स्टेट लेजिसलेटिव ब्रीफ |
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राजस्थान |
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राजस्थान संगठित अपराध का नियंत्रण बिल, 2023 |
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मुख्य विशेषताएं
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भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं
संदर्भ
संगठित अपराध ऐसी निरंतर गैरकानूनी गतिविधि को कहा जाता है, जिसे कोई आपराधिक संगठन हिंसा या अन्य अवैध साधनों के माध्यम से करता है।[1] इसका उद्देश्य वित्तीय लाभ प्राप्त करना या उग्रवाद को बढ़ावा देना हो सकता है। भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) कई व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप से किए गए अपराधों को दंडित करती है। आईपीसी की धारा 37 ऐसे व्यक्ति को दंडित करती है जो जानबूझकर किसी अपराध को करने में मदद करता है, भले अकेले या उस अपराध को करने वाले दूसरे व्यक्ति के साथ।[2] इसके अलावा आईपीसी के तहत, एक आपराधिक कृत्य में शामिल कई व्यक्ति अपनी भागीदारी के परिणामस्वरूप विभिन्न अपराधों के दोषी हो सकते हैं।[3]
1999 में महाराष्ट्र ने राज्य में संगठित अपराध से निपटने के लिए महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण एक्ट, 1999 (मकोका) लागू किया।[4] जनवरी 2002 में केंद्र सरकार ने इस एक्ट को दिल्ली में लागू किया।[5] गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी ऐसे ही कानून हैं जो अपने राज्य में संगठित अपराध को दंडित करते हैं।[6],[7] हरियाणा ने हाल ही में हरियाणा संगठित अपराध नियंत्रण बिल, 2023 पारित किया है।[8] इन कानूनों को निम्नलिखित आधार पर चुनौती दी गई है: (i) जमानत देने की शर्तें, (ii) पुलिस की हिरासत में कबूलनामे को मान्यता, और (iii) संचार के इंटरसेप्शन की वैधता।[9],[10],1 न्यायालयों ने एक अपवाद को छोड़कर, जमानत की शर्तों, कबूलनामे और इंटरसेप्शन से संबंधित प्रावधानों को बरकरार रखा है। 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत से इनकार करने से संबंधित मकोका के एक प्रावधान को रद्द कर दिया था।1,9,10
राजस्थान संगठित अपराध का नियंत्रण बिल, 2023 को विधानसभा में 15 मार्च, 2023 को पेश किया गया था। बिल मकोका के समान है।
मुख्य विशेषताएं
प्रमुख मुद्दे और विश्लेषण
बिल एक विशेष कानून के माध्यम से राज्य में संगठित अपराध पर अंकुश लगाने का प्रयास करता है। इसमें आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), भारतीय साक्ष्य एक्ट, 1872 और भारतीय टेलीग्राफ एक्ट, 1885 जैसे अन्य कानूनों के प्रावधानों का लंघन किया गया है। इनसे आरोपी के लिए कुछ सुरक्षा उपायों को हटाया गया है। बिल के तहत, किसी आरोपी को तब तक जमानत नहीं दी जाएगी जब तक कि उसकी बेगुनाही साबित करने के उचित आधार न हों। सीआरपीसी कुछ शर्तों के तहत जमानत से इनकार करने की अनुमति देती है। इनमें ऐसे उदाहरण शामिल हैं, जब यह मानने के लिए उचित आधार हों कि आरोपी ऐसे अपराध का दोषी है, जिसमें मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा है, या अगर उसे पहले भी ऐसे ही अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है (या सात साल की कैद से दंडनीय)। इस प्रकार बिल जमानत देते समय बर्डन ऑफ प्रूफ को उलटकर रख देता है। 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने मकोका में ऐसे ही प्रावधान की समीक्षा की थी। उसने फैसला सुनाया था कि इस प्रावधान को बरी करने और दोषसिद्धि के फैसले को संतुलित करने के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए, और मुकदमा शुरू होने से पहले जमानत की अनुमति दी जानी चाहिए।
भारतीय साक्ष्य एक्ट, 1972 पुलिस अधिकारी के सामने इकबालिया बयान को सबूत मानने की अनुमति नहीं देता। बिल इकबालिया बयान को सबूत मानने की अनुमति देता है, अगर वह पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारियों को दिए गए हों। सर्वोच्च न्यायालय (2013) ने फैसला दिया था कि मकोका के तहत ऐसा प्रावधान, साक्ष्य एक्ट, 1872 का अपवाद है।10 नतीजे के तौर पर इसकी व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए और एक सीमित उद्देश्य के लिए, यानी आरोपी और या सह अभियुक्त (उकसाने वाले या षडयंत्र करने वाले) के लिए। संचार को इंटरसेप्ट करने की शर्तें भारतीय टेलीग्राफ एक्ट, 1885 की तुलना में कम कठोर हैं।
