स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट का सारांश
- वित्त संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (चेयर: डॉ. एम. वीरप्पा मोइली) ने 13 फरवरी, 2019 को ‘देश में क्रेडिट रेटिंग फ्रेमवर्क की मजबूती’ पर अपनी रिपोर्ट सौंपी। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी एक ऐसी संस्था होती है जो पब्लिक या राइट्स इश्यू के जरिए पेश की गई सिक्योरिटीज़ की रेटिंग करती हैं। कमिटी के मुख्य निष्कर्ष और सुझाव निम्न हैं:
- रेगुलेटरी फ्रेमवर्क: कमिटी ने कहा कि भारत में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां कभी सिर्फ सामान्य ऋण उत्पादों की रेटिंग करती थीं, लेकिन अब जटिल ऋण संरचनाओं की भी रेटिंग कर रही हैं। अब वे अनेक प्रकार के उत्पादों और सेवाओं की रेटिंग करती हैं, जैसे सिक्योरिटीज़, बैंक लोन्स, कमर्शियल पेपर्स और फिक्स्ड डिपॉजिट्स। भारत में सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) मुख्य रूप से क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और उनके कामकाज को रेगुलेट करता है। हालांकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई), इंश्योरेस रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी और पेंशन फंड रेगुलेटर एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी जैसी कुछ अन्य रेगुलेटरी एजेसियां भी अपने क्षेत्र में आने वाली क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के कुछ पहलुओं को रेगुलेट करती हैं।
- सेबी (क्रेडिट रेटिंग एजेंसीज़) रेगुलेशंस, 1999 डिस्क्लोज़र आधारित रेगुलेटरी रेजीम का प्रावधान करते हैं जिसके अंतर्गत एजेंसियों से यह अपेक्षा की जाती है कि हितों का टकराव होने पर वे अपने रेटिंग क्राइटीरिया, मेथोडोलॉजी, डीफॉल्ट रेकोग्निशन पॉलिसी और दिशानिर्देशों का खुलासा करेंगी। कमिटी ने कहा कि विश्व स्तर पर सेबी उन चंद रेगुलेटरों में से एक है जो एजेंसियों के लिए रेटिंग क्राइटीरिया और मेथोडोलॉजी का सार्वजनिक खुलासा करना अनिवार्य करती है।
- रेगुलेशंस में परिवर्तन: कमिटी ने कहा कि पूंजी बाजार, बैंकर और निवेशक किसी इंस्ट्रूमेंट या एंटिटी की रेटिंग पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं और इनके आधार पर वे अपने वित्तीय फैसले लेते हैं। भारतीय संदर्भ में क्रेडिट रेटिंग की विश्वसनीयता पर तब सवाल खड़ा हुआ, जब इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनांशियल सर्विसेज़ लिमिटेड (आईएलएंडएफएस) का संकट सामने आया। इस इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट और वित्तीय कंपनी पर 91,000 करोड़ रुपए का ऋण था। लेकिन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने कंपनी के बढ़ते ऋण को नजरंदाज किया और उसे एएए की रेटिंग देती रही, जोकि उसकी उच्च साख (क्रेडिटवर्थीनेस) का संकेत था। इस संबंध में कमिटी ने सुझाव दिया कि रेगुलेटरों (जैसे सेबी और आरबीआई) को अपने रेगुलेशंस की समीक्षा करनी चाहिए और अपने क्रेडिट रेटिंग फ्रेमवर्क की वस्तुनिष्ठता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए उनमें उपयुक्त संशोधन करने चाहिए।
- कमिटी ने यह भी कहा कि वित्त मंत्रालय को रेगुलेशंस को लागू करने के संबंध में संबंधित रेगुलेटरों से तथ्यात्मक रिपोर्ट की मांग करनी चाहिए। विशेष रूप से मंत्रालय को यह विश्लेषण करना चाहिए कि रेगुलेटरों ने उन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जिन्होंने डीफॉल्ट से पहले आईएलएंडएफएस को अच्छी रेटिंग दी थी। इसके अतिरिक्त उसने सुझाव दिया कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा किए गए खुलासों में कुछ महत्वपूर्ण कारक भी शामिल होने चाहिए, जैसे: (i) प्रमोटरों का कितना सहयोग है, (ii) सबसिडियरीज़ से उनका रिश्ता क्या है, और (iii) भविष्य में भुगतान करने की स्थिति में उनमें कितनी लिक्विडिटी है।
- इश्यूअर पेज़ मॉडल: वर्तमान में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां ‘इश्यूअर पेज़ मॉडल’ का पालन करती हैं, जिसके अंतर्गत वित्तीय इंस्ट्रूमेंट जारी करने वाली एंटिटी एजेंसी को सिक्योरिटीज़ की रेटिंग के लिए भुगतान करती है। हालांकि कमिटी ने कहा कि ऐसे भुगतान से ‘हितों का टकराव’ हो सकता है और एजेंसियों की विश्लेषण की क्वालिटी या रेटिंग की वस्तुनिष्ठता पर असर हो सकता है। इसलिए यह सुझाव दिया गया कि वित्त मंत्रालय या रेगुलेटर फायदे-नुकसान का आकलन करने के बाद दूसरे विकल्पों पर भी विचार कर सकते हैं, जैसे ‘इन्वेस्टर पेज़ मॉडल’ या ‘रेगुलेटर्स पेज़ मॉडल’। इसी प्रकार मौजूदा संरचना में ही सेबी आरबीआई और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों से सलाह-मशविरा करके इश्यूअर द्वारा चुकाई जाने वाली उपयुक्त रेटिंग फीस के संबंध में फैसला ले सकता है।
- क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का रोटेशन: मौजूदा संरचना में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के रोटेशन का कोई प्रावधान नहीं है। कमिटी ने सुझाव दिया कि रेटिंग एजेंसियों के रोटेशन का विकल्प तलाशा जाना चाहिए। इससे इश्यूअर और क्रेडिट रेटिंग एजेंसी के बीच लंबी अवधि के संबंधों के नकारात्मक परिणामों से बचा जा सकेगा। हाल में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां अपने क्लाइंट्स के जोखिमों को पहचानने में जिस प्रकार असफल रही हैं, उसके मद्देनजर यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त मंत्रालय यह प्रावधान कर सकता है कि रेटिंग का कार्य अनिवार्य रूप से एक से अधिक एजेंसियों द्वारा किया जाए, विशेष रूप से 100 करोड़ रुपए से अधिक के ऋण उत्पादों या बैंक ऋण की स्थिति में।
- वर्तमान में देश में सिर्फ सात क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां हैं। इस प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिए कमिटी ने सुझाव दिया कि इन एजेंसियों के पंजीकरण की मौजूदा सीमा को उचित तरीके से कम किया जाए ताकि अधिक से अधिक एंटिटीज़ को बढ़ावा मिले, विशेष रूप से अपेक्षित क्षमता एवं विशेषज्ञता वाले स्टार्ट-अप्स को।
- आईएलएंडएफएस: कमिटी ने कहा कि केंद्र सरकार ने आईएलएंडएफएस के संकट में हस्तक्षेप किया और बोर्ड (यह मुद्दा राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल के अंतर्गत है) का पुनर्गठन किया। हालांकि कमिटी ने इस संकट में जांच आयोग का सुझाव दिया जो (i) अधिक रेटिंग देने वाली क्रेडिट रेटिंग एजेंसी, और (ii) आईएलएंडएफएस में सबसे बड़े शेयरधारक भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) की भूमिका की समीक्षा करे।
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