30 नवंबर, 2022 को उत्तराखंड विधानसभा का दो दिवसीय सत्र समाप्त हो गया। पहले यह सत्र पांच दिनों के लिए निर्धारित था। इस पोस्ट में हम विधानसभा में विधायी कामकाज और राज्य विधानमंडलों की स्थिति की समीक्षा कर रहे हैं।
दो दिनों में 13 बिल पेश और पारित
सेशन एजेंडा के अनुसार, दो दिनों में कुल 19 बिल पेश किए जाने के लिए सूचीबद्ध थे। इनमें से 13 पर दूसरे दिन चर्चा होनी थी और उन्हें पारित किया जाना था। इनमें उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता संरक्षण (संशोधन) बिल, 2022, पेट्रोलियम एवं ऊर्जा अध्ययन विश्वविद्यालय (संशोधन) बिल, 2022 और उत्तराखंड कूड़ा फेंकना और थूकना प्रतिषेध (संशोधन) बिल, 2022 शामिल हैं।
विधानसभा ने पांच मिनट के भीतर प्रत्येक बिल (दो को छोड़कर) पर चर्चा करने और उसे पारित करने का प्रस्ताव रखा था (देखें रेखाचित्र 1)। दो बिल्स पर चर्चा और उन्हें पारित करने के लिए 20 मिनट का समय दिया गया था। ये दो बिल हैं- हरिद्वार विश्वविद्यालय बिल, 2022 और सार्वजनिक सेवा (महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण) बिल, 2022। न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार विधानसभा ने इन दो दिनों में सभी 13 बिल्स को पारित किया (इनमें एप्रोप्रिएशन बिल्स शामिल नहीं हैं)। इससे यह सवाल उठता है कि इन बिल्स की कितनी जांच पड़ताल की गई और जब विधायक उन्हें चंद मिनटों में पारित करने की इच्छा रखते हैं तो इन बिल्स की कितनी समीक्षा हो पाएगी, और उनकी क्वालिटी क्या होगी।
रेखाचित्र 1: उत्तराखंड विधानसभा के नवंबर 2022 के सेशन एजेंडा के एक हिस्सा
कानून निर्माण के लिए चर्चा और जांच पड़ताल जरूरी
हमारे कानून निर्माण संस्थानों के पास ऐसे कई उपाय होते हैं जिससे यह सुनिश्चित हो कि किसी कानून के पारित होने से पहले, उसके विभिन्न पहलुओं की विस्तार से जांच पड़ताल की गई है जैसे संवैधानिकता, स्पष्टता और उसके प्रावधानों को लागू करने के लिए राज्य की वित्तीय और तकनीकी क्षमता। बिल को लाने वाला मंत्रालय/विभाग सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए बिल के ड्राफ्ट को साझा कर सकता है (पूर्व विधायी जांच)। बिल पेश होने के साथ, सदस्य प्रस्तावित कानून की संवैधानिकता का मुद्दा उठा सकते हैं। एक बार पेश होने के बाद बिल्स को विधायी समितियों के पास भेजा जा सकता है ताकि उनकी विस्तृत समीक्षा की जा सके। इससे विधायक और सांसद प्रत्येक प्रावधान पर गहराई से विचार विमर्श कर सकते हैं और यह समझ सकते हैं कि क्या किसी प्रावधान के संबंध में कोई संवैधानिक चुनौती है या कोई दूसरा मुद्दा। इस प्रक्रिया के दौरान विशेषज्ञों और प्रभावित होने वाले हितधारकों को प्रावधानों पर अपना योगदान देने, मुद्दों को उठाने और कानून को मजबूत करने में मदद देने का भी मौका मिलता है।
हालांकि जब कुछ ही मिनटों में बिल को पेश और पारित किया जाता है तो उससे विधायकों को उसके प्रावधानों को समझने और उसके प्रभावों, विभिन्न मुद्दों और प्रभावित पक्षों के लिए कानून में सुधार करने के तरीकों पर विचार करने का समय कम ही मिलता है। इससे यह प्रश्न भी उठता है कि चर्चा के बिना हड़बड़ी में कानून पारित करने के पीछे विधायिका की मंशा क्या है। अक्सर सोचे-समझे बिना बनाए जाने वाले कानूनों को अदालतों में चुनौती भी दी जाती है।
