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न्यायपालिका में लंबित मामले और रिक्तियां

भारतीय न्यायपालिका में फैसले की प्रतीक्षा में बड़ी संख्या में मामले लंबित हैं, और सभी स्तरों पर रिक्तियों की बड़ी संख्या है। सर्वोच्च न्यायालय के कलोजियम ने हाल ही में सुझाव दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय में सात न्यायाधीशों की नियुक्ति के तुरंत बाद उच्च न्यायालयों में 129 न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाए। इस नोट में हम न्यायपालिका में लंबित मामलों और विभिन्न स्तरों पर न्यायाधीशों की रिक्तियों से संबंधित आंकड़े प्रस्तुत कर रहे हैं।  

अदालतों में लंबित मामले; वर्तमान में साढ़े चार करोड़ से ज्यादा मामले लटके हुए हैं

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नोट: 2021 के लिए सर्वोच्च न्यायालय के आंकड़े 4 सितंबर, 2021 तक के हैं। उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों के आंकड़े 15 सितंबर, 2021 तक के हैं। 

  • 2010 और 2020 के बीच सभी न्यायालयों में लंबित मामलों में 2.8% की दर से वार्षिक बढ़ोतरी हुई। 15 सितंबर, 2021 तक भारत के सभी न्यायालयों में 4.5 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित थे। इनमें 87.6% मामले अधीनस्थ न्यायालयों और 12.3% उच्च न्यायालयों में लंबित थे।
     
  • इसका अर्थ यह है कि अगर कोई नए मामले दायर नहीं होते तो सर्वोच्च न्यायालय को सभी लंबित मामलों को निपटाने में 1.3 वर्ष लगेंगे और उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों, प्रत्येक को तीन-तीन वर्ष लगेंगे।  
  • 2019 और 2020 के बीच उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों में 20% की दर से, और अधीनस्थ न्यायालयों में 13% की दर से बढ़ोतरी हुई। उल्लेखनीय है कि 2020 में कोविड-19 महामारी के कारण न्यायालयों में सामान्य कामकाज सीमित रहा। इसलिए जहां पिछले वर्षों की तुलना में नए मामले बहुत कम थे, लंबित मामले बढ़ते गए- चूंकि मामलों को निपटाने की दर, दर्ज होने वाले नए मामलों की दर से बहुत धीमी थी। 

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नोट: आंकड़े 15 सितंबर, 2021 तक के हैं।

  • सामान्य तौर से जिन उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में बड़ी आबादी आती है, वहां लंबित मामलों की संख्या ज्यादा होती है। लेकिन कोलकाता और पटना उच्च न्यायालयों (जिनके क्षेत्राधिकार में अपेक्षाकृत बड़ी आबादी आती है) की तुलना में मद्रास, राजस्थान और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालयों में ज्यादा लंबित मामले हैं। 
     
  • 2010 और 2020 के बीच सिर्फ चार न्यायालयों (इलाहाबाद, कोलकाता, ओड़िशा और जम्मू एवं कश्मीर तथा लद्दाख) में लंबित मामलों में कमी आई। इसी दौरान ज्यादातर राज्यों (उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार) के अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई। कुछ राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल और गुजरात के अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों में गिरावट आई।

उच्च न्यायालयों में 21% मामले 10 वर्षो से, और अधीनस्थ न्यायालयों में 23% मामले पांच वर्षों से लंबित हैं

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  • उच्च न्यायालयों में 41% मामले पांच वर्षों या उससे ज्यादा समय से लंबित हैं। अधीनस्थ न्यायालयों में हर चार में से एक मामला कम से कम पिछले पांच वर्षो से लंबित है। 
     
  • लगभग 45 लाख मामले अधीनस्थ और उच्च न्यायालयों में 10 वर्षों से भी ज्यादा समय से लंबित हैं। उच्च न्यायालयों में 21% और अधीनस्थ अदालतों में 8% मामले 10 वर्षों से ज्यादा समय से लंबित हैं।

न्यायपालिका में रिक्तियां भी बड़ी संख्या में लंबित मामलों की वजह 

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  • फैसले लेने के लिए न्यायाधीशों की कमी है। 1 सितंबर, 2021 तक सर्वोच्च न्यायालय में 34 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले एक रिक्ति थी। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल स्वीकृत पदों में से 42% रिक्त थे (1,098 में से 465 पद)। पांच उच्च न्यायालयों (तेलंगाना, पटना, राजस्थान, ओड़िशा और दिल्ली) में 50% से ज्यादा रिक्तियां थीं। मेघालय और मणिपुर उच्च न्यायालयों में कोई रिक्ति नहीं थी।
  • 20 फरवरी, 2020 तक अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या में से 21% पद रिक्त थे (24,018 में से 5,146 पद)। जिन राज्यों में कम से कम 100 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या है, उनमें से बिहार में सबसे अधिक 40% रिक्तियां (776) हैं, इसके बाद हरियाणा में 38% (297) और झारखंड में 32% (219) रिक्तियां हैं।

