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संविधान

आर्म्स एक्ट, 1959 में संशोधन

रोशनी सिन्हा - दिसंबर 5, 2019

हाल ही में लोकसभा में  आर्म्स (संशोधन) बिल, 2019 पेश किया गया और इस शीतकालीन सत्र में बिल को पारित किया जाना अधिसूचित है। बिल आर्म्स एक्ट, 1959 में संशोधन करता है जोकि भारत में हथियारों के रेगुलेशन से संबंधित है। आर्म्स की परिभाषा में बंदूकें, तलवार, एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइलें शामिल हैं। बिल के उद्देश्य और कारणों के कथन में कहा गया है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने गैर कानूनी हथियारों को रखने और आपराधिक गतिविधियों के बीच बढ़ते संबंध का संकेत दिया है। कोई व्यक्ति कितनी लाइसेंसशुदा बंदूकें रख सकता है, बिल उस संख्या को कम करता है, साथ ही एक्ट के अंतर्गत कुछ अपराधों की सजा बढ़ाता है। बिल में अपराधों की नई श्रेणियों को भी प्रस्तावित किया गया है। इस पोस्ट में हम बिल के मुख्य प्रावधानों को स्पष्ट कर रहे हैं। 

एक व्यक्ति को कितनी बंदूकों रखने की अनुमति है?

आर्म्स एक्ट, 1959 के अंतर्गत एक व्यक्ति को तीन लाइसेंसशुदा बंदूकें रखने की अनुमति है। बिल इसे कम करके एक बंदूक करता है। इसमें उत्तराधिकार या विरासत के आधार पर मिलने वाला लाइसेंस भी शामिल है। बिल एक साल की समय सीमा प्रदान करता है जिस दौरान अतिरिक्त बंदूकों को निकटवर्ती पुलिस स्टेशन के ऑफिसर-इन-चार्ज या निर्दिष्ट लाइसेंसशुदा बंदूक डीलर के पास जमा करना होगा। बिल बंदूकों के लाइसेंस की वैधता की अवधि को बढ़ाकर तीन से पांच वर्ष करता है। 

उल्लेखनीय है कि 2017 में आर्म्स एक्ट, 1959 के अंतर्गत भारत में 63,219 बंदूकें जब्त की गईं। इनमें से सिर्फ 3,525 (5.5%) लाइसेंसशुदा बंदूकें थीं। इसके अतिरिक्त 2017 में एक्ट के अंतर्गत बंदूकों से संबंधित 36,292 मामले पंजीकृत किए गए जिनमें से 419 (1.1%) मामले लाइसेंसशुदा बंदूकों के थे। [1] यह प्रवृत्ति निर्दिष्ट अपराधों के स्तर पर भी कायम थी, जहां सिर्फ 8.5% अपराधों में लाइसेंसशुदा बंदूकों का इस्तेमाल किया गया था। [2]

मौजूदा अपराधों में क्या बदलाव किए गए हैं?

वर्तमान में एक्ट लाइसेंस के बिना बंदूकों की मैन्यूफैक्चरिंग, बिक्री, इस्तेमाल, ट्रांसफर, परिवर्तन, टेस्टिंग या प्रूफिंग पर प्रतिबंध लगाता है। इसके अतिरिक्त बिल गैर लाइसेंसशुदा बंदूकों को हासिल करने या खरीदने तथा लाइसेंस के बिना एक श्रेणी की बंदूकों को दूसरी श्रेणी में बदलने पर प्रतिबंध लगाता है। इसमें बंदूकों के प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए किए गए संशोधन भी शामिल हैं। 

