हासिल करने के लिए ऐसा वर्गीकरण उचित है।  

हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता एक्ट, 2006 के तहत जो लोग अपने मूल धर्म में दोबारा धर्मांतरण करते हैं, उन्हें इस धर्म परिवर्तन की सार्वजनिक सूचना देने से छूट है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भेदभावकारी और समानता के अधिकार का हनन बताकर, इसे खारिज कर दिया था।12  

पर्याप्त सुरक्षात्मक उपाय के अभाव में उकसाने वाले व्यक्ति पर बर्डन ऑफ प्रूफ

अगर धर्म परिवर्तन के खिलाफ आपत्ति या शिकायत दर्ज कराई जाती है तो धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति (कनवर्टर) और उसके लिए उकसाने वाले व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उन्होंने उस व्यक्ति को अपना धर्म बदलने के लिए मजबूर नहीं किया है, सूचनाओं की गलतबयानी नहीं की है या लालच नहीं दिया है। आम तौर पर आपराधिक मामलों में प्रॉसीक्यूशन को सभी उचित संदेहों से परे आरोपी व्यक्ति के अपराध को साबित करना होता है। अध्यादेश बर्डन ऑफ प्रूफ को उलट देता है। आरोपी पर बर्डन ऑफ प्रूफ डालकर, और वह भी सुरक्षात्मक उपायों के अभाव में, अध्यादेश अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है। अदालतों ने अनुच्छेद 21 की व्याख्या इस प्रकार की है कि कानून और प्रक्रियाओं को निष्पक्ष और उचित होना चाहिए। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि बर्डन ऑफ प्रूफ को उलटने वाला कोई कानून तभी वैध होगा, जब वह निम्नलिखित शर्तों को पूरा करता हो: (i) प्रॉसीक्यूशन अपराध को सिद्ध करने के लिए आधारभूत तथ्य देता है, (ii) आरोपी को नकारात्मक तथ्य साबित नहीं करने होते, (iii) आरोपी को विशेष तथ्यों की जानकारी है, और (iv) खुद को निर्दोष साबित करने का भार आरोपी के लिए कठिनाई पैदा न करेगा।[16],[17],[18] अध्यादेश ऐसे किसी सुरक्षात्मक उपाय को निर्दिष्ट नहीं करता।

नारकोटिक ड्रग्स और साइकोट्रॉपिक पदार्थ एक्ट, 1985 (एनडीपीएस) और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण एक्ट, 2012 जैसे कई कानून बर्डन ऑफ प्रूफ को उलटते हैं लेकिन वे कुछ सुरक्षात्मक उपाय भी प्रदान करते हैं।[19],[20]  उदाहरण के लिए एनडीपीएस एक्ट के तहत नारकोटिक पदार्थ मिलना, इसे प्रॉसीक्यूशन को पहले साबित करना होता है, और उसके बाद आरोपी को इस बात को साबित करना होता है कि वह अपराधी नहीं है (यानी बर्डन ऑफ प्रूफ आरोपी पर आ जाता है)।  

अध्यादेश धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति और कुछ विशिष्ट लोगों को गैरकानूनी धर्म परिवर्तन की शिकायत करने की अनुमति देता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं: (i) धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्तियों से रक्त, विवाह या एडॉप्शन के जरिए जुड़े लोगों द्वारा, और (ii) धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति से जुड़े लोग (या सहकर्मी)। अध्यादेश जुड़े लोग (संबंधित लोग) को स्पष्ट नहीं करता, जिससे इस संबंध में स्पष्टता की कमी होती है कि कौन इन धर्म परिवर्तनों की शिकायत कर सकता है। हम यहां इस प्रकार स्पष्ट कर रहे हैं।

य नाम का एक व्यक्ति धर्म क से धर्म ख में धर्मांतरण करना चाहता है। तीन व्यक्ति मौजूद हैं- रल और व जिनमें र, य नाम के व्यक्ति के कॉलेज का दोस्त है, ल उसी गांव में रहता है जिसमें य रहता है। व, दो साल पहले य का पड़ोसी था। परिभाषा के अभाव में तीनों व्यक्ति य से संबंधित लग सकते हैं। प्रश्न यह भी उठता है कि अध्यादेश किन सबको गैरकानूनी धर्म परिवर्तन की शिकायत करने की अनुमति देना चाहता है।

उल्लेखनीय है उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा में धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति से रक्त, विवाह, एडॉप्शन या कस्टोडियनशिप के जरिए जुड़े लोगों को ही शिकायत करने की अनुमति है।5,7,8,[21]  

अध्यादेश उन लोगों के लिए अधिक दंड को निर्दिष्ट करता है जो निम्नलिखित का धर्म परिवर्तन या उसका प्रयास करते हैं: (i) नाबालिग, (ii) मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति, (iii) महिला, या (iv) अनुसूचित जातियों (एससी) या अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लोग। यह प्रावधान अन्य राज्यों में जबरन धर्म परिवर्तनों पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों के समान ही है (तालिका 2), केवल अरुणाचल प्रदेश अपवाद है। यह कहा जा सकता है कि नाबालिग और मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों के लिए उच्च स्तर के संरक्षण की जरूरत होती है, चूंकि उनकी ओर से सारे कानूनी फैसले उनके गार्जियन द्वारा लिए जाते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या महिलाओं और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों, जोकि अपने फैसले खुद लेने में सक्षम होते हैं, को भी उच्च स्तर के संरक्षण की जरूरत है। 

