स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट का सारांश
- कृषि संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (चेयर : हुकुम देव नारायण यादव) ने 9 अगस्त, 2017 को ‘देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भौगोलिक स्थितियों के आधार पर व्यापक कृषि अनुसंधान और जलवायु परिवर्तनों का प्रभाव’ पर अपनी रिपोर्ट सौंपी। कमिटी के मुख्य निष्कर्ष और सुझाव निम्नलिखित हैं:
- जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव : कमिटी ने टिप्पणी की कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और वर्षा, बाढ़ और सूखे की आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) में परिवर्तन शामिल है। इसके अतिरिक्त यह गौर किया गया कि जलवायु परिवर्तन से मुख्य फसलों की उपज प्रभावित होती है। इस संबंध में कमिटी ने कहा कि कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के कारण मौजूद चुनौतियों को हल करने की जरूरत है। परिणामस्वरूप यह सुझाव दिया जाता है कि जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवोन्मेष (नेशनल इनोवेशंस इन क्लाइमेट रेज़ीलिएंट एग्रीकल्चर) के अंतर्गत रिसर्च प्रॉजेक्ट्स के लिए आबंटन को बढ़ाया जाना चाहिए।
- खाद्य सुरक्षा : कमिटी ने टिप्पणी की कि भारत की जनसंख्या 2050 तक 1.65 बिलियन होने का अनुमान है, जिसमें 50% शहरी क्षेत्रों में बसी होगी। कमिटी के अनुसार, अनुमान है कि देश का खाद्यान्न उत्पादन वर्ष 2050 की मांग को पूरा करेगा। हालांकि अनाज (43%) और दालों (7%) के उत्पादन में कमी हो सकती है। इसके अतिरिक्त कमिटी ने यह गौर किया कि शहरीकरण और परिवारों की आय बढ़ने से फलों, सब्जियों, डेयरी उत्पादों इत्यादि की मांग बढ़ेगी।
- कमिटी ने कहा कि कृषि वैविध्यीकरण (डायवर्सिफिकेशन) और कृषि से संबंधित क्रियाकलापों (एलाइड एक्टिविटीज) के विकास की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त कमिटी ने सुझाव दिया कि निम्नलिखित क्षेत्रों में निवेश को बढ़ाया जाना चाहिए : (i) फसलों की किस्मों का विकास, (ii) उर्वरक, और (iii) सिंचाई की सुविधाएं। इसके अतिरिक्त कमिटी ने यह सुझाव दिया कि तिलहन और दालों का उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए।
- ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन (एमिशन): कमिटी ने टिप्पणी की कि कृषि क्षेत्र में धान की खेती ग्रीसहाउस गैसों का सबसे बड़ा स्रोत है। इन गैसों में मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन और कार्बन डाइऑक्साइड शामिल हैं। कमिटी ने टिप्पणी की कि इन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने से भारत को अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन समझौते की शर्तों को पूरा करने में मदद मिलेगी।
- फसलों का कचरा (रेज़िड्यू) : कमिटी ने टिप्पणी की कि हालांकि फसलों के कचरे को जलाने पर पाबंदी है, फिर भी यह पर्यावरण में प्रदूषकों के स्तर को निरंतर बढ़ा रहा है। देश में हर साल फसलों का 20% कचरा जलाया जाता है। कमिटी ने टिप्पणी की कि इस कचरे को प्रोसेस करने की बजाय जलाए जाने के निम्नलिखित कारण हैं: (i) खेतिहर मजदूरों की कमी, (ii) फसलों के बीच अंतराल का कम होना, और (iii) मशीनीकृत खेती। इस संबंध में कमिटी ने सुझाव दिया कि नई टेक्नोलॉजी की मदद से फसलों के कचरे का इको फ्रेंडली उपयोग किया जाना चाहिए।
