मंत्रालय: 
विधि एवं न्याय

बिल की मुख्‍य विशेषताएं

  • किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) एक्ट, 2015 के अनुसार, सिविल अदालत द्वारा एडॉप्शन के आदेश देने के बाद बच्चे का एडॉप्शन पूरा हो जाता है। बिल में प्रावधान है कि अदालत की जगह जिला मेजिस्ट्रेट (अतिरिक्त जिला मेजिस्ट्रेट सहित) एडॉप्शन के आदेश जारी करेंगे।
     

  • 2015 के एक्ट के अंतर्गत किशोरों द्वारा किए गए अपराधों को जघन्य अपराध, गंभीर अपराध और मामूली अपराध की श्रेणियों में बांटा जाता है। गंभीर अपराध में ऐसे अपराध शामिल हैं जिनके लिए तीन से सात वर्ष की कैद की सजा है। बिल में गंभीर अपराधों में ऐसे अपराधों को शामिल किया गया है जिनकी अधिकतम सजा सात वर्ष से अधिक की कैद है, और न्यूनतम सजा निर्दिष्ट नहीं है या सात वर्ष से कम की है।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

  • बच्चे को गोद लेना एक कानूनी प्रक्रिया है जिसमें बच्चे और दत्तक (एडॉप्टिव) माता-पिता के बीच एक स्थायी कानूनी संबंध कायम होता है। ऐसे में यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या सिविल अदालत की जगह जिला मेजिस्ट्रेट में एडॉप्शन के आदेश जारी करने की शक्ति निहित करना उपयुक्त है।
     

  • जुलाई 2018 तक विभिन्न अदालतों में एडॉप्शन के 629 मामले लंबित थे। एडॉप्शन की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए बिल जिला मेजिस्ट्रेट को इस संबंध में आदेश देने की शक्ति हस्तांतरित करता है। इस संबंध में यह विषय विचार योग्य है कि क्या लंबित मामलों की बड़ी संख्या को देखते हुए जिला मेजिस्ट्रेट को यह भार सौंपना सही ठहराया जा सकता है।
     

  • मानव संसाधन विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि कई राज्यों में एक्ट के अंतर्गत वैधानिक निकाय मौजूद नहीं हैं। 2019 में 35 में से सिर्फ 17 राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों के सभी जिलों में एक्ट के अंतर्गत अपेक्षित बुनियादी संरचनाएं और निकाय मौजूद थे।   

  • 2017 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा) ने समय रहते उन बच्चों की सिफारिश नहीं की जो एडॉप्शन के लिए कानूनी रूप से स्वतंत्र थे। अदालत ने सुझाव दिया था कि अथॉरिटी की स्टीयरिंग कमिटी, कारा के कामकाज का निरीक्षण और जांच कर सकती है।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ 

18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को किशोर या जुवेनाइल कहा जाता है। किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) एक्ट, 2015 में कानून से संघर्षरत बच्चों और देखरेख तथा संरक्षण की जरूरत वाले बच्चों से संबंधित प्रावधान हैं।[1] भारत संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कन्वेंशन, हेग कन्वेंशन ऑन प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन एंड कोऑपरेशन इन रिस्पेक्ट ऑफ इंटर-कंट्री एप्रोच (1993) और दूसरे कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर कर चुका है और एक्ट उसकी इस प्रतिबद्धता को पूरा करता है।[2] चूंकि भारत इन समझौतों पर हस्ताक्षर कर चुका है, इसलिए उसके लिए यह जरूरी है कि किशोर न्याय, देखभाल और संरक्षण तथा एडॉप्शन से संबंधित बाल अधिकारों को सुनिश्चित करे। 

किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) संशोधन बिल, 2021 को 15 मार्च, 2021 को लोकसभा में पेश किया गया, और वर्तमान में यह राज्यसभा में लंबित है।3  बिल किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) एक्ट, 2015 में संशोधन करता है।[3] 2021 के बिल के उद्देश्यों और कारणों के कथन में कहा गया है कि अदालतों में एडॉप्शन के मामलों में काफी देरी देखी गई है। इसके अतिरिक्त उसमें कहा गया है कि एडॉप्शन के मामलों की प्रकृति गैर विरोधात्मक (नॉन-एडवर्सियल) होती है (यानी जब दो पक्ष एक दूसरे के खिलाफ नहीं होते) और अच्छी तरह से निर्धारित प्रक्रिया के जरिए इससे निपटा जा सकता है।3  ऐसा ही एक बिल अगस्त 2018 में लोकसभा में पेश किया गया था जिसमें जिला मेजिस्ट्रेट को एडॉप्शन के आदेश जारी करने का अधिकार दिया गया था।[4] लेकिन 16वीं लोकसभा के भंग होने के साथ वह बिल लैप्स हो गया था। 

2015 के एक्ट के अंतर्गत किशोर अपराधों को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा गया था: (i) जघन्य अपराध (जिनके लिए आईपीसी या किसी अन्य कानून के अंतर्गत सात वर्ष की न्यूनतम सजा है), (ii) गंभीर अपराध (तीन से सात वर्ष की कैद), और (iii) मामूली अपराध (तीन वर्ष से कम की कैद)।1  2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि एक्ट में उन अपराधों से जुड़े प्रावधान शामिल नहीं हैं जिनमें अधिकतम सजा सात वर्ष से अधिक की कैद है, लेकिन कोई न्यूनतम सजा नहीं है, या न्यूनतम सजा सात वर्ष से कम की कैद है।[5]  अदालत ने आदेश दिया कि इन अपराधों को भी गंभीर अपराधों की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए।5  बिल इस आदेश को प्रभावी बनाने का प्रयास भी करता है। 

मुख्य विशेषताएं 

  • एडॉप्शन: एक्ट के अंतर्गत संभावित दत्तक माता-पिता द्वारा बच्चे को स्वीकार करने के बाद एडॉप्शन एजेंसी सिविल अदालत में एडॉप्शन के आदेश प्राप्त करने के लिए आवेदन करती है। अदालत के आदेश से यह स्थापित होता है कि बच्चा एडॉप्टिव माता-पिता का है। बिल में प्रावधान किया गया है कि अदालत के स्थान पर, जिला मेजिस्ट्रेट (अतिरिक्त जिला मेजिस्ट्रेट सहित) एडॉप्शन के आदेश जारी करेंगे।
     

  • अपील: बिल में प्रावधान है कि जिला मेजिस्ट्रेट के एडॉप्शन के आदेश से पीड़ित व्यक्ति आदेश दिए जाने के 30 दिनों के भीतर डिविजनल कमीशनर के सामने अपील कर सकता है। अपील करने की तारीख से चार हफ्ते के अंदर उसे निपटाया जाना चाहिए।
     

  • एक्ट में प्रावधान है कि अगर बाल कल्याण कमिटी यह निष्कर्ष देती है कि कोई बच्चा, देखरेख और संरक्षण की जरूरत वाला बच्चा नहीं है, तो कमिटी के इस आदेश के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती है। बिल इस प्रावधान को हटाता है।
     

  • गंभीर अपराध: एक्ट में प्रावधान किया गया है कि किशोर न्याय बोर्ड उस बच्चे की छानबीन करेगा जिस पर गंभीर अपराध करने का आरोप है। गंभीर अपराध वे होते हैं जिनके लिए तीन से सात वर्ष तक की कैद की सजा दी जाती है। बिल में यह जोड़ा गया है कि गंभीर अपराधों में ऐसे अपराध भी शामिल होंगे जिनके लिए सात वर्ष से अधिक की अधिकतम सजा है, और न्यूनतम सजा निर्दिष्ट नहीं की गई है या सात वर्ष से कम की सजा है।
     

  • निर्दिष्ट अदालत: एक्ट में प्रावधान है कि कानून के अंतर्गत बच्चों के खिलाफ अपराधों, जिनके लिए सात वर्ष से अधिक की कैद की सजा है, का मुकदमा बाल अदालत (सत्र अदालत के बराबर) में चलाया जाएगा। अन्य अपराधों (सात वर्ष से कम की कैद की सजा वाले) के लिए ज्यूडीशियल मेजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा चलाया जाएगा। बिल में प्रस्ताव है कि एक्ट के अंतर्गत सभी अपराधों के लिए बाल अदालत में मुकदमा चलाया जाएगा।
     

