1995 से विश्व में जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों की व्यावसायिक खेती की जा रही है। इस ब्रीफ में जीएम फसलों की पृष्ठभूमि और उत्पादन की तकनीकों, उनके संभावित लाभों और संबंधित समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है। |
सारांश
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पृष्ठभूमि
सभी जीवित जीवों-पौधों, पशुओं, मनुष्यों और बैक्टीरिया में डीएनए (डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड) होता है। डीएनए में जीव के विकास, उसके जीवित रहने और प्रजनन जैसे कार्यों के लिए निर्देश होते हैं। जीन, उस डीएनए का एक खंड होता है जिससे गुण निर्धारित होते हैं जैसे माता-पिता से विरासत में मिलने वाली विशेषताएं या लक्षण। ऐसे जेनेटिक गुणों में से एक उदाहरण है, किसी व्यक्ति के बाल सीधे या घुंघराले होना। यौन प्रजनन करने वाले जीवों में प्रत्येक जीन की दो कॉपी होती हैं जो माता-पिता, दोनों से विरासत में मिलती हैं। किसी जीव में डीएनए का पूरा सेट जीनोम कहलाता है, जैसे मानव जीनोम में लगभग 20,000 जीन्स होते हैं।[1],[2]
परंपरागत जनन (ब्रीडिंग): पौधों और पशुओं में विशिष्ट गुणों को चुनने के लिए हजारों वर्षों से परंपरागत या प्राकृतिक जनन का इस्तेमाल किया जाता रहा है। शुरुआत में इस प्रकार का प्रजनन, जेनेटिक्स की जानकारी के बिना ही किया जाता था। उदाहरण के लिए विशिष्ट गुणों के लिए कुत्तों की नस्लों का प्रजनन किया जाता था, यानी ग्रेहाउंड नस्ल के कुत्तों (तेज धावक) का प्रजनन इसलिए किया जाता था, ताकि वे शिकार करने में मनुष्यों की मदद कर सकें; ठंडे इलाकों में बारहसिंगों के झुंडों को हांकने और स्लेज खींचने के लिए साइबेरियन हस्की नस्ल के कुत्तों (जिनके शरीर पर मोटा फर होता है) का प्रजनन किया जाता था। बच्चे माता-पिता, दोनों से जीन्स विरासत में लेते हैं, जिनमें मनचाहे गुण होते हैं। जेनेटिक बदलाव कई पीढ़ियों में होते हैं, और नस्लों को मनचाहे गुण मिलते हैं। एक तरह से मनचाहे गुणों को चुनते समय, हम जीन्स का एक सेट चुनते हैं।
प्रयोगशाला आधारित परंपरागत जनन पद्धतियां: जेनेटिक्स में प्रगति के साथ, परंपरागत जनन में कुछ प्रयोगशाला आधारित पद्धतियां भी शामिल हैं, जैसे मार्कर-असिस्टेड सिलेक्शन। इसमें मार्कर्स को मनचाहे गुणों के साथ जुड़े जीन्स से लिंक किया जाता है। इस तकनीक से कम समय में मनचाहे गुणों को हासिल किया जा सकता है और गुणों का सटीक चयन होता है। दूसरी तकनीक म्यूटेशन ब्रीडिंग की है। यह 1920 से पौधों के जनन में इस्तेमाल की जा रही है। म्यूटेशन का अर्थ है, जीन्स में बदलाव या भिन्नताएं (डीएनए सीक्वेंसेज़)। म्यूटेशन सभी जीवों में होते हैं, लेकिन निम्न स्तर पर। म्यूटेशन ब्रीडिंग में बीजों को रेडिएशन (एक्सरे, गामा रे) और रसायनों के संपर्क में लाया जाता है ताकि मनचाहे गुणों को हासिल करने के लिए म्यूटेशन की दर को बढ़ाया जा सके। 1970 के दशक में युनाइटेड स्टेट्स (यूएस) के किसान चाहते थे कि अंगूरों का रंग गहरे लाल का हो जाए और उनका स्वाद मीठा हो जाए। वैज्ञानिकों ने म्यूटेशन ब्रीडिंग तकनीक का इस्तेमाल करके, अंगूरों में ये गुण डाल दिए और अब यूएस के टेक्सास में उगाए जाने वाले अधिकतर अंगूर इन्हीं किस्मों के हैं।[3]