अध्यादेश में अपील की व्यवस्था नहीं

धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को डीएम को डेक्लरेशन भेजना होता है। डीएम द्वारा जांच की जाती है और यह तय किया जाता है कि धर्म परिवर्तन मान्य और वैध है। लेकिन डीए के आदेश से पीड़ित पक्षों के लिए अध्यादेश के तहत अपील की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके अतिरिक्त डीएम के लिए धर्म परिवर्तन के संबंध में फैसला लेने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है। दूसरे राज्यों में भी, जहां धर्म परिवर्तनों को रेगुलेट किया गया है (हरियाणा के अलावा), अपील की किसी व्यवस्था का प्रावधान नहीं किया गया है।  

धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति को जुर्माने और कैद के साथ क्षतिपूर्ति देनी होगी

अध्यादेश के तहत जबरन धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति को जुर्माने और कैद के साथ, पीड़ित को क्षतिपूर्ति देनी होगी। सीआरपीसी के अनुसार, अदालत चार विशिष्ट मामलों में क्षतिपूर्ति चुकाने का आदेश दे सकती है: (i) कानूनी खर्च को कवर करने के लिए, (ii) नुकसान होने या चोट लगने पर, (iii) मृत्यु होने पर, और (iv) चोरी या ठगी के कारण संपत्ति का नुकसान होने पर।[22]  यह स्पष्ट नहीं है कि जबरन धर्म परिवर्तन के मामले में कौन सा मूर्त (या ठोस) नुकसान होगा। क्षतिपूर्ति देने के ऐसे ही प्रावधान हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में मौजूद हैं। ऐसे कानूनों की विस्तृत अंतरराज्यीय तुलना के लिए अनुलग्नक की तालिका 2 को देखें। 

धर्म परिवर्तन के नोटिस अलग-अलग डीएम को जा सकते हैं

अध्यादेश के तहत धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया के अनुसार, धर्म परिवर्तन करने और धर्म परिवर्तन कराने वाले, दोनों व्यक्तियों को डीएम को डेक्लरेशन भेजना होता है (देखें रेखाचित्र 1)। धर्म परिवर्तन करने वाला व्यक्ति उस जिले में डीएम को डेक्लरेशन भेज सकता है जिसमें वह रहता है या जहां उसका जन्म हुआ है। धर्म परिवर्तन कराने वाला व्यक्ति उस जिले के डीएम को डेक्लरेशन भेजेगा जहां से वह है। इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि जहां से वह है का क्या मतलब है। अगर इसका मतलब जन्म स्थान है तो कर्नाटक के बाहर जन्म लेने वाला व्यक्ति कर्नाटक में धर्म परिवर्तन नहीं करा सकता। इसके अतिरिक्त अगर धर्म परिवर्तन करने और धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति अलग-अलग जिलों के हैं तो इच्छित धर्म परिवर्तन के नोटिस राज्य के अलग-अलग डीएम को जा सकते हैं।  

अनुलग्नक

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तालिका 2 : धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों की तुलना

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* चिराग सिंघवी बनाम राजस्थान राज्य मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य में धर्म परिवर्तनों को रेगुलेट करने के लिए दिशानिर्देश दिए थे। स्रोतराज्य कॉलम में एंडनोट्स को देखेंपीआरएस।

 

[1]Rev. Stainislaus vs State Of Madhya Pradesh & Others, 1977 AIR 908, Supreme Court of India, January 17, 1977. 

[9]“30th Report: Enacting a suitable law for protection of right to freedom of religion”, Law Commission of Karnataka, September 21, 2013. 

[10]Justice K.S. Puttaswamy (Retd) vs. Union of India, W.P. (Civil) No 494 of 2012, Supreme Court of India, August 24, 2017.

[11]Safiya Sultana v. State of Uttar Pradesh, W.P. (Civil) No 16907 of 2020, High Court of Allahabad, January 12, 2021.

[12]Evangelical Fellowship v. State of Himachal Pradesh, W.P. (Civil) No. 438 of 2011, High Court of Himachal Pradesh, August 30, 2012.

[14]Gauri Shanker and Others vs. Union of India and Others, W.P. (Civil) No. 1089 of 1987, Supreme Court of India, September 8, 1994.

[15]State of Karnataka and Others vs. B.Suvarna Malini and Others, Appeal (Civil) 27 of 2001, Supreme Court of India, January 4, 2001.

[16]Shaikh Zahid Mukhtar v. State of Maharashtra, W.P. (Civil) No. 5731 of 2015, May 6, 2016.

[17].  Noor Aga v. State of Punjab & Anr., Criminal Appeal No. 1034 of 2008, Supreme Court of India, July, 2008. 

[18]. Hanif Khan and Annu Khan v. State of Madhya Pradesh, Criminal Appeal No. 1206 of 2013, August 20, 2019.

[22]Section 357, Code of Criminal Procedure, 1973.

[23]. Chapter VIII, Eighth Report of VII State Law Commission, on Freedom of Religion.

[24]. Gujarat Freedom of Religion (Amendment) Bill, 2021.

[25]. Arunachal Pradesh Freedom of Religion Act, 1978.

[26]. Chirag Singhvi v. State of Rajasthan, Habeas Corpus No. 149 / 2017, High Court of Rajasthan, December 15, 2017.

 

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