ट्रिब्यूनल्स और विशेष अदालतों में भी लंबित मामले और रिक्तियां बहुत अधिक हैं

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नोट: 2021 के लिए आंकड़े 31 मई, 2021 तक के हैं। 

  • ट्रिब्यूनल्स और विशेष अदालतों (जैसे फास्ट ट्रैक अदालतें और फैमिली कोर्ट्स) को इसलिए गठित किया जाता है ताकि मामलों का तेजी से निपटान किया जा सके। लेकिन वहां भी मामले बहुत अधिक संख्या में लंबित हैं, और रिक्तियां भी बहुत अधिक हैं। उदाहरण के लिए 2020 के अंत तक राष्ट्रीय कंपनी कानून ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में 21,259 मामले लंबित थे। अप्रैल 2021 तक एनसीएलटी में 39 सदस्य थे, जबकि उसकी स्वीकृत संख्या 63 की है।
     
  • पिछले दो दशकों में फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई गई हैं। लेकिन अधीनस्थ न्यायालयों और इन फास्ट ट्रैक कोर्ट्स में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मई 2021 तक 24 राज्यों/यूटी (बाकी में फास्ट ट्रैक अदालतें चालू हालत में नहीं हैं) में 956 फास्ट ट्रैक अदालतों में 9.2 लाख से अधिक मामले लंबित थे।

जेलों में दोषियों के मुकाबले अंडरट्रायल कैदियों की संख्या दोगुने से भी अधिक image

नोट: चार्ट उन सभी राज्यों और यूटीज़ के आंकड़े देता है जहां कम से कम 2,000 अंडरट्रायल कैदी हैं। 

  • लंबे समय तक मामले लंबित रहने की वजह से भारत की जेलों में अंडरट्रायल्स (आरोपी व्यक्ति जोकि या तो मुकदमे का इंतजार कर रहे हैं या उन पर मुकदमा चल रहा है) की संख्या बहुत अधिक हो गई है। 31 दिसंबर, 2019 तक भारत की जेलों में लगभग 4.8 लाख कैदी बंद थे। इनमें से दो तिहाई से भी ज्यादा अंडरट्रायल हैं (3.3 लाख)।
     
  • 5,011 अंडरट्रायल्स पांच वर्ष या उससे अधिक समय से जेलों में बंद हैं। इनमें से करीब आधे अंडरट्रायल उत्तर प्रदेश (2,142) और महाराष्ट्र (394) की जेलों में हैं। 
       

स्रोत: कोर्ट्स न्यूज (2010-2018), वार्षिक रिपोर्ट (2019-20), भारतीय सर्वोच्च न्यायालय; नेशनल ज्यूडिशियल ग्रिड फॉर हाई कोर्ट्स एंड सबऑर्डिनेट कोर्ट्स (15 सितंबर, 2021 को आखिरी बार एक्सेस किया गया); वेकेंसी स्टेटमेंट्स (2019-2021), फास्ट ट्रैक कोर्ट्स संबंधी योजना पर ब्रीफ नोट (नॉन प्लान), विधि विभाग; रिपोर्ट संख्या 101, कार्मिक, लोक शिकायत एवं विधि तथा न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2020); राज्यसभा अतारांकित प्रश्न: (i) संख्या. 3458 (25 मार्च, 2021), (ii) संख्या 1214 (11 फरवरी, 2021), (iii) संख्या 2666 (18 मार्च, 2021); मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय, 2021 की रिट याचिका (सिविल) संख्या 502, 14 जुलाई, 2021; भारत में अपराध (2019, 2020), जेल सांख्यिकी भारत (2019), राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो; पीआरएस।

अस्वीकरणः प्रस्तुत रिपोर्ट आपके समक्ष सूचना प्रदान करने के लिए प्रस्तुत की गई है। पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च (पीआरएस) के नाम उल्लेख के साथ इस रिपोर्ट का पूर्ण रूपेण या आंशिक रूप से गैर व्यावसायिक उद्देश्य के लिए पुनःप्रयोग या पुनर्वितरण किया जा सकता है। रिपोर्ट में प्रस्तुत विचार के लिए अंततः लेखक या लेखिका उत्तरदायी हैं। यद्यपि पीआरएस विश्वसनीय और व्यापक सूचना का प्रयोग करने का हर संभव प्रयास करता है किंतु पीआरएस दावा नहीं करता कि प्रस्तुत रिपोर्ट की सामग्री सही या पूर्ण है। पीआरएस एक स्वतंत्र, अलाभकारी समूह है। रिपोर्ट को इसे प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के उद्देश्यों अथवा विचारों से निरपेक्ष होकर तैयार किया गया है। यह सारांश मूल रूप से अंग्रेजी में तैयार किया गया था। हिंदी रूपांतरण में किसी भी प्रकार की अस्पष्टता की स्थिति में अंग्रेजी के मूल सारांश से इसकी पुष्टि की जा सकती है।

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