बिल अनेक मौजूदा अपराधों से संबंधित सजा में संशोधन भी प्रस्तावित करता है। उदाहरण के लिए एक्ट में निम्नलिखित के संबंध में सजा निर्दिष्ट है: (i) गैर लाइसेंसशुदा हथियार की मैन्यूफैक्चरिंग, खरीद, बिक्री, ट्रांसफर, परिवर्तन सहित अन्य क्रियाकलाप, (ii) लाइसेंस के बिना बंदूकों को छोटा करना या उनमें परिवर्तन, और (iii) प्रतिबंधित बंदूकों का आयात या निर्यात। इन अपराधों के लिए तीन से सात वर्ष की सजा है, साथ ही जुर्माना भी भरना पड़ता है। बिल इसके लिए सात वर्ष से लेकर अधिकतम आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान करता है जिसके साथ जुर्माना भी भरना पड़ेगा।

एक्ट लाइसेंस के बिना प्रतिबंधित बंदूकों (जैसे ऑटोमैटिक और सेमी-ऑटोमैटिक असॉल्ट राइफल्स) से डील करने पर सात से लेकर आजीवन कारावास तक की कैद और जुर्माने का प्रावधान करता है। बिल ने न्यूनतम सजा को सात वर्ष से 10 वर्ष कर दिया है। इसके अतिरिक्त जिन मामलों में प्रतिबंधित हथियारों के इस्तेमाल से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, उस स्थिति में अपराधी को मृत्यु दंड का प्रावधान था। बिल में इस सजा को मृत्यु दंड या आजीवन कारावास किया गया है, जिसके साथ जुर्माना भी भरना पड़ेगा।

क्या नए अपराधों को प्रस्तावित किया गया है?

बिल कुठ नए अपराधों को जोड़ता है। जैसे पुलिस या सशस्त्र बलों से जबरन हथियार लेना बिल के अंतर्गत अपराध है। ऐसा करने पर 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा, साथ ही जुर्माने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त लापरवाही से बंदूकों के इस्तेमाल पर सजा निर्धारित करता है, जैसे शादियों या धार्मिक आयोजनों में गोलीबारी करना, जिससे मानव जीवन या दूसरों की व्यक्तिगत सुरक्षा खतरे में पड़ती है। ऐसे मामले पर दो साल तक की सजा होगी, या एक लाख रुपए तक का जुर्माना भरना पड़ेगा, या दोनों सजाएं भुगतनी पड़ेंगी। 

बिल ‘अवैध तस्करी’ की परिभाषा भी जोड़ता है। इसमें भारत में या उससे बाहर उन बंदूकों या एम्यूनिशन का व्यापार, उन्हें हासिल करना तथा उनकी बिक्री करना शामिल है जो एक्ट में चिन्हित नहीं हैं या एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। बिल अवैध तस्करी के लिए 10 वर्ष से आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान करता है, साथ ही जुर्माना भी भरना पड़ेगा।

क्या बिल संगठित अपराध के मुद्दे को उठाता है?

बिल ‘संगठित अपराध’ की परिभाषा भी प्रस्तावित करता है। ‘संगठित अपराध’ का अर्थ है, सिंडिकेट के सदस्य के रूप में या उसकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा आर्थिक या दूसरे लाभ लेने के लिए गैर कानूनी तरीकों को अपनाकर, जैसे हिंसा का प्रयोग करके या जबरदस्ती, गैर कानूनी कार्य करना। संगठित आपराधिक सिंडिकेट का अर्थ है, संगठित अपराध करने वाले दो या उससे अधिक लोग। बिल संगठित आपराधिक सिंडिकेट के सदस्यों के लिए कड़ी सजा का प्रस्ताव रखता है। उदाहरण के लिए गैर लाइसेंसशुदा बंदूक रखने पर किसी व्यक्ति को न्यूनतम सात साल की कैद हो सकती है जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। हालांकि सिंडिकेट के सदस्य द्वारा गैर लाइसेंसशुदा बंदूक रखने पर 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है और जुर्माना भरना पड़ सकता है। यह सजा उन गैर सदस्यों पर भी लागू होगी जिन्होंने सिंडिकेट की तरफ से एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन किया है।

 

[1] Crime in India 2017, National Crime Records Bureau, October 21, 2019,  http://ncrb.gov.in/StatPublications/CII/CII2017/pdfs/CII2017-Full.pdf.