जेनेटिक मॉडिफिकेशन (जीएम): आधुनिक बायोटेक्नोलॉजिकल तकनीक प्रत्यक्ष रूप से किसी भी जीव के जीन में हेरफेर कर सकती हैं। किसी जीव में उसी या किसी दूसरी (विदेशी) प्रजातियों के जीन को डालकर, उसके डीएनए में बदलाव किया जा सकता है। इस नए जीन को जीव के जीनोम में डाल दिया जाता है लेकिन डीएनए में उसका स्थान मालूम नहीं होता। इस तकनीक को जेनेटिक इंजीनियरिंग, और अक्सर जेनेटिक मॉडिफिकेशन (जीएम) कहा जाता है। इसका उद्देश्य पारंपरिक जनन के समान है, यानी मानचाहे गुण प्राप्त करना।
जेनेटिक मॉडिफिकेशन करने का एक तरीका यह है कि बायोलिस्टिक गन का इस्तेमाल किया जाता है (जिसे जीन गन भी कहा जाता है)। भारी धातु के कणों, जिन पर जीन की परत चढ़ी होती है, को मैकेनिकल फोर्स के साथ कोशिकाओं में दागा जाता है और वे कोशिकाओं में एकीकृत हो जाते हैं। दूसरे तरीके में बैक्टीरिया या वायरस (जिनमें जीन शामिल होते हैं) को इस्तेमाल करके, नियत कोशिकाओं को संक्रमित किया जाता है। इन दोनों तकनीकों में जीन को बेतरतीबी से नियत डीएनए में डाला जाता है, यानी उसका स्थान निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता।
हाल ही में एक नई तकनीक का आविष्कार किया गया है जिसे जीन एडिटिंग कहा जाता है। यह जेनेटिक मॉडिफिकेशन का अधिक सटीक रूप है (देखें रेखाचित्र 1)। इसमें अक्सर CRISPR (क्रिस्पर) तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है।[4] यह तकनीक जीव के डीएनए में एक विशेष स्थान पर विशिष्ट जीन के एक छोटे से खंड में बदलाव कर सकती है। इस तकनीक से जीन-एडिटेड टमाटर और जीन-एडिटेड सोयाबीन तेल बनाए गए हैं। जीन-एडिटेड टमाटर से ब्लड प्रेशर कम करने में मदद मिलती है, और जीन-एडिटेड सोयाबीन तेल अधिक पौष्टिक होता है।[5],[6]
रेखाचित्र 1: जीन एडिटिंग
संक्षेप में कहें तो पारंपरिक जनन में कई पीढ़ियों से गुणों को चुना जाता है, जबकि जीएम तकनीक उन गुणों को प्राप्त करने के लिए सीधे जीन में हेरफेर करती है।
जीएम तकनीक के लाभ: परंपरागत जनन के मुकाबले जीएम तकनीक के दो मुख्य लाभ होते हैं। पहला, इससे जीन में कुछ गुणों को जल्द डाला जा सकता है, क्योंकि परंपरागत जनन के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी चयन करने की जरूरत पड़ती है। दूसरा, इससे जेनेटिक मेकअप में बदलाव किया जा सकता है, जोकि परंपरागत तरीकों से संभव नहीं, जैसे किसी दूसरे जीव से जीन को डालना।
कृषि पौधों में जीएम तकनीकों को इस्तेमाल करने से निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं: (i) उपज में बढ़ोतरी, (ii) उपज सुरक्षा का बढ़ना, यानी कीटों और बीमारियों से प्रतिरक्षा, (iii) खाद्य पदार्थों की लागत में कमी, (iv) पर्यावरणीय दृष्टि से नुकसानदेह कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी, (v) पोषण का बढ़ना, और (vi) सूखे को सहने की ताकत, इस प्रकार भूजल का कम इस्तेमाल।[7]
पौधों में विदेशी जीवों के जीन को डालने के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं।
बीटी-कपास: बैक्टीरियम बैसिलस थुरिंजिनिसिस (Bacillus thuringiensis) (बीटी) बीटी टॉक्सिन को उत्पादित करता है जो कुछ कीटों को मारने में मदद करता है, लेकिन यह मनुष्यों या अन्य पशुओं के लिए नुकसानदेह नहीं है। कीटों को मारने के लिए कपास में बीटी-टॉक्सिन जीन्स को डाला गया था, अगर कीट पौधे को खाते हैं।7
