जल संसाधनों पर गठित स्थायी समिति ने भूजल के वर्तमान परिदृश्य की समीक्षा की जिसमें अतिदोहित ब्लॉक्स एवं कुछ उद्योगों द्वारा भूजल के संदूषण के विशेष संदर्भ के साथ देश की समस्याओं को संबोधित करने के लिए व्यापक नीति और उपायों की आवश्यकता जैसा विषय भी शामिल था। समिति ने दिसंबर 2015 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। कमिटी के सुझावों का सारांश इस टिप्पणी के अनुलग्नक में प्रस्तुत किया गया है। रिपोर्ट के जारी होने के कुछ महीनों के पश्चात समिति सामान्य तौर पर यह समीक्षा करती है कि सरकार ने उसके सुझावों पर क्या कार्रवाई की है।
इस संदर्भ में हम देश में भूजल के परिदृश्य का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं। इस टिप्पणी में देश में भूजल की उपलब्धता, नीतिगत संरचना और इस क्षेत्र के मुख्य मुद्दों से संबंधित संकेतकों को स्पष्ट किया गया है।
भारत में भूजल पर एक नजर
परिचय
भूजल, वह जल होता है जो चट्टानों और मिट्टी से रिस जाता है और भूमि के नीचे जमा हो जाता है। जिन चट्टानों में भूजल जमा होता है, उन्हें जलभृत (एक्विफर) कहा जाता है। सामान्य तौर पर, जलभृत बजरी, रेत, बलुआ पत्थर या चूना पत्थर से बने होते हैं। इन चट्टानों से पानी नीचे बह जाता है क्योंकि चट्टानों के बीच में ऐसे बड़ी और परस्पर जुड़ी हुई जगहें होती हैं, जो चट्टानों को पारगम्य (प्रवेश के योग्य) बना देती हैं। जलभृतों में जिन जगहों पर पानी भरता है, वे संतृप्त जोन (सैचुरेटेड जोन) कहलाते हैं। सतह में जिस गहराई पर पानी मिलता है, वह जल स्तर (वॉटर टेबल) कहलाता है। जल स्तर जमीन से नीचे एक फुट तक उथला भी हो सकता है और वह कई मीटर गहराई तक भी हो सकता है। भारी वर्षा से जल स्तर बढ़ सकता है और इसके विपरीत, भूजल का लगातार दोहन करने से इसका स्तर गिर भी सकता है। चित्र 1 में भूजल के संदर्भ में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों को प्रदर्शित किया गया है।
रेखाचित्र 1: भूजल और उसके पारिभाषिक शब्दों की ग्राफिकीय प्रस्तुति
भूजल का भूमिगत (हाइड्रोजियोलॉजिकल) जमाव इस संसाधन की क्षमता और अपरिवर्तनीय निम्नीकरण (इररिवर्सिबल डीग्रेडेशन) के प्रति उसकी संवेदनशीलता को स्पष्ट करता है।[1] भारत में इस जल जमाव को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है :
- प्रायद्वीपीय भारत में कठोर चट्टान वाले जलभृत : भारत के समूचे जलभृत क्षेत्र का 65% भाग कठोर चट्टानों वाला है। इनमें से अधिकतर मध्य प्रायद्वीपीय भारत में हैं जहां की भूमि कठोर चट्टानों से निर्मित है। इन चट्टानों से सतह पर ऐसी जटिल और निम्न संग्रहण वाली जलभृत व्यवस्था तैयार होती है कि अगर एक बार जल स्तर में 2-6 मीटर से अधिक की गिरावट हो जाती है तो फिर जल स्तर तेजी से गिरने लगता है। इसके अलावा इन जलभरों की भेद्यता[*] बहुत कम है जिसके कारण बारिश होने पर भी वे दोबारा जल्दी नहीं भरते। इसका अर्थ यह है कि इन जलभृतों का पानी दोबारा भरने योग्य नहीं (गैर पुनर्भरणीय) है और निरंतर प्रयोग किए जाने के कारण अंततः सूख सकता है।
- सिंधु-गंगा के मैदानों (उत्तर भारतीय नदी क्षेत्र) में कछारी जलभृत : उत्तर भारत में गंगा और सिंधु के मैदानों में पाए जाने वाले इन जलभृतों में पानी के संग्रहण की अद्भुत क्षमता है। इसलिए इन्हें जलापूर्ति का बहुमूल्य स्रोत माना जाता है। फिर भी भूजल को बड़े पैमाने पर उलीचा जा रहा है जबकि इन स्रोतों के दोबारा भरने की दर निम्न है। इसीलिए इन जलभृतों पर अत्यधिक दोहन का खतरा मंडरा रहा है जिसे रोकना लगभग असंभव है।
भूजल की उपलब्धता
तालिका 1 : भारत में जल संसाधनों से संबंधित आंकड़े |
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मानदंड |
इकाई (अरब क्यूबिक मीटर /वर्ष) |
वार्षिक जल उपलब्धता |
1,869 |
उपयोग योग्य जल |
1,123 |
सतही जल |
690 |
भूजल |
433 |
Sources: Water and Related Statistics, April 2015, Central Water Commission; PRS. |
नदियों में प्राकृतिक अपवाह (प्रवाह) के लिहाज से देखा जाए तो अप्रैल, 2015 में देश की जल संसाधन क्षमता या वार्षिक जल उपलब्धता 1,869 अरब क्यूबिक मीटर (बीसीएम) प्रति वर्ष थी।[2] इनमें से उपयोग योग्य जल संसाधन केवल 1,123 अरब क्यूबिक मीटर (बीसीएम) प्रति वर्ष के लगभग अनुमानित थे। दरअसल टोपोग्राफी (स्थलाकृतियों) संबंधी बाधाओं और विभिन्न नदी क्षेत्रों में संसाधनों के असमान वितरण की वजह से कुल उपलब्ध जल को निकालना कठिन हो जाता है।
उपयोग करने योग्य जल संसाधनों (1,123 बीसीएम प्रति वर्ष) में सतही जल और भूजल की हिस्सेदारी क्रमशः 690 बीसीएम प्रति वर्ष और 433 बीसीएम प्रति वर्ष है। अगर प्राकृतिक स्राव[†] के लिए 35 बीसीएम जल को हटा दिया जाए तो समूचे देश में शुद्ध वार्षिक भूजल उपलब्धता 398 अरब क्यूबिक मीटर हो जाती है।[3]
देश के वार्षिक भूजल संसाधन में वर्षा जल का योगदान 68% है और अन्य स्रोतों, जैसे नहरों में रिसाव, सिंचाई के दौरान पानी वापस लौटना, टैंक, तालाब तथा जल संरक्षण जैसी संरचनाओं का दोबारा भरना इत्यादि की हिस्सेदारी 32% है।[4] देश में बढ़ती जनसंख्या के कारण, जल की राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता वर्ष 2001 में 1,816 क्यूबिक मीटर से गिरकर वर्ष 2011 में 1,544 क्यूबिक मीटर हो गई है। 2 यह 15% की गिरावट है।
रेखाचित्र 2 : जल स्तर की गहराई (वर्षा पूर्व, 2014)
Note: m bgl denotes meters below ground level. Sources: Central Ground Water Board; PRS. |