[2] Crime in India 2016, National Crime Records Bureau, October 10, 2017,  http://ncrb.gov.in/StatPublications/CII/CII2016/pdfs/NEWPDFs/Crime%20in%20India%20-%202016%20Complete%20PDF%20291117.pdf. 

 
States and State Legislatures

क्या सांसदों के वेतन में कटौती और एमपीलैड को रोकने से कोविड-19 से संघर्ष हेतु संसाधन जुटाए जा सकते हैं?

Mandira Kala , Roshni Sinha - अप्रैल 10, 2020

इस हफ्ते केंद्र ने दो अध्यादेश जारी किए: (i) सांसदों के वेतन में एक वर्ष के लिए 30% की कटौती हेतु संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते और पेंशन एक्ट, 1954, में संशोधन और (ii) मंत्रियों के सत्कार भत्ते में एक वर्ष के लिए 30% की कटौती हेतु मंत्रियों का वेतन और भत्ते एक्ट, 1952 में संशोधन। सरकार ने 1954 के एक्ट में अधिसूचित नियमों में भी संशोधन किया है ताकि सांसदों के कुछ भत्तों में एक वर्ष के लिए कटौतियां की जा सकें और दो वर्षों के लिए एमपीलैड (सांसद निधि) को रोका गया है। कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए केंद्र के वित्तीय संसाधनों को पूरा करने हेतु संशोधन किए गए हैं। ये संशोधन बड़े सवाल उठाते हैं- जैसे, राज्य की महामारी से लड़ने की क्षमता पर उसका क्या असर होगा और सांसदों के वेतन को किस प्रकार से निर्धारित किया जाना चाहिए।

संशोधनों पर एक नजर

1954 के एक्ट में कार्यकाल के दौरान सांसदों के वेतन और भत्तों तथा पूर्व सांसदों की पेंशन से संबंधित प्रावधान हैं। सांसदों को प्रति माह एक लाख रुपए वेतन मिलता है तथा सरकारी खर्चे की प्रतिपूर्ति भत्तों के रूप में की जाती है। इसमें संसद सत्र में भाग लेने के लिए दैनिक भत्ता, निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और कार्यालयी व्यय भत्ता शामिल हैं। पहले अध्यादेश के अंतर्गत सांसदों के वेतन में 30% की कटौती की गई है। इसके अतिरिक्त निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और कार्यालयी व्यय भत्ता क्रमशः 21,000 रुपए और 6,000 रुपए कम किया जा रहा है। 

1952 का एक्ट मंत्रियों (प्रधानमंत्री सहित) के वेतन और अन्य भत्तों को रेगुलेट करता है। एक्ट में प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्रियों, राज्य मंत्रियों और डेप्युटी मंत्रियों को विभिन्न दरों पर मासिक सत्कार भत्ते (आगंतुकों के मनोरंजन/सत्कार पर होने वाला खर्च) के भुगतान का प्रावधान है। दूसरा अध्यादेश मंत्रियों के सत्कार भत्ते को 30% कम करता है।

उल्लेखनीय है कि 1952 के एक्ट में मंत्रियों का वेतन, और दैनिक एवं निर्वाचन क्षेत्र भत्ता, 1954 के एक्ट के अंतर्गत सांसद के लिए निर्दिष्ट दरों के अनुसार ही है। इसी प्रकार दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों (राज्यसभा के अध्यक्ष को छोड़कर) पर भी ऐसे ही प्रावधान लागू होते हैं जोकि दूसरे एक्ट्स से रेगुलेट होते हैं। इसीलिए सांसदों के वेतन और निर्वाचन क्षेत्र भत्ते में किए गए संशोधन मंत्रियों, लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तथा राज्यसभा के उपाध्यक्ष पर भी लागू होंगे। राज्यसभा अध्यक्ष का वेतन अध्यादेश से प्रभावित नहीं होगा (चार लाख रुपए प्रति माह)।