बॉक्स 1: जीएम सरसों (डीएचएम-11) सरसों में जीएम तकनीक का उद्देश्य उपज में सुधार करना है। इसके लिए सरसों की भारतीय किस्म (वरुणा) को यूरोपीय लाइन अर्ली हीरा (ईएच)-2 के साथ क्रॉस किया गया। परंपरागत जनन के जरिए ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि सरसों का स्वतः परागण (सेल्फ पोलनाइजेशन) होता है, यानी नर भाग का पराग उसी पौधे के मादा भाग का परागण करता है, और उसे निषेचित (फर्टिलाइज) करता है। इसलिए यह मुश्किल होता है कि पौधे की एक किस्म को दूसरी किस्म से क्रॉस किया जाए। इस समस्या को हल करने के लिए वरुणा पौधे में जीन बार्नेज़ (barnase) को डाला जाता है जिससे इसका नर भाग बंजर (स्टेराइल) हो जाता है (यानी पराग नहीं बनता)।[8],[9] इसे अब ईएच-2 के साथ क्रॉस किया जा सकता है। हालांकि उसके बीज से उगने वाले पौधे का नर भाग बंजर होगा और वह स्वतः परागण के जरिए बीज पैदा नहीं कर सकता। इसीलिए दूसरे जीन बारस्टर (barstar) जोकि नर उर्वरता को बरकरार रखता है, को क्रॉसिंग से पहले ईएच-2 में डाला जाता है। इस प्रकार नई बार्नेज़-बारस्टर किस्म स्वतः परागण करती है और सरसों का बीज पैदा होता है जोकि मनचाही फसल है। चूंकि जीन को जोड़ने की प्रक्रिया संभाव्य, यानी प्रॉबेबलिस्टिक है (सिर्फ कुछ ही नियत पौधों में जीन को जोड़ा जाता है), इसलिए दूसरी हर्बिसाइड-टॉरलेंट जीन बार को बार्नेज़ और बारस्टर के साथ मिलाया गया। उगने वाले पौधों पर फिर हर्बिसाइड छिड़का जाता है और सिर्फ वही पौधे जीवित रहते हैं जिनमें बार जीन (और इस प्रकार बार्नेज़ और बारस्टार के साथ वाले) होता है। इसलिए बीजों में बार-बार्नेज़-बारस्टार जीन होंगे। इस बीज को धारा सरसों हाइब्रिड (डीएमएच)-11 नाम दिया गया है। |
फ्लेवर सेवर टमाटर: आर्कटिक फिश की एंटी-फ्रीजिंग विशेषताओं को टमाटर में डाला गया ताकि टमाटर की शेल्फ लाइफ को बढ़ाया जा सके।[10]
पौधों में सामान्य जीएम गुण
जीएम तकनीक का इस्तेमाल इसलिए किया गया ताकि फसल उत्पादन को बढ़ाया जा सके। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
हर्बिसाइड टॉरलेंस (एचटी): खरपतवार को मारने के लिए हर्बिसाइड्स को छिड़कने से फसल को भी नुकसान हो सकता है। जीएम फसलों को ऐसे तैयार किया जाता है कि उनमें खास हर्बिसाइड्स के खिलाफ प्रतिरक्षा क्षमता होती है जिन्हें खरपतवार के प्रबंधन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। एचटी फसलों से मिट्टी का कटाव कम होता है, क्योंकि खतपतवार को हटाने के लिए जुताई की जरूरत होती है, और जुताई से मिट्टी का कटाव होता है। इन्हें ऐसे खेतों में भी लगाया जा सकता है, जो खरपतवार से भरे हैं। एचटी फसलों में मक्का, कपास और सोयाबीन शामिल हैं।
कीट प्रतिरोधी: फसलों को इंसेक्टिसाइडल प्रोटीन के साथ तैयार किया जाता है। ये प्रोटीन सिर्फ कुछ कीटों के लिए नुकसानदेह होते हैं जो फसलों को खाते हैं। इससे रसायनों के छिड़काव की जरूरत नहीं रहती। बीटी-फसलों (कपास और मक्का) में कीट प्रतिरोधी गुण होते हैं।
वायरस प्रतिरोधी: वायरस प्रतिरोधी गुण उन अति संवेदनशील पौधों में डाले गए जिनमें प्राकृतिक रूप से प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती। 1990 के दशक में हवाई में पपीते में रिंगस्पॉट वायरस पर काबू पाने के लिए जीएम पपीते को बनाया गया।7