  • बच्चों के खिलाफ अपराधएक्ट में प्रावधान है कि जिस अपराध के लिए तीन से सात वर्ष की कैद की सजा है, वह संज्ञेय (जिसमें वॉरंट के बिना गिरफ्तारी की अनुमति होती है) और गैर जमानती होगा। बिल इसमें संशोधन करता है और प्रावधान करता है कि ऐसे अपराध गैर संज्ञेय और गैर जमानती होंगे।
     

  • बाल कल्याण कमिटी (सीडब्ल्यूसी): एक्ट में प्रावधान है कि देखरेख एवं संरक्षण की जरूरत वाले बच्चों के हित के लिए राज्य हर जिले में एक या एक से अधिक सीडब्ल्यूसी बनाएंगे। एक्ट सीडब्ल्यूसी के सदस्यों को नियुक्त करने के लिए कुछ मानदंड भी बनाता है, जैसे (i) वह व्यक्ति कम से कम सात वर्षों तक बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा या कल्याण के कार्यों से जुड़ा रहा हो, या (ii) वह व्यक्ति बाल मनोविज्ञान, मनोरोग, कानून या सामाजिक कार्य की डिग्री वाला प्रैक्टिसिंग प्रोफेशनल हो। बिल सीडब्ल्यूसी के सदस्यों की नियुक्ति के लिए अतिरिक्त मानदंडों को निर्दिष्ट करता है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं (i) उसका मानवाधिकार या बाल अधिकारों के उल्लंघन का कोई रिकॉर्ड नहीं होना चाहिए, या (ii) वह जिले के बाल देखभाल संस्थान में प्रबंधन का हिस्सा नहीं होना चाहिए।

भाग ख: प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

जिला मेजिस्ट्रेट को एडॉप्शन के आदेश जारी करने का अधिकार देना 

किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) एक्ट, 2015 कहता है कि सिविल अदालत के एडॉप्शन के आदेश के बाद बच्चे का एडॉप्शन पूरा हो जाता है।1 बिल इसमें संशोधन करता है कि अदालत की जगह जिला मेजिस्ट्रेट (अतिरिक्त जिला मेजिस्ट्रेट सहित) एडॉप्शन के आदेश जारी करेंगे।3 आदेश से पीड़ित व्यक्ति डिविजनल कमीशनर के सामने अपील दायर कर सकता है। इससे कई मुद्दे उठते हैं जिनका उल्लेख नीचे है।

एडॉप्शन के आदेश देने की शक्ति को अदालत से जिला मेजिस्ट्रेट को हस्तांतरित करना 

बिल के उद्देश्यों और कारणों के कथन (एसओआर) में कहा गया है कि अदालतों में एडॉप्शन के मामलों में काफी देरी देखी गई है।3 एडॉप्शन की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए बिल जिला मेजिस्ट्रेट को इस संबंध में आदेश देने की शक्ति हस्तांतरित करता है।3 अप्रैल 2015 और मार्च 2020 के बीच 19,000 बच्चों को एडॉप्ट किया गया, यानी हर महीने औसत 320 बच्चों का एडॉप्शन हुआ।[6]  जुलाई 2018 तक विभिन्न अदालतों में एडॉप्शन के 629 मामले लंबित हैं।4   प्रश्न यह है कि क्या इसे काफी देरी कहा जाए और इसके परिणामस्वरूप एडॉप्शन के आदेश जारी करने की शक्ति को अदालत से जिला मेजिस्ट्रेट को हस्तांतरित किया जाए। जिला मेजिस्ट्रेट्स को यह शक्ति देने पर भी देरी हो सकती है क्योंकि उन पर पहले ही कई जिम्मेदारियों का भार होता है, जैसे कानून एवं व्यवस्था को बहाल करना, भूमि और राजस्व प्रबंधन, आपदा प्रबंधन, सामान्य प्रशासन और अपने जिले में सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को लागू करना। जिला मेजिस्ट्रेट 23 विभागों की लगभग 75 कमिटियों का अध्यक्ष होता है।[7]  