ऐसे सुरक्षा उपायों को हटाने से किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है क्योंकि पुलिस हिरासत में दिए गए इकबालिया बयान दबाव या बल प्रयोग में प्राप्त किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, बिल की कड़ी जमानत शर्तों के कारण अदालत को जमानत देने से पहले यह निर्धारित करने की आवश्यकता हो सकती है कि आवेदक ने अपराध नहीं किया है। संगठित अपराध से निपटने के लिए विशेष कानूनों की आवश्यकता को पहचानते हुए, अदालतों ने कर्नाटक और महाराष्ट्र में संगठित अपराध पर समान कानूनों को बरकरार रखा है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय यह भी कहा है कि पुलिस ऐसे कानूनों को गलत तरीके से लागू कर सकती है।[11]
किसी कानून को गलत तरीके से लागू करने से कारावास हो सकती है और वास्तव में किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है।11 उदाहरण के लिए 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि बिक्री कर, 1955 और आवश्यक वस्तु (विशेष प्रावधान) एक्ट 1981 के तहत कथित अपराधों के लिए आरोपी के खिलाफ गलत तरीके से मकोका के तहत कार्रवाई की गई।11 न्यायालय ने कहा था कि मकोका का गलत एप्लिकेशन, एक नागरिक को जांच के प्रारंभिक चरण में उसकी स्वतंत्रता से वंचित कर देगा जिससे जमानत हासिल करना मुश्किल हो जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने मकोका के तहत जमानत की ऐसी ही शर्त को रद्द किया था
बिल में प्रावधान है कि यदि इस बिल के तहत कोई अपराध किया जाता है, जबकि आरोपी किसी अन्य कानून के तहत जमानत पर है, तो जमानत देने से इनकार किया जा सकता है। मकोका की जांच करते समय सर्वोच्च न्यायालय (2008) ने ऐसे ही एक प्रावधान को रद्द किया था।[12] अदालत ने कहा था कि एक आरोपी को जमानत मांगने का अधिकार है, जिससे इस आधार पर इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि उसे किसी दूसरे असंबंधित कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है। उसने तर्क दिया था कि जमानत से इनकार करने के लिए दो असंबंधित अपराधों को एक ही वर्ग में वर्गीकृत करना मनमाना और भेदभावपूर्ण था, जो समानता और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।12
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि कोई व्यक्ति राजस्थान के बिल के तहत जुए और जबरन वसूली के मामले में आरोपी है। यह अपराध तब किया गया, जब आरोपी तेज गति और लापरवाही से गाड़ी चलाने के अपराध में जमानत पर बाहर था। बिल के अनुसार, जुए के कथित अपराध के लिए आरोपी को जमानत नहीं दी जाएगी क्योंकि वह पहले से ही यातायात उल्लंघन के लिए जमानत पर था।
इंटरसेप्शन की प्रक्रिया टेलीग्राफ एक्ट के साथ असंगत
बिल संगठित अपराध को रोकने के लिए संचार को इंटरसेप्ट करने की एक प्रक्रिया प्रदान करता है। इंटरसेप्शन की प्रक्रियाएं भारतीय टेलीग्राफ एक्ट, 1885 और इसके तहत बनाए गए नियमों के तहत भी निर्दिष्ट हैं।[13],[14] बिल में कुछ प्रक्रियाएं भारतीय टेलीग्राफ नियम, 1951 की प्रक्रिया से असंगत हैं।
संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत, संचार संघ का विषय है।[15] मकोका में एक समान प्रावधान की जांच करते समय सर्वोच्च न्यायालय (2008) ने माना था कि राज्यों के पास इस तरह के इंटरसेप्शन के लिए विधायी क्षमता है।12 उसने कहा था कि मकोका का प्राथमिक उद्देश्य संगठित अपराध पर अंकुश लगाना था, जो संयोग से संघ के विषय का अतिक्रमण करता था।
तालिका 1: भारतीय टेलीग्राफ एक्ट, 1885 के तहत नियमों और राजस्थान बिल के बीच विसंगतियां
प्रावधान |
भारतीय टेलीग्राफ नियम, 1951 |
राजस्थान संगठित अपराध का नियंत्रण बिल, 2023 |
इमरजेंसी इंटरसेप्शन |
जब क्षेत्र के सुदूर होने या परिचालनगत कारणों से इंटरसेप्शन का निर्देश पहले हासिल करना संभव नहीं है |