हर्बिसाइड टॉरलेंस और कीट प्रतिरोधी क्षमता जैसे गुणों को एक साथ जोड़ा भी जा सकता है, यानी फसलों में एक साथ कई गुण हो सकते हैं (यानी एचटी-बीटी कपास)। दूसरे जीएम गुणों में कलात्मक परिवर्तन (जैसे आर्कटिक सेबों का भूरा न होना) और पौष्टिक गुणवत्ता बढ़ाना (विटामिन ए से भरपूर फसलें, जैसे गोल्डन राइस) शामिल हैं।
बॉक्स 2: विश्व में जीएम तकनीकों के रेगुलेशन के प्रस्ताव जैव सुरक्षा पर युनाइटेड नेशंस कार्टाजेना प्रोटोकॉल (2000): हस्ताक्षरकर्ता देश जीवित (जेनेटिकली) मॉडिफाइड जीवों के आयात के कारण मानव स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान और जैविक विविधता पर संभावित प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए फैसला ले सकते हैं।[11],[12] यूएसए: अगर नई किस्म, जिसे जीन-एडिटिंग तकनीक के जरिए बनाया गया है, को परंपरागत तरीके से उगाया जाता है तो इसके लिए रेगुलेटरी मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है (यह सिर्फ एक मॉडिफिकेशन के लिए वैध है)।[13],[14] रेगुलेटरी मंजूरी उपयोग की जाने वाली तकनीक से ज्यादा गुणों पर केंद्रित है। यूरोपीय संघ: नए जीएम उत्पादों के साथ जुड़े जोखिमों का मूल्यांकन प्रक्रिया-आधारित है, यानी यह इस पर निर्भर करता है कि उन्हें जीएम तकनीक का इस्तेमाल करके विकसित किया गया है या नहीं।[15] जीन-एडिटेड फसलों को भी जीएम फसलों के तौर पर रेगुलेट किया जाता है। कनाडा: सभी नई विकसित फसलों, चाहे जीएम हो या परंपरागत रूप से उगाई गई, को उसी जोखिम आकलन से गुजरना होता है। ब्राजील: गैर-जीएम के तौर पर किसी उत्पाद का वर्गीकरण निम्नलिखित पर आधारित है: (i) विदेशी जीन का अभाव, (ii) इंड्यूस्ड म्यूटेशंस की मौजूदगी जिन्हें प्रयोगशाला आधारित परंपरागत जनन तकनीक या क्रॉसिंग के जरिए हासिल किया जा सकता है, (iii) स्वाभाविक रूप से होने वाले म्यूटेशंस की मौजूदगी।[16] अर्जेंटीना: जीएम उत्पादों से संबंधित रेगुलेशंस के मुख्य मानदंड निम्नलिखित हैं: (i) प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाली तकनीक/विधियां, (ii) अंतिम उत्पाद में विदेशी जीन का अभाव, और (iii) पौधे के जीनोम में जीन्स/डीएनए सीक्वेंस (सीक्वेंसेज़) के नए कॉम्बिनेशंस की मौजूदगी।16 जीन-एडिटिंग को गैर-जीएम तकनीक माना जाता है और उसके लिए अलग रेगुलेशन है।[17] |
विश्व और भारत में जीएम फसलें
1994 में यूएसए में फ्लेवर सेवर टमाटर को मंजूरी देने के साथ जीएम फसलों की शुरुआत हुई।8 2018 में 26 देशों में लगभग 474 मिलियन एकड़ भूमि (विश्व की 14% कृषि योग्य भूमि) पर जीएम फसलें उगाई जा रही थीं।[18],[19] प्रमुख जीएम फसलें थीं, सोयाबीन (जीएम फसलों के लिए बोई गई भूमि का 50%), मक्का (31%), कपास (13%) और कनोला या ऑयलसीड रैप (5%)।[20] यानी ये आंकड़े विश्व स्तर पर सोयाबीन उत्पादन का 78%, कपास का 76% और मक्का और कैनोला प्रत्येक का 30% दर्शाते हैं। जितने क्षेत्रफल में जीएम फसलें उगाई जाती हैं, उसका 91% हिस्सा यूएसए, ब्राजील, अर्जेंटीना, कनाडा और भारत है। यूरोपीय संघ सिर्फ जीएम मक्का उगाता है (मुख्य रूप से स्पेन और पुर्तगाल में)।