यह रेखाचित्र संकेत देता है कि देश के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में भूजल निम्न स्तर पर उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त अन्य कई हिस्सों में भी जल स्तर की गहराई 10 मीटर से भी अधिक है। इसका यह मतलब है कि इन क्षेत्रों में जल स्तर तक पहुंचने के लिए अधिक गहराई तक खुदाई करनी होगी। जब भूजल स्तर 10 मीटर से नीचे चला जाता है तो पानी निकालने क लिए अधिक आधुनिक उपकरणों की जरूरत होती है।
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देश में भूजल संसाधनों का आकलन, जिलों के भीतर विभिन्न स्तरों पर किया गया है जैसे ब्लॉक/मंडल/तालुका/वॉटरशेड। भूजल विकास शुद्ध वार्षिक भूजल उपलब्धता के आधार पर वार्षिक भूजल निकासी का अनुपात होता है। यह उपयोग के लिए उपलब्ध भूजल की मात्रा बताता है। तालिका 2 में पिछले दो दशकों में देश में भूजल विकास के स्तर की तुलना की गई है।
तालिका 2: पिछले 20 वर्षों में भारत में भूजल विकास के स्तर की तुलनात्मक स्थिति
भूजल विकास का स्तर |
स्पष्टीकरण |
1995 में % जिले |
2004 में % जिले |
2009 में % जिले |
2011 में % जिले |
0-70% (सुरक्षित) |
क्षेत्र जहां भूजल विकास की क्षमता है |
92 |
73 |
72 |
71 |
70-90% (कुछ गंभीर) |
क्षेत्र जहां भूजल विकास सावधानीपूर्वक किए जाने का सुझाव दिया जाता है |
4 |
9 |
10 |
10 |
90-100% (गंभीर) |
क्षेत्र जहां भूजल विकास के लिए गहन निरीक्षण और मूल्यांकन की जरूरत है |
1 |
4 |
4 |
4 |
>100% (अतिदोहित) |
क्षेत्र जहां भविष्य में भूजल विकास को जल संरक्षण के उपायों से जोड़ा जाना है |
3 |
14 |
14 |
15 |
Sources: Central Ground Water Board; PRS.
रेखाचित्र 3: भूजल आकलन इकाइयों का वर्गीकरण
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नोट: 2011 तक के आंकड़े Sources: Ground water scenario in India, November 2014, Central Ground Water Board; PRS.
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दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान राज्यों में भूजल विकास का स्तर बहुत अधिक है, जहां भूजल विकास 100% से अधिक है। इसका अर्थ यह है कि इन राज्यों में वार्षिक भूजल उपभोग वार्षिक भूजल पुनर्भरण से अधिक है। हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश तथा केंद्र शासित प्रदेश पुद्दूचेरी में भूजल विकास का स्तर 70% और उससे अधिक है। अन्य राज्यों में भूजल विकास का स्तर 70% से नीचे है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भूजल का उपयोग उन क्षेत्रों में बढ़ा है, जहां पानी आसानी से उपलब्ध था।2इससे समूचे भूजल विकास में वृद्धि हुई, जोकि वर्ष 2004 में 58% से बढ़कर 2011 में 62% हो गया। रेखाचित्र 3 में यह प्रदर्शित किया गया है।
भूजल की निकासी और उपयोग
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत भूजल के अत्यधिक उपयोग और संदूषण के संकट की ओर तेजी से बढ़ रहा है।[5] भूजल का अत्यधिक उपयोग या अतिदोहन उस परिस्थिति को कहते हैं जब एक समयावधि के बाद जलभृतों की औसत निकासी दर, औसत पुनर्भरण की दर से अधिक होती है।
भारत में भूजल की अपेक्षा सतही जल की उपलब्धता अधिक है। फिर भी भूजल की विकेंद्रित उपलब्धता[‡] के कारण यह आसानी से प्राप्त किया जा सकता है और भारत की कृषि और पेय जल आपूर्ति में उसकी हिस्सेदारी बहुत बड़ी है। निष्कर्षित भूजल का 89% हिस्सा सिंचाई क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है जोकि उपयोग की सबसे बड़ी श्रेणी है।[6] इसके बाद घरेलू उपयोग का स्थान आता है जोकि निष्कर्षित भूजल का 9% है। भूजल का 2% हिस्सा उद्योगों में उपयोग किया जाता है। शहरों में जल की 50% और गांवों में जल की 85% घरेलू आवश्यकता भूजल से पूरी होती है। 1
भूजल के माध्यम से सिंचाई
भूजल का सबसे अधिक उपयोग सिंचाई के लिए होता है। देश में सिंचाई के मुख्य साधनों में नहरें, टैंक और कुएं तथा ट्यूब वेल हैं। इन सभी जल स्रोतों में भूजल की बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। कुएं, खास तौर से खुदाई किए गए कुएं, उथले ट्यूब वेल और गहरे ट्यूब वेल सिंचाई के लिए 61.6% जल उपलब्ध कराते हैं जबकि नहरें 24.5% जल उपलब्ध कराती हैं।
पिछले कुछ वर्षों में सिंचाई के लिए सतही जल के उपयोग में लगातार गिरावट आई है और भूजल उपयोग निरंतर बढ़ा है। रेखाचित्र 5 में सिंचाई के मुख्य स्रोतों के प्रयोग का पैटर्न प्रस्तुत किया गया है। इसमें साफ देखा जा सकता है कि ट्यूब वेलों की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ी है जिससे संकेत मिलता है कि किसानों द्वारा सिंचाई के लिए ट्यूब वेलों का अधिक प्रयोग किया जा रहा है। हरित क्रांति की शुरुआत ने सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भरता बढ़ाई क्योंकि यह स्वयं कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए जल और उर्वरकों जैसे इनपुट्स के अत्यधिक उपयोग पर निर्भर थी।[7] सिंचाई उपकरणों के लिए ऋण और बिजली आपूर्ति के लिए सबसिडी जैसे प्रोत्साहनों ने स्थिति को बदतर किया।[8] बिजली की दरों में कमी आने से जल उपयोग तेजी से बढ़ा जिसका परिणाम यह हुआ कि जल स्तर गिरता गया। 8
रेखाचित्र 4: सिंचाई के लिए भूजल के उपयोग में वृद्धि
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रेखाचित्र 5: सिंचाई के मुख्य स्रोत के रूप में ट्यूब वेलों का बढ़ता उपयोग
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Sources: Agricultural Statistics at Glance 2014, Ministry of Agriculture; PRS. |
नोट: सिंचाई क्षेत्र ‘000 हेक्येटर में हैं Source: Agricultural Statistics at Glance 2014, Ministry of Agriculture; PRS.