उदाहरण के लिए उत्तराखंड विधानसभा ने इस सत्र में उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) बिल, 2022 को पारित किया (बिल पर चर्चा और उसे पारित करने के लिए पांच मिनट दिए गए थे)। यह बिल, 2018 के एक्ट में संशोधन करता है जिसमें जबरन धर्म परिवर्तन किए जाने पर प्रतिबंध लगाया गया है और यह प्रावधान किया गया है कि लालच देकर, या शादी के जरिए धर्म परिवर्तन गैरकानूनी होगा। बिल में यह प्रावधान है कि धर्म परिवर्तन के लिए जिला मेजिस्ट्रेट (डीएम) को अतिरिक्त नोटिस देना होगा और किसी व्यक्ति के एकदम पहले के धर्म में दोबारा धर्मांतरण करने को धर्म परिवर्तन नहीं माना जाएगा। इनमें से कई प्रावधान उन दूसरे कानूनों के समान हैं जिन्हें राज्यों ने पारित किया और अदालतों ने उन्हें निरस्त कर दिया या उन्हें चुनौती दी गई। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्रता एक्ट, 2021 की जांच करते हुए कहा था कि धर्म परिवर्तन के लिए डीएम को नोटिस देने वाला प्रावधान निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है, चूंकि इस अधिकार में चुप रहने का अधिकार शामिल है। इसके अलावा इसमें व्यक्ति का अपनी आस्था को चुनने का फैसला भी आता है। हिमाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता एक्ट, 2006 में उन लोगों को सार्वजनिक नोटिस देने से छूट दी गई थी जो अपने मूल धर्म में दोबारा धर्म परिवर्तन करते हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भेदभावकारी और समानता के अधिकार का उल्लंघन कहकर रद्द कर दिया था। अदालत ने यह भी कहा था कि सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर लोगों के अपने विश्वास को बदलने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता।
उत्तराखंड के विधायकों को यह सोचने का मौका नहीं मिला होगा कि धर्म परिवर्तन को रेगुलेट करने वाले कानूनों ने उन मुद्दों से कैसे निपटा है, जिन्हें अदालतों ने उठाया था।
अधिकतर अन्य राज्य विधानसभाएं भी पर्याप्त जांच के बिना ही बिल पारित करती हैं
2021 में 44% राज्यों ने बिल को पेश होने के दिन या उसके अगले दिन पारित किया था। जनवरी 2018 औऱ सितंबर 2022 के बीच गुजारत विधानसभा ने 92 बिल्स पेश किए (एप्रोप्रिएशन बिल्स को छोड़कर)। इनमें से 91 को पेश होने वाले दिन ही पारित कर दिया गया। 2022 के मानसून सत्र में गोवा विधानसभा ने दो दिनों के भीतर ही 28 बिल पारित कर दिए। यह विभिन्न सरकारी विभागों के बजटीय आबंटनों पर चर्चा और वोटिंग के अतिरिक्त है।
रेखाचित्र 2: 2021 में राज्य विधानसभाओं को किसी बिल को पारित करने में कितना समय लगा
नोट: यहां दिए गए चार्ट में अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम शामिल नही हैं। एक बिल को एक दिन में पारित माना जाता है, अगर वह पेश होने वाले दिन या उसके अगले दिन पारित कर दिया जाता है। जिन राज्यों में दो सदन वाले विधानमंडल हैं, वहां बिल्स दोनों सदनों में पारित किए जाते हैं। ऊपर दिए गए चार्ट में पांच राज्यों, जहां विधान परिषदें हैं, में इस बात का ध्यान रखा गया है। इसमें बिहार शामिल नहीं है क्योंकि वहां विधान परिषद का डेटा उपलब्ध नहीं है।
स्रोत: विधानसभा की वेबसाइट्स, विभिन्न राज्यों के ई-गैजेट और सूचना का अधिकार संबंधी अनुरोध; पीआरएस।
कभी कभी, किसी बिल पर चर्चा में लगने वाला समय, आबंटित समय से कम होता है। सदन में व्यवधान इसका कारण हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा यह डेटा देती है कि बिल पर चर्चा में असल में कितना समय लगा। उदाहरण के लिए अगस्त 2022 के सत्र में उसने 10 बिल्स पर चर्चा करने और उन्हें पारित करने में औसत 12 मिनट खर्च किए। हालांकि उत्तराखंड विधानसभा ने नवंबर 2022 के सत्र में प्रत्येक बिल पर चर्चा के लिए सिर्फ पांच मिनट का समय आबंटित किया। यह दर्शाता है कि कुछ राज्य विधानसभाओं में अपने कामकाज में सुधार करने का इरादा नहीं है।