इसके अतिरिक्त संसद सदस्य और स्थानीय क्षेत्र विकास (एमपीलैड) योजना, 1993 के अंतर्गत सांसद प्रत्येक वर्ष अपने निर्वाचन क्षेत्र में सरकारी निर्माण के कार्यों के लिए प्रॉजेक्ट्स को चिन्हित कर सकते हैं और उनके लिए धनराशि मंजूर कर सकते हैं। 2011-12 से इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक सांसद हर वर्ष पांच करोड़ रुपए तक खर्च कर सकता है। केंद्रीय कैबिनेट ने दो वर्षों के लिए एमपीलैड योजना को रोकने को मंजूरी दी है। तालिका 1 में सांसदों के वेतन, भत्तों में परिवर्तनों और एमपीलैड योजना को रोकने से संबंधित विवरण हैं।  

तालिका 1: सांसदों के वेतन, भत्तों में परिवर्तन और एमपीलैड की पात्रता

विषय

पूर्व पात्रता (रुपए प्रति माह में)

नई पात्रता (रुपए प्रति माह में)

परिवर्तन की समय अवधि

वेतन

 1,00,000

70,000

एक वर्ष

निर्वाचन क्षेत्र भत्ता

70,000

49,000

एक वर्ष

कार्यालयी भत्ता

60,000

54,000

एक वर्ष

इसमें से

कार्यालयी भत्ता

20,000

14,000

-

 

सचिवीय सहायता

40,000

40,000

-

प्रधानमंत्री का सत्कार भत्ता

3,000

2,100

एक वर्ष

कैबिनेट मंत्रियों का सत्कार भत्ता

2,000

1,400

एक वर्ष

राज्य मंत्रियों का सत्कार भत्ता

1,000

700

एक वर्ष

डेप्युटी मंत्रियों का सत्कार भत्ता

600

420

एक वर्ष

एमपीलैड योजना के अंतर्गत धनराशि

5 crore

कुछ नहीं

दो वर्ष

Sources: 2020 Ordinance; Members of Parliament (Constituency Allowance) Amendment Rules, 2020; Members of Parliament (Office Expense Allowance) Amendment Rules, 2020; “Cabinet approves Non-operation of MPLADs for two years (2020-21 and 2021-22) for managing COVID 19”, Press Information Bureau, Cabinet, April 6, 2020; PRS.

कोविड-19 से संघर्ष के लिए संसाधन जुटाने में संशोधनों का क्या असर होगा

सांसदों और मंत्रियों के वेतन और भत्तों में प्रस्तावित कटौती से लगभग 55 करोड़ रुपए की बचत होगी और एमपीलैड योजना को रोकने से 7800 करोड़ रुपए की बचत की उम्मीद है। कोविड-19 के कारण तत्काल आर्थिक संकट से लड़ने के लिए जितनी अनुमानित राशि की जरूरत होगी, यह बचत राशि उसका क्रमशः 0.03% और 4.5% है। सरकार ने अनुमान लगाया है कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतर्गत कोविड राहत उपायों के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपए की राशि की जरूरत होगी। इसलिए महामारी से लड़ने के लिए धनराशि जुटाने हेतु सांसदों के वेतन और भत्तों में कटौती करने का बहुत अधिक असर होने की संभावना नहीं है।