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भूजल संदूषण
भूजल संदूषण तब होता है जब पानी में प्रदूषकों की उपस्थिति निर्धारित मात्रा से अधिक होती है या कह सकते हैं कि यह मात्रा पेय जल में निर्धारित प्रदूषकों की मात्रा से अधिक होती है।[9] सामान्य तौर पर पाए जाने वाले संदूषकों में आर्सेनिक, फ्लोराइड, नाइट्रेट और आयरन शामिल हैं जो प्रकृति से भूआनुवांशिक[§] होते हैं। अन्य संदूषणों में बैक्टीरिया, फॉस्फेट और भारी धातुएं आती हैं जिनका कारण घरेलू सीवेज, कृषि कार्य और औद्योगिक अपशिष्ट सहित अन्य मानव गतिविधियां हैं। 10संदूषण के स्रोतों में कचरा भरावों, सैप्टिक टैंकों और लीकेज वाले भूमिगत गैस टैंकों से होने वाला प्रदूषण और उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग शामिल है। इस बात का संकेत मिलता है कि देश के लगभग 60% जिलों में भूमिगत जल को लेकर कोई न कोई समस्या है। या तो जल उपलब्ध नहीं है या उसकी गुणवत्ता में कमी है। कहीं-कहीं ये दोनों समस्याएं एक साथ हैं।[10]
तालिका 3 जुलाई, 2014 तक भूअनुवांशिक संदूषणों से प्रभावित होने वाले राज्यों और जिलों की कुल संख्या को प्रदर्शित करती है।
तालिका 3: भूजल के भूअनुवांशिक संदूषण से प्रभावित राज्य और जिले
भूअनुवांशिक संदूषण |
प्रभावित राज्यों की संख्या |
प्रभावित जिलों की संख्या |
आर्सेनिक |
10 |
68 |
फ्लोराइड |
20 |
276 |
नाइट्रेट |
21 |
387 |
आयरन |
24 |
297 |
Source: Central Ground Water Board; PRS.
भूजल में आर्सेनिक की उच्च मात्रा की मौजूदगी की समीक्षा करने वाली आकलन समिति, 2014-15 ने यह पाया कि देश के 10 राज्यों के 68 जिलों में भूजल में आर्सेनिक की उच्च मात्रा मौजूद है।[11] ये 10 राज्य हैं, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर और कर्नाटक।
विधायी और नीतिगत संरचना
वर्तमान में सुखभोग अधिनियम, 1882 प्रत्येक भूस्वामी को जमीन के भीतर या उसकी सतह पर मौजूद पानी को अपने दायरे के अंदर जमा करने और निस्तारित करने का अधिकार देता है।[12] इसलिए भूजल निकासी को विनियमित करना कठिन हो जाता है क्योंकि उस पर उस व्यक्ति का स्वामित्व होता है जो जमीन का मालिक होता है। इससे भूजल पर भू स्वामियों का अधिकार हो जाता है। इसके अतिरिक्त कानून अपने दायरे से भूमि से वंचित लोगों को बाहर करता है।
संविधान के तहत जल संबंधी मामलों को राज्य सूची में रखा गया है। इसका अर्थ यह है कि इस विषय पर राज्य विधानमंडल कानून बना सकते हैं। राज्य सरकारों को जल के सतत उपभोग पर कानून बनाने के संबंध में व्यापक दिशानिर्देश देने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने प्रारूप कानूनों या मॉडल विधेयकों के मसौदे को प्रकाशित किया। 2011 में सरकार ने भूजल प्रबंधन पर मॉडल विधेयक का मसौदा प्रकाशित किया जिसके आधार पर राज्य अपने कानूनों को अमल में लाना चुन सकते हैं। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार ने 2012 में राष्ट्रीय जल नीति को रेखांकित किया जिसमें पानी की मांग के प्रबंधन, उपभोग क्षमता, बुनियादी और मूल्य संबंधी पहलुओं से संबंधित सिद्धांतों को स्पष्ट रूप से पेश किया गया था। राष्ट्रीय जल नीति के सुझावों के मद्देनजर, 2013 में सरकार ने राष्ट्रीय जल प्रारूप विधेयक का मसौदा प्रकाशित किया।
मॉडल बिल और राष्ट्रीय जल नीति सार्वजनिक न्यास सिद्धांत (पब्लिक ट्रस्ट डॉक्ट्रिन) के तहत भूजल के नियमन को संबोधित करती है। सार्वजनिक न्यास सिद्धांत की अवधारणा यह सुनिश्चित करती है कि सार्वजनिक प्रयोग के लिए निर्धारित संसाधनों को निजी स्वामित्व में नहीं बदला जाएगा।[13] सरकार पर न्यासी होने का उत्तरदायित्व है इसलिए यह उसकी जिम्मेदारी है कि वह लाभार्थियों जोकि लोग हैं, के लिए और उनकी ओर से इस प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण और सुरक्षा करे।[14]इसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को स्वीकार्य गुणवत्ता के जल को प्राप्त करने का मूलभूत अधिकार है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने जल को प्राप्त करने के मूलभूत अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के अंग के रूप में उल्लिखित किया है। न्यायालयों ने कई विषयों पर फैसले सुनाए हैं जैसे पेय जल तक पहुंच और सुरक्षित पेय के अधिकार को मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार करना।[15]