एडॉप्शन के आदेशों में न्यायिक जांच की कमी

एक्ट के अंतर्गत बच्चे का एडॉप्शन तब पूरा होता है जब अदालत एडॉप्शन के आदेश जारी कर देती है। इसके साथ बच्चा दत्तक माता-पिता का कानूनी बच्चा बन जाता है और उसे वही अधिकार, विशेषाधिकार और जिम्मेदारियां मिलती हैं जो किसी बायोलॉजिकल बच्चे को मिलती हैं। बिल अदालत की इस शक्ति को जिला मेजिस्ट्रेट (अतिरिक्त जिला मेजिस्ट्रेट सहित) को हस्तांतरित करता है। प्रश्न यह है कि क्या न्यायिक निकाय की जगह किसी प्रशासनिक प्राधिकारी के लिए एडॉप्शन का आदेश जारी करना उचित है।    

बिल के एसओआर में कहा गया है कि एडॉप्शन के मामलों की प्रकृति गैर विरोधात्मक होती है और अच्छी तरह से निर्धारित प्रक्रिया के जरिए इससे निपटा जा सकता है। एडॉप्शन एक कानूनी प्रक्रिया है जिसमें बच्चे और दत्तक माता-पिता के बीच एक स्थायी कानूनी संबंध कायम होता है। इस पर फैसला लेते समय अदालत दस्तावेजों की समीक्षा करती है, सुनिश्चित करती है कि जरूरी प्रक्रियाओं का अनुपालन किया गया है और बच्चे और दत्तक माता-पिता की जांच करती है। इससे सुनिश्चित होता है कि बच्चे की इच्छाओं पर भी विचार किया गया है और एडॉप्शन उसके कल्याण के लिए है। इस पर बहस हो सकती है कि एडॉप्शन बच्चे के हित में है, इसके लिए क्या न्यायिक प्रशिक्षण और क्षमता होना जरूरी है।

इसके अतिरिक्त बिल में प्रावधान है कि एडॉप्शन के आदेश से पीड़ित व्यक्ति डिविजनल कमीशनर के सामने अपील कर सकता है। इस तरह बिल अपील के स्तर पर भी न्यायिक निरीक्षण का प्रावधान नहीं करता। जिला मेजिस्ट्रेट्स और डिविजनल कमीशनर्स प्रशासक के तौर पर प्रशिक्षित होते हैं और सरकारी कामकाज करते हैं। संभव है कि उनके पास एडॉप्शन के आदेश देने या उनसे संबंधित अपीलों की सुनवाई की क्षमता न हो। उन्हें ऐसे मुख्य न्यायिक कार्य सौंपने से कार्यकारिणी और न्यायपालिका की शक्तियों के पृथक्करण से जुड़े मुद्दे उठ सकते हैं।

उल्लेखीय है कि किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) एक्ट, 2000 (2015 का एक्ट इसकी जगह लाया गया था) के बाद से एडॉप्शन के आदेश देने की शक्ति अदालतों के पास है। युनाइटेड किंगडम, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका के कई राज्यों में अदालतें ही एडॉप्शन का आदेश जारी करती हैं।[8] 

तालिका 1 : एक्ट के अंतर्गत संस्थाएं

संस्थाएं

संस्थाओं वाले राज्यों/यूटी की संख्या

जिला बाल संरक्षण सोसायटी 

34

बाल कल्याण कमिटी

27

किशोर न्याय बोर्ड 

30

विशेष किशोर पुलिस यूनिट 

34

बाल कल्याण पुलिस अधिकारी 

32

किशोर न्याय फंड 

25

Sources: Quick Review of Status of Juvenile Justice System, National Legal Services Authority, January 2019; PRS.