जब: (i) किसी व्यक्ति को मौत, शारीरिक चोट का तत्काल खतरा हो, (ii) षडयंत्र का कृत्य, जो राज्य के हित या सुरक्षा को खतरे में डालता है, या (iii) षडयंत्र की प्रकृति संगठित अपराध जैसी है जिसे ड्यू डेलिजेंस से पहले इंटरसेप्शन की जरूरत है |
इमरजेंसी इंटरसेप्शन को समाप्त करने की समय सीमा |
सात दिन के अंदर मंजूरी जरूरी |
इंटरसेप्शन के 48 घंटे के भीतर आवेदन करना होगा। आवेदन अस्वीकृत होने पर समय सीमा समाप्त। स्वतः समाप्ति के लिए कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं है |
इंटरसेप्शन की अवधि |
एक्सटेंशन सहित अधिकतम अवधि 180 दिन है |
इंटरसेप्शन की 60 दिन की प्रारंभिक अवधि को अनिश्चित काल तक बढ़ाया जा सकता है, एक बार में 60 दिन तक |
समीक्षा समिति (जो इंटरसेप्शन की स्वीकृति की जांच करती है) |
सदस्य के रूप में गृह मंत्रालय का कोई भी सचिव शामिल नहीं होना चाहिए |
समीक्षा समिति में गृह विभाग का एक सचिव सदस्य है। इंटरसेप्शन को गृह विभाग के एक सचिव द्वारा भी अधिकृत किया गया है |
स्रोत: भारतीय टेलीग्राफ नियम, 1951; राजस्थान संगठित अपराध का नियंत्रण बिल, 2023; पीआरएस।
समीक्षा समिति की संरचना उचित नहीं हो सकती
इंटरसेप्शन को शुरुआत में गृह विभाग के सचिव द्वारा अधिकृत किया जाता है। फिर एक समीक्षा समिति उसकी समीक्षा करती है। इस समिति के सदस्य के रूप में गृह विभाग का एक सचिव होता है। टेलीग्राफ नियम, 1951 के अनुसार, गठित समीक्षा समिति में गृह विभाग के सचिव को शामिल नहीं किया जाना चाहिए।14 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्यों, दोनों के लिए इस आवश्यकता को निर्दिष्ट किया था।[16]
आर्थिक दंड अपराध के अनुपात में नहीं हो सकता
बिल के तहत, यदि किसी संगठित अपराध के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो सजा मृत्यु या आजीवन कारावास और न्यूनतम एक लाख रुपए का जुर्माना होगा। किसी अन्य मामले में, जिसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती है, जुर्माना कम से कम पांच साल की कैद या आजीवन कारावास और न्यूनतम पांच लाख रुपए का जुर्माना होगा। जबकि अधिक गंभीर अपराधों के लिए कारावास की सजा अधिक है, न्यूनतम मौद्रिक दंड कम है।
अन्य सभी मामलों में सुनवाई में देरी करना उचित नहीं हो सकता
बिल के अनुसार, एक्ट के तहत किसी भी अपराध की सुनवाई को किसी अन्य अदालत (विशेष अदालत के अलावा) में आरोपी के खिलाफ किसी दूसरे मामले की सुनवाई की तुलना में प्राथमिकता दी जाएगी। बिल के तहत मामले का फैसला होने तक अन्य मामलों की सुनवाई रोक दी जाएगी। यह स्पष्ट नहीं है कि सभी मामलों में सुनवाई को क्यों स्थगित किया जाना चाहिए जिसमें वे मामले भी शामिल हैं जो बिल के तहत चलाए जा रहे अपराध से असंबंधित हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, ऐसी स्थिति हो सकती है जब मुकदमा लगभग पूरा हो चुका हो और कुछ ही दिनों में फैसला सुनाया जाने वाला हो। ऐसे मामले को भी बिल के तहत सुनवाई पूरी होने तक रोक दिया जाएगा।
[1]. State of Maharashtra vs Bharat Shanti Lal Shah & Ors., Supreme Court, Criminal Appeal, 2008.
[2]. Section 37, The Indian Penal Code, 1860.
[3]. Section 38, The Indian Penal Code, 1860.
[5]. GSR 6(E), Extension of MCOCA to Delhi, Ministry of Home Affairs, January 2, 2002.
[9]. Ranjitsingh Brahmajeetsingh Sharma v State of Maharashtra, Appeal (Crl) 523 of 2005, Supreme Court of India, April 7, 2005.
[10]. State of Maharashtra vs Kamal Ahmed Mohammed Vakil Ansari, Appeal (Crl) 445 of 2013, Supreme Court of India, March 14, 2013.
[11]. State of Maharashtra vs Lalit Somdatta Nagpal, Special Leave Petition (Crl) 3320-21 of 2005, Supreme Court of India, February 13, 2007
[12]. State of Maharashtra vs Bharat Shanti Lal Shah & Ors., Supreme Court of India, Criminal Appeal, 2008.
[14]. Rule 419A, The Indian Telegraph Rules, 1951.
[15]. Entry 31, List I, Seventh Schedule, The Constitution of India.
[16]. People’s Union for Civil Liberties (PUCL) vs Union of India, Supreme Court of India, December 18, 1996.
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