यह विधेयक ग्रामीण और शहरी परिवारों की जरूरतों को प्राथमिकता देने के साथ, अन्य मुख्य और गौण उपयोगों को भी स्पष्ट करता है। मुख्य उपयोगों में कृषि, गैर कृषि आधारित जीविकोपार्जन और म्यूनिसिपल जलापूर्ति शामिल है और गौण के अंतर्गत व्यावसायिक गतिविधियों में जल का उपयोग आता है। विधेयक सहायता (सबसिडिएरिटी) के सिद्धांत को लागू करने का प्रयास भी करता है जिसके तहत समुदायों को जलभृत स्तर के भूजल को विनियमित करने का अधिकार दिया जाता है।13,[16]उदाहरण के लिए किसी गांव के भीतर स्थित जलभृत पर वहां की ग्राम पंचायत का प्रत्यक्ष नियंत्रण होगा।
मॉडल विधेयक के प्रतिक्रियास्वरूप अब तक 11 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) ने भूजल कानून को मंजूर और कार्यान्वित किया है। ये राज्य हैं : आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गोवा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, महाराष्ट्र, लक्षद्वीप, पुद्दूचेरी, चंडीगढ़ और दादरा तथा नगर हवेली।[17] इसके अतिरिक्त केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को एक एडवाइजरी जारी की है जिसमें कहा गया है कि सभी सरकारी इमारतों में रेनवॉटर हार्वेस्टिंग करने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। अब तक 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने रेनवॉटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य बनाने के लिए उपनियमों में विशेष प्रावधान सहित कानून, नियम और विनियम बनाए हैं।[18]
इसके अतिरिक्त 2015 में उपनियम बनाने वाले मसौदा मॉडल में शहरी विकास मंत्रालय ने रेनवॉटर हार्वेस्टिंग से संबंधित प्रावधान को शामिल किया। इसमें 100 वर्गमीटर या उससे अधिक की जमीन पर बनाई जाने वाली इमारतों में रेनवॉटर हार्वेस्टिंग की संरचना होना अनिवार्य किया गया है।18
जल के कुशलतापूर्वक उपयोग और उसके संरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए राष्ट्रीय जल नीति बुनियादी जरूरतों से इतर पानी के मूल्य निर्धारण की आवश्यकता को रेखांकित करती है। नीति प्रत्येक राज्य में जल विनियामक प्राधिकरण (डब्ल्यूआरए) की स्थापना के माध्यम से विभिन्न उपयोगों के लिए उचित मूल्य निर्धारण का प्रस्ताव रखती है। डब्ल्यूआरए मात्रा के आधार पर पानी का शुल्क निर्धारित और विनियमित करेगा जिसकी समय-समय पर समीक्षा की जाएगी। पर यह पाया गया कि इस नीति के उस हिस्से, जिसमें पानी की बुनियादी सुविधा प्रदान करने की बात कही गई है और पानी के आर्थिक मूल्य और पूर्ण लागत बहाली को एक साथ लागू करना परस्पर विरोधाभासी है। उपयुक्त वित्तीय मॉडल के अभाव में यह समझना मुश्किल था कि लागत चुकाने की सीमित क्षमता के साथ लोगों के बीच पानी का आवंटन कैसे किया जाएगा। इसके अतिरिक्त यह भी पाया गया कि स्पष्ट दिशानिर्देशों और कानूनी स्तर पर प्रवर्तन तंत्र के अभाव में यह नीति अस्पष्ट और अप्रभावी होगी।7
संस्थागत संरचना
केंद्र सरकार के तहत जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्रालय ही देश में जल संरक्षण और प्रबंधन के लिए उत्तरदायी है। ग्रामीण विकास मंत्रालय भी भूजल प्रबंधन से संबंधित कुछ कार्यक्रमों को लागू करता है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय प्रदूषण, विशेष रूप से जल प्रदूषण तथा भूजल संदूषण की रोकथाम और नियंत्रण के लिए आंशिक रूप से उत्तरदायी है। इसके अतिरिक्त ऐसे चार प्रमुख केंद्रीय संस्थान हैं जो भूजल से संबंधित मुद्दों को संबोधित करते हैं। इन संस्थानों की मुख्य भूमिकाओं का सार-संक्षेप निम्नलिखित तालिका में है :
तालिका 4: भूजल प्रबंधन हेतु उत्तरदायी प्रमुख केंद्रीय जल संस्थान
संस्थान |
भूमिका |
केंद्रीय जल आयोग |
देश में राज्य सरकारों के सहयोग से जल संसाधनों के संरक्षण और उपयोग के लिए योजनाओं को प्रारंभ और समन्वित करना और जल की गुणवत्ता का निरीक्षण करना |
केंद्रीय भूजल बोर्ड |
भूजल के सतत उपयोग से संबंधित प्रौद्योगिकी को विकसित और प्रसारित करना, भूजल संसाधनों के सतत प्रबंधन के लिए नीतियों का निरीक्षण और कार्यान्वयन करना, भूजल संसाधनों का आकलन करना |
केंद्रीय भूजल प्राधिकरण |
भूजल संसाधनों के विकास और प्रबंधन को विनियमित और नियंत्रित करने के लिए पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3(3) के तहत गठित, कानूनी कार्रवाई का सहारा ले सकता है और आवश्यक विनियामक निर्देश जारी कर सकता है |
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड |
जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 का कार्यान्वयन जोकि जल की गुणवत्ता को बरकरार रखने का प्रयास करता है |
Sources: Ministry of Water Resources; Lok Sabha Question 2157, March 10, 2015; PRS.