एक्ट को लागू करने से जुड़े मुद्दे 

विभिन्न अदालतों और स्टैंडिंग कमिटीज़ ने 2015 के एक्ट को लागू करने से संबंधित कई समस्याओं का जिक्र किया और कुछ सुझाव दिए। एक्ट के कार्यान्वयन से जुड़ी मुख्य समस्याओं में निम्न शामिल हैं:

निकायों की उपलब्धता और क्षमता में कमी

2015 के एक्ट में हर जिले में एक या एक से अधिक किशोर न्याय बोर्ड (जेजेबी) और बाल कल्याण कमिटी (सीडब्ल्यूसी) का प्रावधान है।1 मानव संसाधन विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि 2000 के कानून के अंतर्गत गठित जेजेबी और सीडब्ल्यूसी सहित दूसरे वैधानिक निकाय कई राज्यों में नहीं थे।[9] अनेक निकाय कागजों पर मौजूद थे और काम नहीं कर रहे थे। इसके अतिरिक्त बड़ी जनसंख्या वाले जिलों में पर्याप्त सीडब्ल्यूसी नहीं थीं, जहां ज्यादा मामले होने की संभावना थी।

राष्ट्रीय विधि सेवा अथॉरिटी (2019) ने कहा था कि 35 में से सिर्फ 17 राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों में एक्ट के अंतर्गत अपेक्षित बुनियादी संरचनाएं और निकाय मौजूद थे (तालिका 1)।[10]  उदाहरण के लिए बिहार, असम और हरियाणा के किसी जिले में सीडब्ल्यूसी नहीं हैं।10 मानव संसाधन विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि सीडब्ल्यूसी और जेजेबीज़ के पास अपने वित्त और मानव संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार नहीं है और वे राज्य या जिला प्रशासन पर निर्भर हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर या विशेष फंड्स न होने के कारण उनकी पहल सीमित होती है और उसमें देर होती है।9  कमिटी ने विभिन्न निकायों के लिए वित्तीय आबंटन, प्रशिक्षण और कैडर निर्माण का सुझाव दिया था।

बाल देखरेख संस्थान (सीसीआई): सीसीआई ओपन शेल्टर्स और विशेष एडॉप्शन एजेंसियों सहित ऐसे संस्थानों को कहा जाता है जो ऐसी सेवाओं की जरूरत वाले बच्चों को देखभाल और सुरक्षा प्रदान करते हैं।[11]  सीसीआईज़ की रिव्यू एक्सरसाइज से संबंधित कमिटी (2018) ने कहा था कि कई सीसीआईज़ बच्चों को बुनियादी सेवाओं भी नहीं प्रदान करतीं जैसे अलग से बिस्तर, उचित पोषण और भोजन।[12] 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया था कि राज्य सरकारों को सभी सीसीआईज़ का मूल्यांकन करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो कि देखभाल के न्यूनतम मानकों का अनुपालन किया जा रहा है।[13] कमिटी ने यह भी कहा कि 2015 के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन अनिवार्य होने के बावजूद देश के केवल 32% सीसीआईज़ रजिस्टर्ड थे।12 सर्वोच्च न्यायालय (2017) ने सुझाव दिया था कि सीसीआईज़ के सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से रजिस्टर्ड होना चाहिए और इस डेटा को सत्यापित और मान्य किया जाना चाहिए।[14]  

उच्च न्यायालयों की भूमिका: 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध किया था कि कानून के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए अपने खुद के प्रस्ताव पर प्रक्रियाओं को दर्ज करें।13 2017 में अदालत ने सुझाव दिया था कि हर जिले में किशोर न्याय कमिटियां बनाई जानी चाहिए और उनमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होने चाहिए जिन पर बच्चों के मानवाधिकारों के संरक्षण की संवैधानिक बाध्यता है।14

एडॉप्शन में देरी

2015 का एक्ट सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा) को भारत में एडॉप्शंस को रेगुलेट और बढ़ावा देने की शक्ति देता है।1 2017 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि कारा ने समय रहते उन बच्चों की सिफारिश नहीं की जो एडॉप्शन के लिए कानूनी रूप से स्वतंत्र थे।[15] अदालत ने सुझाव दिया था कि अथॉरिटी की स्टीयरिंग कमिटी, कारा के कामकाज का निरीक्षण और जांच कर सकती है।1  इसके अतिरिक्त देरी के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।15 