रेखाचित्र 2: देशों के अनुसार जीएम फसलों का वैश्विक क्षेत्र (मिलियन हेक्टेयर में), 2018
स्रोत: इंटरनेशनल सर्विस फॉर द एक्विजिशन ऑफ एग्री-बायोटेक एप्लिकेशंस (आईएसएएए); पीआरएस।
बॉक्स 3: भारत में रेगुलेटरी फ्रेमवर्क पर्यावरण संरक्षण एक्ट, 1986: जीएम फसलों का रेगुलेशन ‘खतरनाक सूक्ष्म जीव जेनेटिकली इंजीनियर्ड जीवों या कोशिकाओं का निर्माण, उपयोग, आयात, निर्यात और स्टोरेज नियम, 1989’ के जरिए किया जाता है।[21] जेनेटिक मैन्यूपुलेशन पर समीक्षा समिति (आरसीजीएम): बायोटेक्नोलॉजी विभाग (DBT) के तहत यह समिति जीएम जीवों से संबंधित आरएंडडी प्रॉजेक्ट्स के विभिन्न पहलुओं का निरीक्षण करती है।[22] जेनेटिक इंजीनियरिंग पर मूल्यांकन समिति (जीईएसी): पर्यावरण मंत्रालय के तहत यह समिति पर्यावरण में जीएम जीवों और उत्पादों के जारी होने से संबंधित प्रस्तावों का मूल्यांकन करने के लिए जिम्मेदार है।[23] जीईएसी सेफ्टी एनालिसिस टेस्ट्स: मॉलिक्यूलर कैरेक्टराइजेशन (इनसर्टेड जीन्स का अध्ययन), खाद्य सुरक्षा संबंधी अध्ययन (प्रोटीन एनालिसिस, टॉक्सिसिटी और एलर्जीनिसिटी टेस्ट्स) और पर्यावरणीय सुरक्षा संबंधी अध्ययन (फील्ड ट्रायल्स, बायोसेफ्टी रिसर्च लेवल ट्रायल्स, मिट्टी पर असर, पराग प्रवाह संबंधी अध्ययन)।[24],[25],[26] पर्यावरण मंत्रालय जीईएसी के सुझावों पर विचार करता है जोकि जीएम जीवों और उत्पादों की अंतिम मंजूरी पर फैसला करता है। भारत में जीन-एडिटेड फसलों को जैव सुरक्षा आकलन से छूट दी जाती है, और उन्हें नई किस्मों के तौर पर जारी किया जाता है।[27],[28] |
भारत में जीएम फसलें
बीटी-कपास: बीटी-कपास व्यावसायिक खेती के लिए अनुमोदित अकेली जीएम फसल है (2002)। इसे बुलवॉर्म के व्यापक संक्रमण के बचाने के लिए तैयार किया गया था। 2018-19 में भारत में उगाई जाने वाली कुल कपास में बीटी-कपास का हिस्सा 95% था।18
बीटी-बैंगन: 2009 में जीईएसी ने बीटी-बैंगन को व्यावसायिक खेती के लिए मंजूरी दी, लेकिन जन आक्रोश और बैंगन उगाने वाले राज्यों के सुझावों के बाद इस फैसले पर 10 वर्षों के लिए रोक लगा दी गई।[29],[30] हाल ही में जीईएसी ने 2022-23 के दौरान आठ राज्यों में बीटी-बैंगन की नई स्वदेशी किस्मों के फील्ड ट्रायल्स की अनुमति दी है। ट्रायल्स के लिए संबंधित राज्यों की तरफ से नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (एनओसी) और कृषि भूमि के अलग-अलग हिस्सों की उपलब्धता की पुष्टि की जरूरत होती है।30
जीएम सरसों: अक्टूबर 2022 में जीईएसी ने जीएम सरसों (धारा सरसों हाइब्रिड/डीएमएच-111) और उसकी पेरेंटल फसलों (भारतीय और पूर्वी यूरोपीय लाइन्स) को पर्यावरणीय स्तर पर जारी करने की मंजूरी दी।9,10,[31],[32] मुख्य उद्देश्य अपने पेरेंटल लाइन्स और अन्य उपलब्ध सरसों की किस्मों की तुलना में अधिक उपज प्राप्त करना था (देखें बॉक्स 1)। यह भारत की पहली खाद्य जीएम फसल है और 2008-2016 के दौरान इस पर जीईएसी की रेगुलेटरी टेस्टिंग की गई है।
जीएम सरसों को व्यावसायिक खेती के लिए अब तक जारी नहीं किया गया है। इसे सिर्फ चार वर्षों के लिए पर्यावरणीय मंजूरी दी गई है। इस दौरान जीएम सरसों पर कई तरह के टेस्ट किए जाएंगे, (यानी वतर्मान में मौजूद गैर-जीएम किस्मों के साथ प्रदर्शन की तुलना, मधुमक्खियों और परागणकर्ताओएं (पॉलिनेटर्स) पर असर)।31 जीएम सरसों को पर्यावरणीय स्तर पर जारी करने को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।[33]