प्रत्येक राज्य में जिलाधीश केंद्रीय भूजल बोर्ड के लिए संपर्क बिंदु का काम करता है। जिलाधीश के पास केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा सुझाए गए या सुधारात्मक उपायों को लागू करने का अधिकार होता है।
प्रमुख चुनौतियां
यह खंड भूजल क्षेत्र से संबंधित प्रमुख मुद्दों पर प्रकाश डालता है। प्रमुख चुनौतियां निम्नलिखित हैं :
भूजल संसाधनों का आकलन
आकलन की मौजूदा प्रणाली के अंतर्गत तीन करोड़ भूजल संरचनाओं में से सिर्फ 15,640 पर्यवेक्षण कुओं का प्रयोग किया जाता है जिससे उपलब्ध आंकड़े सांकेतिक होते हैं, प्रतिनिधिपरक नहीं। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत में जलभृतों की स्थिति की स्पष्ट जानकारी होने से ही स्थानीय स्तर पर उनके प्रबंधन और नियमन में मदद मिलेगी।19सतत भूजल प्रबंधन पर योजना आयोग के कार्यसमूह ने आकलन में सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए हैं:[19]
- केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा डेटाबेस प्रबंधन को मजबूत करना,
- जहां आकलन वास्तविक स्थिति से मेल न खाते हों, वहां पुनर्भरण संबंधी आकलन के लिए वैकल्पिक तकनीकों को अपनाना,
- भूजल संसाधनों के पूर्ण आकलन के लिए जलभृतों का प्रभावी रूप से मानचित्रण।
इन सुझावों के बाद 2012 में सीजीडब्ल्यूबी ने जलभृतों को चिन्हित एवं मानचित्रित करने तथा भूजल की उपलब्ध क्षमता की मात्रा निर्धारित करने के लिए राष्ट्रीय जलभृत प्रबंधन परियोजना (नैक्विम) की शुरुआत की। इस परियोजना ने भूजल क्षेत्र में विकास के स्थान पर प्रबंधन की ओर बढ़ने की जरूरत पर बल दिया। इसका उद्देश्य निम्नलिखित के माध्यम से भूजल संसाधन प्रबंधन को बढ़ाना है : (i) जलभृतों को चिन्हित करना और उनका मानचित्रण, (ii) भूजल की उपलब्ध क्षमता की मात्रा निर्धारित करना, और (iii) मांग के स्तर के अनुकूल योजना प्रस्तावित करना, जलभृतों की विशेषताओं और प्रबंधन के लिए संस्थागत व्यवस्था करना। नैक्विम के लिए कार्य प्रक्रिया को स्थापित करने के लिए सीजीडब्ल्यूबी ने विभिन्न भूजल विज्ञानी भूखंडों में छह क्षेत्रों पर पायलट अध्ययन प्रारंभ किया।[20] ये क्षेत्र बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में हैं।
फसलों का मूल्य निर्धारण और जल गहन फसलें
पिछले चार दशकों में कुल सिंचित क्षेत्र में लगभग 84% वृद्धि भूजल के कारण हुई है।1अतिदोहन का मुख्य कारण कृषि के लिए भूजल की बढ़ती मांग है। इसके अतिरिक्त अधिकतर क्षेत्रों में भूजल उपलब्धता पर ध्यान दिए बिना फसलों के पैटर्न और मात्रा के संबंध में फैसले लिए गए।8
2014 में भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन पर बनी उच्च स्तरीय समिति, जिसके अध्यक्ष शांता कुमार थे, ने पाया कि हालांकि हाल ही में 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की गई है लेकिन प्रभावी मूल्य समर्थन सिर्फ गेहूं और चावल पर दिया गया है। [21] इस प्रकार गेहूं और धान की फसलों को अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है जोकि जल सघन फसलें हैं और उन्हें पनपने के लिए बहुत हद तक भूजल पर निर्भर रहना पड़ता है। नीचे दी गई तालिका 5 में विभिन्न फसलों को पनपने के लिए जल की अपेक्षित औसत मात्रा (क्यूबिक मीटर/टन में) का उल्लेख किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि चीन और अमेरिका की तुलना में भारत फसलों को उगाने के लिए जल की लगभग दोगुनी मात्रा का प्रयोग करता है।
तालिका 5 : विभिन्न देशों में फसल उत्पादन के लिए जल का प्रयोग (क्यूबिक मीटर/टन में)
फसल और फसल उत्पाद |
विभिन्न देशों में फसल उगाने के लिए जल की अपेक्षित मात्रा |
|||
|
ब्राजील |
भारत |
चीन |
अमेरिका |
चावल |
3,082 |
2,800 |
1,321 |
1,275 |
गन्ना |
155 |
159 |
117 |
103 |
गेहूं |
1,616 |
1,654 |
690 |
849 |
कपास |
2,777 |
8,264 |
1,419 |
2,535 |
Sources: National Water Footprint Account, UNESCO-Institute for Water Education, May 2011; PRS.
उच्च स्तरीय समिति ने सुझाव दिया कि दालों और तिलहन को बेहतर मूल्य समर्थन प्रदान करते हुए फसलों का पैटर्न विविध बनाया जाना चाहिए।[22] इससे इन खाद्यान्नों के उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
अन्य विशेषज्ञों ने भूजल के अतिदोहन की समस्या से निपटने के लिए कृषि में मांग प्रबंधन का प्रयोग करने का सुझाव दिया। 1इससे कृषि में भूजल पर निर्भरता कम होगी। इन उपायों में शामिल है:
- जलभृत के प्रकार, भूजल निकासी, मानसून में वर्षा और जल स्तर को देखते हुए किसी विशिष्ट क्षेत्र के लिए शुष्क मौसम की फसल की योजना बनानी चाहिए। इसमें उच्च मूल्य वाली और कम पानी का उपभोग करने वाली फसलों को भी चुना जा सकता है।
- ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली जैसी आधुनिक सिंचाई की तकनीकों को अपनाना जिससे वाष्पीकरण और कृषि में जल के गैर लाभकारी, गैर वसूली योग्य प्रयोग को कम किया जा सके।
- विनियामक उपायों के जरिए भूजल के पृथक्करण या प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए प्रतिबंध लगाना। जैसे सिंचाई के कुएं की गहराई को निर्धारित करना, सिंचाई के बीच न्यूनतम दूरी को तय करना एवं उसे कठोरता से अमल में लाना।
बिजली पर सबसिडी और भूजल की निकासी
कृषि के लिए बिजली पर सबसिडी देने की परंपरा ने भारत में जल स्तर की गिरावट में अहम भूमिका निभाई है। वर्ष 2009 में 89% भूजल निकासी सिंचाई के लिए की गई थी, जबकि 11% घरेलू और औद्योगिक उपयोग के लिए।‡चूंकि भूजल निकासी की लागत में सबसे बड़ा हिस्सा बिजली का ही होता है इसलिए अनेक राज्यों में सस्ती/सबसिडी प्राप्त बिजली मिलने के कारण पानी बड़े पैमाने पर उलीचा गया।8इसके अतिरिक्त बिजली आपूर्ति मीटर से नहीं मापी जाती और पंप के हॉर्सपावर से फ्लैट टैरिफ वसूला जाता है। मसौदा राष्ट्रीय जल प्रारूप विधेयक, 2013 में यह सुझाव दिया गया था कि भूजल निकासी के लिए जरूरी बिजली के प्रयोग को विनियमित करके भूजल के अत्यधिक दोहन को कम किया जाना चाहिए।[23]