सांसदों का वेतन कैसे निर्धारित किया जा सकता है

प्रत्येक सांसद से अपने निर्वाचन क्षेत्र के हितों का प्रतिनिधित्व करने, महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर कानून बनाने, सरकार की जवाबदेही तय करने, और सार्वजनिक संसाधनों का प्रभावी आबंटन करने की अपेक्षा की जाती है। सांसदों के वेतन और कार्यालयी भत्तों का आकलन उनकी जिम्मेदारियों के आधार पर तय किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने से कि सांसदों को यथोचित वेतन मिलता है, वे समर्पित भाव से अपने कर्तव्य निभाते हैं, स्वतंत्र तरीके से फैसले लेते हैं और इस बात की भी गारंटी मिलती है कि हर स्तर के नागरिक को संसदीय चुनाव लड़ने का मौका मिल सकता है। प्रश्न यह है कि- यह कौन तय करेगा कि सांसदों के लिए यथोचित वेतन क्या है।   

वर्तमान में भारत में सांसद स्वयं अपना वेतन तय करते हैं जोकि संसद के एक्ट के रूप में पारित किया जाता है। सांसदों द्वारा अपना वेतन तय करने से हितों का टकराव होता है। इस मसले को हल करने का एक तरीका तो यह है कि सांसदों के वेतन को तय करने के लिए एक स्वतंत्र आयोग का गठन किया जाए। अनेक लोकतांत्रिक देशों में यह किया जाता है, जैसे न्यूजीलैंड और युनाइटेड किंगडम। दूसरे कई देशों में वार्षिक वेतन दर सूचकांक के आधार पर सांसदों का वेतन निर्धारित किया जाता है जैसे कनाडा। तालिका 2 में प्रदर्शित किया गया है कि विधि निर्माताओं के वेतन को निर्धारित करने के लिए क्या तरीके अपनाए जाते हैं।   

तालिका 2: विभिन्न लोकतांत्रिक देशों में वेतन तय करने के तरीके

देश

विधि निर्माताओं के वेतन तय करने की प्रक्रिया

भारत

संसद एक्ट पारित करके तय करती है।

ऑस्ट्रेलिया

रिमुनरेशन ट्रिब्यूनल वेतन तय करती है। इसे हर साल संशोधित किया जाता है।

न्यूजीलैंड

रिमुनरेशन ट्रिब्यूनल वेतन तय करती है। इसे हर साल संशोधित किया जाता है।

यूके

सार्वजनिक क्षेत्र में औसत आय में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार स्वतंत्र पार्लियामेंटरी स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी वार्षिक वेतन तय करती है। इन परिवर्तनों की जानकारी ऑफिस ऑफ नेशनल स्टैटिस्टिक्स द्वारा दी जाती है।

कनाडा

संघीय सरकार के वार्षिक वेतन दर सूचकांक के अनुसार हर वर्ष सदस्यों का वेतन समायोजित किया जाता है।

जर्मनी

सर्वोच्च संघीय न्यायालय के न्यायाधीश के वेतन पर आधारित और संसद द्वारा हर वर्ष समायोजित। 

Sources: Various government websites of respective countries; PRS.

भारत के पास सरकारी अधिकारियों के मेहनताने की समीक्षा करने के लिए स्वतंत्र आयोगों की नियुक्ति का अनुभव है। केंद्र सरकार समय समय पर वेतन आयोगों का गठन करती है जोकि सरकारी सेवाओं में प्रतिभावान व्यक्तियों को आकर्षित करने हेतु सरकारी कर्मचारियों की वेतन संरचना की समीक्षा करते हैं और उनमें संशोधन पर सुझाव देते हैं। सबसे हाल में 2014 में केंद्रीय वेतन आयोग का गठन किया गया था जिसने केंद्र सरकार के कर्मचारियों, सैन्य कर्मियों, सांविधिक निकायों के कर्मचारियों और सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारियों तथा कर्मचारियों के वेतन को तय किया था। सामान्यतया आयोगों की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश द्वारा की जाती है और इनके सदस्यों में सरकारी सेवाओं से जुड़े लोग और स्वतंत्र विशेषज्ञ होते हैं।