जीएम फसलों को लेकर चिंताएं
जीएम फसलों को अनुमति देने के साथ यह सुनिश्चित करना जरूरी हो सकता है कि कोई प्रतिकूल नतीजे न निकलें। इससे जुड़ी कुछ बड़ी समस्याओं में एक यह है कि इसका मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण एवं जैवविविधता पर क्या असर पड़ता है। लेकिन पर्यावरणीय प्रभावों के दीर्घकालीन आकलन से जुड़ी जटिलताओं के कारण निश्चित निष्कर्षों पर पहुंचना मुश्किल हो सकता है।[34]
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
बाजार में जीएम फसलों से उत्पादित किसी भी खाद्य पदार्थ को मंजूरी देने से पहले कई सेफ्टी टेस्ट पूरे किए जाने चाहिए। दशकों के आंकड़ों और अध्ययनों के आधार पर वैज्ञानिक समुदाय इस बात से सहमत है कि मौजूदा उपलब्ध जीएम फसलें, गैर-जीएम फसलों की तरह उपभोग के लिए सुरक्षित हैं।7,34,[35],[36],[37],[38]
मानव स्वास्थ्य पर जीएम गुण के संभावित प्रतिकूल प्रभाव का एक उदाहरण ऑस्ट्रेलिया में देखने को मिला। बीन्स के टॉक्सिन्स को फील्ड मटर (पी) के खेतों में डाला गया जिससे उन कीटों को मारा जा सके जो लगभग 30% उपज को नष्ट कर देते थे।[39] पशुओं पर फील्ड ट्रायल्स से नेगेटिव नतीजों के संकेत मिले और जीएम फील्ड पी पर रोक लगा दी गई। इसलिए एक मजबूत रेगुलेटरी ढांचे की जरूरत महत्वपूर्ण हो जाती है।
हर्बिसाइड-टॉलरेंट और कीट प्रतिरोधक क्षमता वाली फसलों का प्रभाव
हर्बिसाइड-टॉलरेंट जीएम या गैर-जीएम फसलों वाले खेतों में हर्बिसाइड्स का बहुत ज्यादा उपयोग करने से खरपतवारों में उनके लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। ग्लाइफोसेट को 1974 से यूएसए में हर्बिसाइड के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है और उसके व्यापक इस्तेमाल से ग्लाइफोसेट-प्रतिरोधी खतपतवार पैदा हो गए है।
हाल ही में प्रयोगशालाओं के प्रयोगों से पता चला कि पिगवीड (पल्मर एमरेंथ) (Palmer amaranth) में छह अलग-अलग हर्बिसाइड्स के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई (लेकिन तब नहीं, जब वे एक साथ डाले गए)।[40] एचटी वीड का एक अन्य उदाहरण ऑस्ट्रेलिया में राइग्रास है।[41] एचटी वीड्स की बेकाबू वृद्धि से समूची उपज घट सकती है।
यह मुद्दा जीएम सरसों के संबंध में भी उठाया गया है, चूंकि इसके बीज के विकास की प्रक्रिया में हर्बिसाइड-टॉलरेंट जीन (बार) को डाला जाता है। जीईएसी ने हाइब्रिड बीज उत्पादन के चरण में हर्बिसाइड के इस्तेमाल को मंजूरी दी है, फसल के लिए नहीं।33 हालांकि जोखिम कायम रहेगा, अगर किसान हर्बिसाइड्स का इस्तेमाल करते हैं। बार्नेज़-बारस्टर सिस्टम को इस समय कनाडा (1995), यूएसए (2001), जापान (2001) और ऑस्ट्रेलिया (2002) में एचटी कनोला (सरसों की सिस्टर फसल) की व्यावसायिक खेती के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।[42],[43],[44],[45] हर्बिसाइड-टॉलरेंट बार जीन के जैव सुरक्षा आकलन पर किए गए कुछ अध्ययनों में संकेत मिला है कि यह मानव उपभोग और पशुओं के चारे के लिए सुरक्षित है और पर्यावरण के लिए कोई बड़ा जोखिम नहीं पैदा करता।[46],[47],[48]
मानव स्वास्थ्य पर हर्बिसाइड के प्रयोग का प्रभाव