एक चुनौती यह है कि किसानों की जरूरतों और भूजल के सतत उपयोग को सुनिश्चित करने की आवश्यकता के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। इस संबंध में राष्ट्रीय जल नीति, 2012 में यह सुझाव दिया गया है कि भूजल निकासी के लिए बिजली के प्रयोग को विनियमित करके भूजल के अत्यधिक दोहन को कम किया जाना चाहिए। कृषि के लिए अलग बिजली के फीडर लगाकर भूजल की पंपिंग से समस्या का समाधान हो सकता है।
खरीफ फसलों के लिए मूल्य नीति आयोग (2015-16) ने कृषि में पानी की राशनिंग का सुझाव दिया और पानी एवं बिजली के प्रति हेक्टेयर उपयोग की अधिकतम सीमा निर्धारित की। 22इसके अतिरिक्त अगर किसान निर्धारित की गई अधिकतम मात्रा से कम पानी और बिजली उपयोग करते हैं तो उन्हें उनकी घरेलू लागत की दर पर पानी/बिजली की अप्रयुक्त इकाई के बराबर नकद पुरस्कार प्रदान किया जाना चाहिए। इससे किसान पानी की प्रति बूंद पर अधिक फसल पाने के लिए ड्रिप इरिगेशन और दूसरी ऑन फार्म जल प्रबंधन तकनीकों को अपनाने को प्रेरित होंगे।
भूजल कानूनों का अपर्याप्त विनिमयन
सरकार समय-समय पर कहती है कि भूजल का प्रबंधन सामुदायिक संसाधन के रूप में किए जाने की जरूरत है। फिर भी सुखभोग अधिनियम, 1882 की धारा 7 (छ) कहती है कि हर भूस्वामी को अपनी सीमा के अंदर आने वाली भूमि के नीचे और उसकी सतह पर मौजूद उस पानी को इकट्ठा करने और उसका निपटान करने का अधिकार है जो किसी निर्दिष्ट चैनल में नहीं जाता। इस कानून का वैधानिक परिणाम यह है कि भूस्वामी अपनी जमीन में कुएं खोद सकता है और उपलब्धता एवं अपने विवेकाधिकार के आधार पर पानी खींच सकता है।[24] इसके अतिरिक्त, अत्यधिक दोहन के परिणामस्वरूप जल संसाधन को होने वाले नुकसान के लिए भूस्वामी कानूनी रूप से जिम्मेदार नहीं होते। जल संसाधन के अत्यधिक दोहन को विनियमित न किए जाने के कारण स्थिति और खराब हो जाती है और इसके कारण अधिकतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भूजल का निजी स्वामित्व सामान्य सी बात है।
सीजीडब्ल्यूबी राज्यों में अति दोहित और गंभीर क्षेत्रों को चिन्हित करता है। लेकिन बोर्ड के पास इन क्षेत्रों में भूजल निकासी को रोकने का अधिकार नहीं है और वह केवल भूस्वामियों को सूचित कर सकता है। इसके अतिरिक्त, चूंकि भूजल के छोटे उपयोगकर्ताओं की संख्या इतनी बड़ी है कि बोर्ड के लिए उन्हें चिन्हित और दंडित करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
भूजल की गुणवत्ता
2011-12 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने जल प्रदूषण की अपनी प्रदर्शन लेखा परीक्षा में यह पाया कि भूजल स्रोतों में बढ़ते प्रदूषण और आर्सेनिक, नाइट्रेट, फ्लोराइड, लवणता जैसे संदूषकों की मौजूदगी के बावजूद प्रदूषण को नियंत्रित और भूजल को बहाल करने के लिए केंद्र या राज्यों द्वारा कोई कार्यक्रम लागू नहीं किया गया।[25] इसके अतिरिक्त केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और सीजीडब्ल्यूबी नदियों, झीलों और भूजल स्रोतों में होने वाले जल प्रदूषण की निगरानी नहीं करते।
कैग ने भूजल प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण के संबंध में निम्नलिखित सुझाव दिए हैं : (i) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को इको-सिस्टम और मानव स्वास्थ्य की रक्षा करने के लिए झीलों, नदियों और भूजल के लिए गुणवत्ता मानकों की स्थापना करनी चाहिए, जिनका प्रवर्तन किया जाए, (ii) जल के गुणवत्ता मानकों का उल्लंघन करने पर दंड वसूला जाए, और (iii) राज्यों द्वारा ऐसे उपाय किए जाएं जिससे झीलों के संरक्षण और बहाली से जुड़ी परियोजनाओं के अंतर्गत जलाशयों में जाने वाले सीवेज और कृषि अपवाह के स्रोत को नियंत्रित किया जा सके।
संसद की आकलन समिति ने भूजल में आर्सेनिक की उच्च मात्रा की समीक्षा की थी। समिति की रिपोर्ट के जवाब में जल संसाधन मंत्रालय ने आर्सेनिक न्यूनीकरण के लिए ‘अंतर मंत्रालयी समूह’ का गठन किया। [26] समूह ने केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों एवं अन्य संस्थानों के बीच आर्सेनिक संबंधित मामलों के समयोजन के लिए ‘राष्ट्रीय आर्सेनिक कार्य बल’ के गठन का सुझाव दिया। इसके अतिरिक्त, समूह ने पांच राज्यों- असम, बिहार, झारखंड, पंजाब और पश्चिम बंगाल के लिए 3,839 करोड़ रुपए के लागत वाली एक परियोजना का मसौदा तैयार किया। 26
भूजल का स्थानीय प्रबंधन
कुछ ही क्षेत्रों में यह देखा गया कि स्थानीय उपयोगकर्ता अपने जल संसाधनों का सफलतापूर्वक प्रबंधन कर रहे हैं। योजना आयोग ने यह सुझाव दिया कि भूजल प्रबंधन की योजना बनाने के दौरान स्थानीय योजनाकारों को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:10
- सतही जल इकाइयों जैसे वॉटरशेड या नदी क्षेत्र और जमीन के नीचे की जल इकाइयों जैसे जलभृतों के बीच संबंध तय करना,
- भूजल पुनर्भरण क्षेत्रों को चिन्हित करना,
- गांव या वॉटरशेड के स्तर पर भूजल संतुलन को बरकरार रखना, और
- सामुदायिक स्तर जैसे पंचायतों में विनियामक विकल्पों का सृजन करना। स्थानीय स्तर पर जिन गतिविधियों को विनियमित करने की आवश्यकता है, उनमें ड्रिलिंग की गहराई, कुंओं के बीच दूरी, फसल लगाने का पैटर्न शामिल है जिससे जलभृतों की स्थिरता और भागीदारीपूर्ण भूजल प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके।
अनुलग्नक: जल संसाधनों पर स्थायी समिति की रिपोर्ट के सुझाव
स्थायी समिति ने भूजल परिदृश्य की समीक्षा की और दिसंबर, 2015 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। समिति के मुख्य सुझाव निम्नलिखित हैं :