उल्लेखनीय है कि 2013-14 से देश में हर साल कुल 3,500 से 4,500 के बीच एडॉप्शंस किए जाते हैं।[16] जून 2019 में माता-पिता के बिना, परित्यक्त या आत्मसमर्पण करने वाले 6,971 बच्चे विशेष एडॉप्शन एजेंसियों में रह रहे थे।[17] इसके अतिरिक्त 1,706 बच्चे इन एजेसियों से जुड़ी सीसीआईज़ में रह रहे थे।17 

कानून से संघर्षरत किशोर

अपराध की घटनाएं: भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अपराध के लिए आरोपित करने की आयु सात वर्ष है।[18]  गिरफ्तार बच्चों की कुल संख्या 2009 में 33,642 से बढ़कर 2019 में 38,685 हो गई, जिसमें 15% की वृद्धि है। इनमें से अधिकतर बच्चे 16-18 वर्ष के आयु वर्ग के हैं।[19] आधे से अधिक बच्चों को चोरी, चोट पहुंचाने, सेंधमारी और दंगों जैसे अपराधों के लिए गिरफ्तार किया गया था।  

रेखाचित्र 1: आयु वर्ग के आधार पर गिरफ्तार किशोर

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Sources: Crime in India, 2009-2019, National Crime Records Bureau; PRS.

रेखाचित्र 2: किशोरों द्वारा किए गए अपराध (आईपीसी के अंतर्गत)

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नोट: अन्य में हत्या की कोशिश, धोखाधड़ी, ब्लैकमेलिंग, डकैती और रैश ड्राइविंग शामिल हैं।

Sources: Crime in India, 2009-2019, National Crime Records Bureau; PRS.

मामलों का लंबित होना: 2009 में कानून से संघर्षरत बच्चों से जुड़े 43% मामले लंबित थे जोकि 2019 में 51% हो गए (रेखाचित्र 3)।19 दोषियों की कुल संख्या 2009 में 52% से घटकर 2019 में 43% हो गई, जबकि बरी होने वालों की संख्या 10% से कम रही।19

रेखाचित्र 3: कानून से संघर्षरत बच्चों के खिलाफ दायर मामलों के निपटान की स्थिति

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Sources: Crime in India, 2009-2019, National Crime Records Bureau; PRS.
 

तालिका 2 में कानून से संघर्षरत बच्चों और देखभाल एवं संरक्षण की जरूरत वाले बच्चों के रेगुलेशन के आधार पर विभिन्न देशों के किशोर न्याय कानूनों की तुलना की गई है। 

तालिका 2: विभिन्न देशों के किशोर न्याय कानूनों के बीच तुलना                                                                                                                           

  

देश

युनाइडेट किंगडम

दक्षिण अफ्रीका

फ्रांस

कनाडा

जर्मनी

ऑस्ट्रेलिया

भारत

आरोपित करने हेतु किशोर की न्यूनतम आयु

10 वर्ष

10 वर्ष

मामलों के आधार पर*

12 वर्ष

14 वर्ष

10 वर्ष

सात वर्ष (आईपीसी, 1860 के अंतर्गत) 

वयस्क के तौर पर मुकदमा चलाने की आयु 

अगर 18 वर्ष की आयु के बाद अदालत के सामने पेश हो रहे हैं 

16 वर्ष 

16 वर्ष

14 वर्ष

वयस्क के तौर पर किशोरों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता

अगर 18.5 वर्ष की आय़ु के बाद अदालत के सामने पेश हो रहे हैं

16 से 18 वर्ष के बीच के बच्चों पर वयस्कों के तौर पर मुकदमा चलाया जा सकता है

वयस्क माने जाने वाले किशोरों के लिए सजा 

-

वयस्कों की ही तरह। आजीवन कारावास, मृत्यु दंड नहीं

वयस्कों की ही तरह, मामलों के आधार पर, आजीवन कारावास की अनुमति

वयस्क की तरह, जैसे अगर वयस्क उसी अपराध के लिए दोषी पाए जाते हैं

-

अगर वे 18 और 18.5 वर्ष के बीच हैं, तो उन्हें भी वही सजा मिलती है, जो वयस्कों को अपराध साबित होने पर मिलती है