- समुद्र के जल स्तर का बढ़ाना : कमिटी ने टिप्पणी की कि समुद्र के जल स्तर के बढ़ने के कारण जमीन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा डूब गया है। इसके अतिरिक्त कृषि भूमि और उसके साथ लगे मैन्ग्रोव के जंगल बंजर हो रहे हैं। इस संबंध में कमिटी ने गौर किया कि खेती की जमीन में समुद्र के पानी के घुसने से मिट्टी में खारापन आता है और ताजे पानी की जबरदस्त कमी होती है। कमिटी ने सुझाव दिया कि समुद्र के बढ़ते जल स्तर के प्राकृतिक अवरोध के रूप में मैन्ग्रोव के पौधे लगाए जाने की योजना तैयार की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त यह सुझाव भी दिया गया कि तटीय इलाकों के किसानों को बीज, उपयुक्त टेक्नोलॉजी प्रदान की जानी चाहिए और धान-मछली की खेती करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
- कृषि जलवायु वर्गीकरण : कमिटी ने गौर किया कि वर्तमान में फसलों के पैटर्न भौगोलिक और पारिस्थितिकी (इकोलॉजिकल) से जुड़े कारकों की बजाय न्यूनतम समर्थन मूल्य और उपभोक्ता पैटर्न्स जैसे कारकों से प्रभावित हैं। कमिटी ने टिप्पणी की कि इनके कारण किसान ऐसी फसलों को उगाने को मजबूर होते हैं जिनमें अधिक पानी की जरूरत होती है। कमिटी ने सुझाव दिया कि इसकी बजाय कृषि पारिस्थितिक क्षेत्रों के आधार पर कृषि रणनीतियां विकसित की जानी चाहिए। कमिटी ने गौर किया कि इस उद्देश्य के लिए निम्नलिखित के आधार पर 20 कृषि जलवायु क्षेत्रों और 60 कृषि जलवायु उप क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है : (i) जलवायु की स्थितियां, (ii) स्थानीय भौगोलिक मानदंड, (iii) भूमि का प्राकृतिक रूप, और (iv) मिट्टी का प्रकार और टेक्सचर।
- बीज की उपलब्धता : कमिटी ने कहा कि अच्छी क्वालिटी के बीजों की उपलब्धता कृषि की उच्च उत्पादकता को सुनिश्चित करती है। बुवाई किए गए कुल क्षेत्र के जितने भाग में सर्टिफाइड या अच्छी क्वालिटी के बीजों लगाए जाते हैं, उतने भाग को बीज प्रतिस्थापन अनुपात (सीड रिप्लेसमेंट रेशो) कहा जाता है। कमिटी ने कहा कि यह अनुपात विषम है क्योंकि किसानों द्वारा बोए जाने वाले 65% बीज उनके अपने होते हैं या एक दूसरे द्वारा बांटे गए होते हैं। कमिटी ने यह टिप्पणी भी की कि भारत में बीज उत्पादन में निजी कंपनियों की हिस्सेदारी 50-57% है। कमिटी ने कहा कि बीजों की अधिक उपज वाली किस्मों को विकसित किए जाने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त उसने सुझाव दिया कि इन बीजों के उत्पादन, खरीद और वितरण को केंद्रीकृत किया जाना चाहिए।
अस्वीकरणः प्रस्तुत रिपोर्ट आपके समक्ष सूचना प्रदान करने के लिए प्रस्तुत की गई है। पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च (पीआरएस) की स्वीकृति के साथ इस रिपोर्ट का पूर्ण रूपेण या आंशिक रूप से गैर व्यावसायिक उद्देश्य के लिए पुनःप्रयोग या पुनर्वितरण किया जा सकता है। रिपोर्ट में प्रस्तुत विचार के लिए अंततः लेखक या लेखिका उत्तरदायी हैं। यद्यपि पीआरएस विश्वसनीय और व्यापक सूचना का प्रयोग करने का हर संभव प्रयास करता है किंतु पीआरएस दावा नहीं करता कि प्रस्तुत रिपोर्ट की सामग्री सही या पूर्ण है। पीआरएस एक स्वतंत्र, अलाभकारी समूह है। रिपोर्ट को इसे प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के उद्देश्यों अथवा विचारों से निरपेक्ष होकर तैयार किया गया है। यह सारांश मूल रूप से अंग्रेजी में तैयार किया गया था। हिंदी रूपांतरण में किसी भी प्रकार की अस्पष्टता की स्थिति में अंग्रेजी के मूल सारांश से इसकी पुष्टि की जा सकती है।