- जल के प्राकृतिक और कृत्रिम पुनर्भरण पर डेटाबेस : देश में भूजल संसाधनों का आकलन अंतिम बार 2011 में किया गया था। जबकि यह आकलन नियमित आधार पर, दो साल में एक बार किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित विषयों पर डेटाबेस का रखरखाव करने के लिए किसी एक संस्था का गठन किया जाना चाहिए : (i) विभिन्न भागीदारों द्वारा उपयोग किए जाने वाले भूजल की मात्रा, और (ii) भूजल का प्राकृतिक और कृत्रिम पुनर्भरण। इससे जल संसाधन के संरक्षण, विकास और प्रबंधन की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों को बढ़ावा मिलेगा और अति दोहन, ह्रास और प्रदूषण जैसी समस्याओं का हल करने में मदद मिलेगी।
- डार्क ब्लॉक्स का अध्ययन : भूमि के प्रयोग और डार्क ब्लॉक्स के अंतर्गत आने वाली कृषि भूमि के अनुपात का आकलन करने के लिए एक अध्ययन (अति दोहित आकलन इकाइयां) किया जाना चाहिए। इससे उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त फसल पद्धतियों को चुनने में मदद मिलेगी जहां पानी की कमी है। इसके अतिरिक्त डार्क ब्लॉक्स के कारण कृषि, अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य और पर्यावरण को होने वाले नुकसान पर भी अध्ययन किया जाना चाहिए।
- कृषि के लिए भूजल की निकासी : कृषि उपयोग के लिए भूजल के अति दोहन के कारण पंजाब, हरियाणा और राजस्थान राज्यों में जल स्तर में गिरावट आ रही है। इस स्थिति को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं : (i) ऑन फार्म जल प्रबंधन तकनीक और सिंचाई की बेहतर पद्धतियों को अपनाना, (ii) ‘भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए मास्टर प्लान’ का कार्यान्वयन, और (iii) कृषि बिजली मूल्य निर्धारण ढांचे में सुधार करना क्योंकि बिजली के फ्लैट रेट ने भूजल के उपयोग पर प्रतिकूल असर डाला है। दीर्घकालीन स्थिरता को सुनिश्चित करने के लिए भूजल निकासी पर स्पष्ट नीति भी तैयार की जानी चाहिए।
- पानी को संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत लाना : पानी के विषय को समवर्ती सूची में लाने से व्यापक कार्य योजना को विकसित करने में मदद मिलेगी। केंद्र और राज्यों के बीच सम्मति से भूजल सहित जल का बेहतर संरक्षण, विकास और प्रबंधन संभव होगा।
- भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए मास्टर प्लान : 2013 में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने ‘भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए मास्टर प्लान’ नामक दस्तावेज तैयार किया जिसे सभी राज्यों में वितरित किया गया। इसमें निम्नलिखित शामिल था : (i) कृत्रिम पुनर्भरण के लिए उपयुक्त क्षेत्रों को चिन्हित करना, (ii) सतह के नीचे भंडारण क्षेत्र की उपलब्धता का आकलन करना, और (iii) कृत्रिम पुनर्भरण के लिए स्रोत जल के रूप में अतिरिक्त स्थानीय वार्षिक अपवाह की उपलब्धता का परिमाणन। लेकिन अब तक इस योजना को लागू करने से संबंधित कोई समीक्षा नहीं की गई। राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा किए गए अनुवर्तन की व्यापक समीक्षा की जानी चाहिए। योजना के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एक समयबद्ध रोडमैप तैयार किया जाना चाहिए।
- मनरेगा और भूजल प्रबंधन के बीच तालमेल : महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भूजल संरक्षण से संबंधित कार्यों के अनुकूल परिणाम हासिल करने हेतु उपाय किए जाने चाहिए। इस संबंध में एक विशेष निकाय के जरिए जल संसाधन, कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालयों के बीच समन्वय स्थापित करना सहायक होगा।
- जलाशयों की गणना और ट्यूब वेलों पर पानी के मीटर लगाना : देश में जलाशयों (तालाबों सहित) की इनवेंटरी बनाई जानी चाहिए जो एक निश्चित समयावधि में पूरी कर ली जाए। पर्याप्त बजटीय आवंटन के साथ जलाशयों के अनुरक्षण, रखरखाव और बहाली के लिए विशेष कार्यक्रमों को लागू किया जाना चाहिए। सिंचाई और पेयजल के लिए भूजल के अत्यधिक उपयोग को विनियमित करने के लिए ‘लाभार्थी मूल्य चुकाए’ (बेनेफिशियरी पेज) के सिद्धांत के आधार पर सभी ट्यूब वेलों पर पानी के मीटर लगाना अनिवार्य किया जाना चाहिए। इससे किसानों को दी जाने वाली सबसिडी में भी कटौती होगी।
- उद्योगों द्वारा भूजल का संदूषण : जल संसाधन मंत्रालय को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सहयोग से डार्क ब्लॉक्स में स्थित गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्रों को चिन्हित करने के लिए कारगर तंत्र को विकसित करना चाहिए। सतही जल और भूमिगत जलभृतों में औद्योगिक कचरे की डपिंग को कम करने और नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए।
- केंद्रीय भूजल प्राधिकरण द्वारा एनओसी का प्रवर्तन : केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने जिन उद्योगों को नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (एनओसी) जारी किए हैं, उनकी नियमित निगरानी के लिए एक व्यवस्था कायम की जानी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि एनओसी में दर्ज शर्तों का पालन किया जा रहा है। सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को वास्तविक वापसी के साथ आवश्यकताओं को सत्यापित करने के लिए उपयुक्त और प्रभावी निगरानी तंत्र गठित करना चाहिए।
[*] भेद्यता का अर्थ है, चट्टानों में पानी को गुजरने देने की क्षमता
[†] तटीय क्षेत्रों के जल स्रोतों या महासागरों में रिसाव होने को प्राकृतिक स्राव कहा जाता है। इसके अलावा, उन पौधों से निकलने वाले स्वेद को भी प्राकृतिक स्राव कहते हैं जिनकी जड़ें जल स्तर के नीचे तक पहुंच जाती हैं।
[‡] भूजल की विकेंद्रित उपलब्धता का अर्थ यह है कि 1882 के सुखभोग अधिनियम के अनुसार किसी जमीन के टुकड़े के मालिक (भूस्वामी) का अधिकार, जमीन के भीतर पाए जाने वाले जल पर होता है।
[§] भूअनुवांशिक संदूषण पृथ्वी के भूपटल के भीतर होने वाली भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं का परिणाम होता है।
[1] Deep Wells and Prudence: Towards Pragmatic Action for Addressing Ground water Overexploitation in India, The World Bank, March 2010, http://siteresources.worldbank.org/INDIAEXTN/Resources/295583-1268190137195/DeepWellsGroundWaterMarch2010.pdf.