कोई भी सजा जो ऐसे वयस्क को दी जा सकती है जिसे वैसे ही अपराध के लिए दोषी ठहराया जाए

अपराधों का वर्गीकरण

कोई वर्गीकरण नहीं

कम गंभीर: अनाधिकार प्रवेश और सार्वजनिक अभद्रता सहित

अधिक गंभीर: आगजनी और गैर इरादतन हत्या सहित

अत्यधिक गंभीर: देशद्रोह और हत्या सहित

मामूली अपराध: 3,000 फ्रैंक तक का जुर्माना 

दुष्कर्म (मिस्डिमीनर): 10 वर्ष तक की कैद

अत्यधिक गंभीर अपराध (फेलनी): अधिकतम 10 वर्ष से अधिक कैद 

गंभीर अपराधपांच वर्ष की अधिकतम कैद 

हिंसक अपराधजिसमें शारीरिक नुकसान पहुंचाने के तत्व शामिल हों

गंभीर हिंसक अपराध: जैसे हत्या या उसकी कोशिश 

कम गंभीर अपराध: न्यूनतम कैद एक वर्ष से कम 

गंभीर अपराध: न्यूनतम कैद एक वर्ष से ज्यादा

गंभीर अपराधन्यूनतम कैद एक वर्ष

मामूली अपराधतीन वर्ष से तक की कैद

गंभीर अपराध: तीन से सात वर्ष के बीच की कैद (बिल में जोड़ा गया है कि गंभीर अपराधों में ऐसे अपराध भी शामिल होंगे जिनके लिए सात वर्ष से अधिक की अधिकतम सजा है, और न्यूनतम सजा निर्दिष्ट नहीं की गई है या सात वर्ष से कम की सजा है।)

जघन्य अपराध: सात वर्ष से ज्यादा की कैद

एडॉप्शन के आदेश देने वाली अथॉरिटी

फैमिली कोर्ट या हाई कोर्ट

चिल्ड्रन्स कोर्ट

डिस्ट्रिक्ट कोर्ट

यह हर राज्य में अलग है, जिसमें फैमिली कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और प्रिविंशियल कोर्ट शामिल हैं

फैमिली कोर्ट

फैमिली कोर्ट

जिला अदालत (बिल इसमें संशोधन करके अतिरिक्त जिला मेजिस्ट्रेट सहित जिला मेजिस्ट्रेट करता है)

अपराधों पर मुकदमा चलाने वाली निर्दिष्ट अथॉरिटी

यूथ कोर्ट (अधिक गंभीर अपराधो के लिए क्राउन कोर्ट में हस्तांतरित) 

चिल्ड्रन्स कोर्ट

जुवेनाइल कोर्ट्स

यूथ कोर्ट

जुवेनाइल कोर्ट्स

चिल्ड्रन्स कोर्ट

मामूली अपराध: मेजिस्ट्रेट

गंभीर अपराध: प्रथम श्रेणी का मेजिस्ट्रेट

जघन्य अपराध: चिल्ड्रन्स कोर्ट (बिल सभी अपराधों की सुनवाई चिल्ड्रन्स कोर्ट में करने का प्रावधान करता है)  

*13 वर्ष से अधिक के नाबालिग अगर समझते हैं कि वे क्या कदम उठा रहे हैं तो वे अपने अपराधों के लिए आपराधिक रूप से जिम्मेदार हैं: French Penal Code, www.legifrance.gouv.fr/content/download/1957/13715/.../Code_33.pdf.

Sources: United Kingdom: Children and Young Persons Act, 1933; Adoption and Children Act, 2002; South Africa: Child Justice Act, 2008; Criminal Law Amendment Act, 1997; France: Children’s Rights- August 2007, The Library of Congress; Canada: Youth Criminal Justice Act, 2002; Adoption Act, 2013 (Newfoundland and Labrador); Child, Youth and Family Enhancement Act, 2000 (Alberta); Adoption Act, 1996 (British Colombia); Adoption Information Act, 1996 (Nova Scotia); Germany: Youth Courts Law; German Criminal Code; AustraliaChildren and Young People Act, 1999; Adoption Act, 1994; IndiaJuvenile Justice (Care and Protection of ChildrenAct, 2015; Indian Penal Code, 1860; PRS.