2015 में डब्ल्यूएचओ (WHO)- इंटरनेशनल एजेंसी ऑन द रिसर्च फॉर कैंसर ने कहा था कि ग्लाइफोसेट से मनुष्यों में कैंसर की आशंका होती है।[49] हालांकि एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (यूएसए) और यूरोपीय खाद्य सुरक्षा एजेंसी ने कहा कि ग्लाइफोसेट एक्सपोज़र से कैंसर नहीं होता।[50],[51] कुछ अध्ययनों में सुझाव दिया गया है कि ग्लाइफोसेट-आधारित हर्बिसाइड्स को जैव सुरक्षा आकलन के दौरान एनहांस्ड टॉक्सिलॉजिकल टेस्ट्स और वैज्ञानिक जांच के अधीन किया जाना चाहिए।[52] अक्टूबर 2022 से भारत में पेस्ट कंट्रोलर ऑपरेटरों को छोड़कर ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल पर पाबंदी है।[53],[54]
मिट्टी पर प्रभाव
अधिकतर हर्बिसाइड्स मिट्टी में जल्द नष्ट हो जाते हैं लेकिन नष्ट होने की दर मिट्टी के तापमान और नमी के स्तर पर निर्भर करती है।[55] मिट्टी पर असर कम से कम हो, इसके लिए हर्बिसाइड्स को डालने का समय और सुझाई गई सीमा में खुराक की मात्रा महत्वपूर्ण होती है।[56] हालांकि कुछ अध्ययनों में मिट्टी पर हर्बिसाइड्स के अनुचित प्रभावों के बारे में पता चला है।[57],[58]
कीट प्रतिरोधी क्षमता का प्रभाव
खरपतवार और हर्बिसाइड्स की ही तरह, कीटों में कीट-प्रतिरोधी गुणों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सकती है जैसे जीएम फसलों द्वारा उत्पादित बीटी टॉक्सिन्स।
फसलों की किस्मों में जेनेटिक विविधता पर प्रभाव
इस बारे में भी चिंता जताई गई है कि जीएम फसलें आस-पास की फसलों, निकट संबंधियों और खरपतवार की जेनेटिक विविधता को कम कर सकती हैं।7,[59] नए वातावरण के अनुकूल होने और बीमारियों से प्रजातियों की सुरक्षा के लिए जेनेटिक विविधता महत्वपूर्ण है।
जीएम फसलें, उसी फसल की गैर-जीएम किस्मों और दूसरे जंगली संबंधियों के साथ क्रॉसब्रीड कर सकती हैं (आस-पास के पौधों के साथ भौतिक संपर्क, कीड़ों या हवा से पराग का स्थानांतरण)। ऐसी क्रॉसब्रीडिंग समस्या पैदा कर सकती है, अगर नतीजे के तौर पर जंगली संबंधी फसल अवांछित विशेषताएं हासिल कर ले (वीडिनेस, इनवेज़िवनेस)।7 इसके अलावा खरपतवार एचटी फसलों के साथ क्रॉस ब्रीड कर सकते हैं और इसके परिणामस्वरूप हर्बिसाइड-टॉलरेंट खरपतवार निकल सकते हैं।
मधुमक्खियों और दूसरे पॉलिनेटर्स पर प्रभाव
इस बात की चिंता जताई गई है कि जीएम फसलें मधुमक्खियों की आबादी और दूसरे पॉलिनेटर्स के लिए संभावित जोखिम पैदा कर सकती हैं।[60] कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों में कहा गया कि जीएम कनोला और बीटी फसलों का मधुमक्खियों की आबादी पर कोई प्रत्यक्ष नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।[61],[62],[63] हालांकि एचटी फसलों के कारण हर्बिसाइड्स का अत्यधिक इस्तेमाल हो सकता है जिसके कारण उस इलाके के खरपतवार की आबादी पर अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ सकता है और पराग या फूलों के मधु की उपलब्धता कम हो सकती है।60,63 उदाहरण के लिए कुछ अध्ययनों में इस बात का संकेत मिला है कि एचटी फसलों का यूएसए की मोनार्क तितलियों की आबादी पर नेगेटिव असर हुआ है; लेकिन दूसरे अध्ययन इन निष्कर्षों का विरोध करते हैं और इस विषय पर वैज्ञानिक एकमत नहीं है।34,57,[64]