[2] Water and Related Statistics, April 2015, Central Water Commission, http://www.cwc.gov.in/main/downloads/Water%20&%20Related%20Statistics%202015.pdf.
[3] Central Ground Water Board website, FAQs, http://www.cgwb.gov.in/faq.html.
[4] Ground Water Yearbook 2013-14, July 2014, Central Ground Water Board, http://www.cgwb.gov.in/documents/Ground%20Water%20Year%20Book%202013-14.pdf.
[5] Shaping the contours of ground water governance in India, Himanshu Kulkarni, Mihir Shah, P.S. Vijay Shankar, November 25, 2014, http://ac.els-cdn.com/S2214581814000469/1-s2.0-S2214581814000469-main.pdf?_tid=34057068-a499-11e5-90f3-00000aacb362&acdnat=1450341541_4c147174ec4f214578113853e69b8bb3.
[6] Annual Report 2013-14, Ministry of Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation, http://wrmin.nic.in/writereaddata/AR_2013-14.pdf.
[7] The Policy (T)angle, Thirsty Nation-Priorities for India’s Water Sector, Joseph P. Quinlan, Sumantra Sen and Kiran Nanda, Random House India 2014.
[8] Report of the Export Group on Ground Water Management and Ownership, Planning Commission, September 2007, http://planningcommission.nic.in/reports/genrep/rep_grndwat.pdf.
[9] Lok Sabha Unstarred Question No. 2157, Ministry of Water Resource, River Development and Ganga Rejuvenation, answered on March 10, 2015, http://164.100.47.132/LssNew/psearch/QResult16.aspx?qref=14305.
[10] 12th Five Year Plan, Planning Commission, 2013 http://planningcommission.gov.in/plans/planrel/fiveyr/12th/pdf/12fyp_vol1.pdf.
[11] Occurrence of High Arsenic Content in Ground Water, Committee on Estimates (2014-15), December 2014, http://wrmin.nic.in/writereaddata/16_Estimates_on_arsenic.pdf.
[12] Section 7 (g), Indian Easement Act, 1882.
[13] Statement of Objectives and Reasons, Draft Model Bill for the Conservation, Protection and Regulation of Groundwater, 2011, http://www.planningcommission.nic.in/aboutus/committee/wrkgrp12/wr/wg_model_bill.pdf.
[14] Water Rights and Principles of Water Resource Management, Chhatrapati Singh, N.M. Tripathi, 1991.
[15] The cases include Wasim Ahmed Khan v. Govt. of AP, 2002; Mukesh Sharma v. Allahabad Nagar Nigam & Ors., 2000, and others.
[16] Sixth Report of the Second Administrative Reforms Commission, Department of Administrative Reforms & Public Grievances, Ministry of Personnel, Public Grievances, and Pensions, Government of India, http://arc.gov.in/6-1.pdf.
[17] Lok Sabha Unstarred Question No. 1758, Ministry of Water Resource, River Development and Ganga Rejuvenation, answered on July 30, 2015, http://164.100.47.192/Loksabha/Questions/QResult15.aspx?qref=20846&lsno=16.
[18] Lok Sabha Unsatrred Question No. 716, Ministry of Water Resource, River Development and Ganga Rejuvenation, answered on December 3, 2015, http://164.100.47.192/Loksabha/Questions/QResult15.aspx?qref=24795&lsno=16.
[19] Report of the Working Group on Sustainable Ground Water Management, Planning Commission, October 2011, http://planningcommission.gov.in/aboutus/committee/wrkgrp12/wr/wg_susgm.pdf.
[20] Pilot Mapping of Aquifers in India, Central Ground Water Board, http://www.aquiferindia.org/About_AQUIM_Vision.aspx.
[21] Report of the High-Level Committee on Reorienting the Role and Restructuring of Food Corporation of India, January 2015, http://www.fci.gov.in/app/webroot/upload/News/Report%20of%20the%20High%20Level%20Committee%20on%20Reorienting%20the%20Role%20and%20Restructuring%20of%20FCI_English_1.pdf.
[22] Price Policy for Kharif Crops- the Marketing Season 2015-16, March 2015, Commission for Agricultural Costs and Prices, Department of Agriculture and Cooperation, Ministry of Agriculture, http://cacp.dacnet.nic.in/ViewReports.aspx?Input=2&PageId=39&KeyId=547.
[23] Draft National Water Framework Bill, 2013, Ministry of Water Resources, http://www.indiaenvironmentportal.org.in/files/file/Draft%20national%20framework%20bill,%202013.pdf
[24] Legal regime governing ground water, Sujith Koonan, Water Law for the Twenty-First Century-National and International Aspects of Water Law Reform in India, 2010.
[25] Performance Audit of Water Pollution in India, Comptroller and Auditor General of India, Report No. 21 of 2011-12, http://www.saiindia.gov.in/english/home/Our_Products/Noddy/Union/Report_21_12.pdf.
[26] Report of the Inter-Ministerial Group for ‘Arsenic Mitigation’, Ministry of Water Resources, River Development and Ganga Rejuvenation, Government of India, July 2015, http://wrmin.nic.in/writereaddata/IMG_Report_Arsenic_Mitigation.pdf.
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