 

[1]The Juvenile Justice (Care and Protection of ChildrenAct, 2015.

[2].   Convention on the Rights of the Child, https://www.unicef.org/child-rights-convention/convention-text; United Nations Standard Minimum Rules for the Administration of Juvenile Justice, https://www.ohchr.org/documents/professionalinterest/beijingrules.pdf; Convention on Protection of Children and Co-Operation in Respect of Intercountry Adoption, https://assets.hcch.net/docs/77e12f23-d3dc-4851-8f0b-050f71a16947.pdf.   

[3]The Juvenile Justice (Care and Protection of ChildrenAmendment Bill, 2021.

[4]The Juvenile Justice (Care and Protection of ChildrenAmendment Bill, 2018.

[5]. Shilpa Mittal v. State of NCT of Delhi and ANR, (2020) Special Leave Petition (Crl) no. 7678, https://main.sci.gov.in/supremecourt/2019/28877/28877_2019_15_1502_19348_Judgement_09-Jan-2020.pdf.

[6]Adoption Statistics, Central Adoption Resource Authority, Ministry of Women and Child Development, last accessed on March 18, 2021, http://cara.nic.in/resource/adoption_Stattistics.html

[7]. ‘District collectorsuperman or stopgap solution?, Rashmi Sharma (Former IAS officer), Mint, October 2, 2018, https://www.livemint.com/Opinion/wUF3NfRYLUCdwXeW4S4qRM/Opinion--District-collector-superman-or-stopgap-solution.html.

[8]. United States of America (governed by state specific laws): The Family Code, California, Division 13; The Revised Code of Washington Title 26, Chapter 33; United Kingdom: The Adoption and Children Act, 2002; Germany: The German Civil Code, 1900; France: The Napoleonic Code, 1804. 

[9]. 264th Report on the Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Bill, 2014, Standing Committee on Human Resource Development, February 25, 2015, https://prsindia.org/files/bills_acts/bills_parliament/SC_report-_Juvenile_justice_1.pdf

[10]. A Quick Review of Status of Juvenile Justice System, Structures, Mechanisms, and Processes, National Legal Services Authority, January 2019, https://drive.google.com/file/d/1CktonWaSh5aGOrO4Oi14HuvpdqIECEaH/view

[11]. Unstarred Question No. 2253, Ministry of Women and Child Development, September 23, 2020, http://164.100.24.220/loksabhaquestions/annex/174/AU2253.pdf

[12]. Report of the Committee for Analysing Data of Mapping and Review Exercise of Child Care Institutions under the Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015 and Other Homes, constituted by the Ministry of Women and Child Development, September 6, 2018, https://wcd.nic.in/sites/default/files/CIF%20Report%201_0_0.pdf.  

[13]. Sampurna Behura v. Union of India and others, (2018), W.P. (C) No.473 of 2005, http://patnahighcourt.gov.in/jjs/PDF/UPLOADED/128.PDF

[14]. Exploitation of Children in Orphanages, in re v. Union of India, (2017) W.P. (Crl.) No.102 of 2007, http://mediationcentrephhc.gov.in/jjmc/Judgements/Judgement%20dt%205.5.2017,%20CWP%20102%20of%202007%20regd%20separate%20sectt.pdf.

[15]. Smt. Vineeta Kushwaha (2018), Civil Revision No.258/2017; Civil Revision No.260/2017, https://districts.ecourts.gov.in/sites/default/files/CR_258_2017_FinalOrder_12-Feb-2018.pdf

[16]Adoption Statistics, website of Central Adoption Resource Authority, last accessed on June 7, 2021, http://cara.nic.in/resource/adoption_Stattistics.html.

[17]. Unstarred Question No. 1225, Ministry of Women and Child Development, June 28, 2019, http://164.100.24.220/loksabhaquestions/annex/171/AU1225.pdf

[18]. Section 82, Indian Penal Code, 1860.

[19]. Juveniles in Conflict with Law, Crime in India 2019, National Crime Records Bureau, Ministry of Home Affairs.

 

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