एमपीलैड को रोकना

इन संशोधनों के विपरीत, एमपीलैड योजना को रोकना एक सकारात्मक कदम है।

एमपीलैड योजना (एमपीलैड्स) या सांसद निधि को 1993 में शुरू किया गया था ताकि सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्रों के स्थानीय विकास से जुड़ी समस्याओं को हल कर सकें। एमपीलैड्स के अंतर्गत सांसदों को हर साल अपने क्षेत्र में लोक निर्माण के प्रॉजेक्ट्स के लिए पांच करोड़ रुपए दिए जाते हैं और वे इन प्रॉजेक्ट्स को कार्यान्वित करने के लिए जिला प्रशासन को सुझाव दे सकते हैं। सामान्यतया एमपीलैड्स के अंतर्गत धनराशि को सरकारी सुविधाओं (जैसे स्कूल के भवन, सड़क और बिजली की सुविधा) के निर्माण या स्थापना, उपकरणों की सप्लाई (जैसे शिक्षण संस्थानों में कंप्यूटर) और सैनिटेशन प्रॉजेक्ट्स पर खर्च किया जाता है।

2010 में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने एमपीलैड्स की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर फैसला दिया था। यह कहा गया था कि एमपीलैड्स कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का उल्लंघन करता है, चूंकि यह स्थानीय सरकारी कार्यों पर सांसद को कार्यकारी शक्तियां प्रदान करता है। न्यायालय ने फैसला दिया था कि शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होता क्योंकि इस मामले में सांसद की भूमिका सुझावपरक है और असली काम सरकारी प्रशासन द्वारा ही किया जाता है।

हालांकि योजना सांसद की राष्ट्रीय स्तर के विधि निर्माता की भूमिका को कम करके आंकती है। सांसद की भूमिका यह तय करना है कि क्या विकास संबंधी प्राथमिकताओं के लिए सरकार का बजटीय आबंटन पर्याप्त है और संसद द्वारा मंजूर धनराशि प्रभावी और कुशलतापूर्वक खर्च की जा रही है। हालांकि स्थानीय प्रशासन के स्तर के मुद्दों, जैसे सड़कों या सैनिटेशन प्रॉजेक्ट्स पर ध्यान केंद्रित करने से सांसद की निगरानी रखने की भूमिका अस्पष्ट होती है। एमपीलैड्स का एक नकारात्मक पहलु और है। इसके परिणामस्वरूप नागरिक सांसदों से व्यापक नीतिगत और विधायी फैसले लेने की उम्मीद करने की बजाय उनसे स्थानीय विकास की समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा करते हैं। एमपीलैड को रोकने से सांसदों को संसद में अपनी भूमिका पर ध्यान केंद्रित करने का मौका मिलेगा।

अध्यादेश के जरिए कानून निर्माण

इन अध्यादेशों के माध्यम से कार्यपालिका ने सांसदों और मंत्रियों के वेतन और भत्तों में संशोधन किया है। सैद्धांतिक रूप से संसद के पास कानून निर्माण की शक्ति है। असाधारण स्थितियों में संविधान कार्यपालिका को अध्यादेश के जरिए कानून बनाने की अनुमति देता है, अगर संसद सत्र न चल रहा हो और तत्काल कार्रवाई की जरूरत हो। कानून के रूप में जारी रहने के लिए इन दो अध्यादेशों को छह हफ्ते के भीतर संसद द्वारा मंजूर होना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान के अतिरिक्त भारत उन कुछ देशों में से एक है जहां कार्यपालिका को कानून बनाने की शक्ति है, भले ही उसकी प्रकृति अस्थायी है।

अध्यादेश सांसदों के वेतन में संशोधन करता है- इससे एक प्रश्न और उठता है, क्या यह उपयुक्त है कि कार्यपालिका के पास सांसदों के मेहनताने में संशोधन करने की शक्ति है- इससे विधायिका की स्वतंत्रता पर क्या असर होगा जिसका कार्य कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराना है।

 
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