[1] Willyard, C. (2018). Expanded human gene tally reignites debate. Nature, 558(7710), 354-355, https://www.nature.com/articles/d41586-018-05462-w.
[2] Salzberg, S.L. Open questions: How many genes do we have?. BMC Biol 16, 94 (2018), https://doi.org/10.1186/s12915-018-0564-x.
[3] “Delicious Mutant Foods: Mutagenesis and the Genetic Modification Controversy,” Genetic Literacy Project (GLP), June 13, 2016, https://geneticliteracyproject.org/2016/06/13/pasta-ruby-grapefruits-why-organic-devotees-love-foods-mutated-by-radiation-and-chemicals.
[4] The Nobel Prize, Popular Science Background: The Nobel Prize in Chemistry 2020, October 7, 2020, https://www.nobelprize.org/uploads/2020/10/popular-chemistryprize2020.pdf.
[5] ‘GABA-enriched tomato is first CRISPR-edited food to enter market’, Nature, December 14, 2021, https://www.nature.com/articles/d41587-021-00026-2.
[6] ‘First Commercial Sale of Calyxt High Oleic Soybean Oil on the U.S. Market’, Calyxt, February 26, 2019, https://calyxt.com/first-commercial-sale-of-calyxt-high-oleic-soybean-oil-on-the-u-s-market/.
[7] Genetically Modified (GM) Plants: Questions and Answers, The Royal Society, London, 2016, https://royalsociety.org/~/media/policy/projects/gm-plants/gm-plant-q-and-a.pdf.
[8] Mehra, S., Pareek, A., Bandyopadhyay, P., Sharma, P., Burma, P. K., & Pental, D. (2000). Development of transgenics in Indian oilseed mustard (Brassica juncea) resistant to herbicide phosphinothricin. Current Science, 78(11), 1358–1364, http://repository.ias.ac.in/36413/1/36413.pdf.
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[20] Table 31, Page 74, ISAAA, Global Status of Commercialised Biotech/GM Crops, Brief No. 54, 2018, https://www.isaaa.org/resources/publications/briefs/54/download/isaaa-brief-54-2018.pdf.
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[32] “Secretary, DARE and DG, ICAR Dr Himanshu Pathak today issued a detailed statement on various issues of GM mustard”, Press Information Bureau, Ministry of Agriculture & Farmers Welfare, December 23, 2022, https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1886080
[33] Unstarred Question No. 222, Rajya Sabha, Ministry of Environment, Forest and Climate Change, https://pqars.nic.in/annex/258/AU222.pdf.
[34] National Academies of Sciences, Engineering, and Medicine. 2016. Genetically Engineered Crops: Experiences and Prospects. Washington, DC: The National Academies Press, https://doi.org/10.17226/23395.
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[64] John M. Pleasants, et al., Conclusion of No Decline in Summer Monarch Population Not Supported, Annals of the Entomological Society of America, Volume 109, Issue 2, March 2016, Pages 169–171, https://doi.org/10.1093/aesa/sav115.
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