जहां तक संसद का मामला है, जांच पड़ताल का कुछ काम विभाग संबंधी स्टैंडिंग कमिटी भी किया करती हैं, तब भी जब संसद का सत्र नहीं चल रहा होता। 14वीं लोकसभा में पेश होने वाले 60% बिल्स को विस्तृत समीक्षा के लिए कमिटिज़ के पास भेजा गया था और 15वीं लोकसभा में 71% बिल्स को। इन आंकड़ों में हाल ही में गिरावट आई है। 16वीं लोकसभा में 27% बिल्स को कमिटीज़ को भेजा गया था, जबकि 17वीं लोकसभा में अब तक 13% बिल्स को भेजा गया है। हालांकि राज्यों में बिल्स को विस्तृत समीक्षा के लिए भेजना अक्सर अपवाद होता है, कायदा नहीं। 2021 में 10% से भी कम बिल्स को कमिटीज़ के पास भेजा गया था। उत्तराखंड विधानसभा में पारित किसी भी बिल को किसी कमिटी के पास नहीं भेजा गया। जो राज्य अपवाद हैं, उनमें से एक केरल है जहां 14 विभागीय समितियां हैं और बिल्स को नियमित रूप से वहां जांच के लिए भेजा जाता है। हालांकि इन समितियों की अध्यक्षता संबंधित मंत्री करते हैं जिससे स्वतंत्र जांच की गुंजाइश कम होती है।
अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि कोविड-19 महामारी के कारण विश्व स्तर पर करीब 2.5 करोड़ नौकरियां समाप्त हो सकती हैं। इसके अतिरिक्त उसमें कहा गया था कि महामारी के कारण भारत में 40 करोड़ अनौपचारिक श्रमिक गरीबी के गर्त में गिर सकते हैं। पिछले वर्ष पीरिऑडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) ने अपनी त्रैमासिक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट के आधार पर हम इस ब्लॉग में शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी और उस पर कोविड-19 के असर के संबंधों पर चर्चा कर रहे हैं। इसमें बेरोजगारी को दूर करने के लिए सरकारी कदमों को भी रेखांकित किया गया है।
पीएलएफएस रिपोर्ट्स में बेरोजगारी का अनुमान लगाने की कार्य प्रणाली राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) ने अक्टूबर-दिसंबर 2020 की तिमाही के लिए अपनी हालिया पीएलएफएस रिपोर्ट जारी की है। पीएलएफएस रिपोर्ट में श्रम बल के संकेतकों, जैसे श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर), बेरोजगारी दर और विभिन्न उद्योगों में श्रमिकों के वितरण के अनुमान दर्शाए जाते हैं। रिपोर्ट्स तीन महीने में एक बार और साल में एक बार जारी की जाती हैं। तिमाही रिपोर्ट्स में सिर्फ शहरी इलाके शामिल होते हैं, जबकि वार्षिक रिपोर्ट में शहरी और ग्रामीण क्षेत्र दोनों। हाल की वार्षिक रिपोर्ट जुलाई 2019 से जून 2020 की अवधि के लिए उपलब्ध है। त्रैमासिक पीएलएफएस रिपोर्ट्स में वर्तमान साप्ताहिक गतिविधि स्थिति (सीडब्ल्यूएस) के आधार पर अनुमान प्रस्तुत किए जाते हैं। सर्वेक्षण की तारीख से पहले सात दिनों की संदर्भ अवधि के दौरान किसी व्यक्ति की गतिविधियों की स्थिति सीडब्ल्यूसी कहलाती है। सीडब्ल्यूसी के हिसाब से किसी व्यक्ति को एक हफ्ते के लिए बेरोजगार माना जाता है, अगर उसने संदर्भ सप्ताह के दौरान किसी एक दिन भी एक घंटे काम नहीं किया, लेकिन उसने काम मांगा था या वह काम के लिए उपलब्ध था। इसके विपरीत वार्षिक पीएलएफएस रिपोर्ट्स में रोजगार-बेरोजगारी के आंकड़े सामान्य गतिविधियों की स्थिति पर आधारित होते हैं। सर्वेक्षण की तारीख से पहले 365 दिनों की संदर्भ अवधि के दौरान किसी व्यक्ति की गतिविधियों की क्या स्थिति है, उस आधार पर सामान्य गतिविधि की स्थिति का आकलन किया जाता है। |
कोविड से पहले के मुकाबले बेरोजगारी दर अब अधिक है
कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए मार्च से मई 2020 के बीच देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था। लॉकडाउन के दौरान लोगों की आवाजाही और आर्थिक गतिविधियों पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे। इससे अनिवार्य वस्तुओं और सेवाओं से संबंधित गतिविधियों में बहुत अधिक रुकावट आ गई थी। 2020 में अप्रैल-जून के दौरान शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 21% थी। यह पिछले वर्ष की इसी अवधि की बेरोजगारी दर से दोगुना थी (8.9%)। बेरोजगारी दर श्रम बल में रोजगार रहित लोगों का प्रतिशत होती है। श्रम बल में वे नियुक्त या अनियुक्त लोग शामिल होते हैं जो काम की तलाश कर रहे होते हैं। आने वाले महीनों में लॉकडाउन के प्रतिबंधों में धीरे धीरे ढिलाई दी गई। 2020 के अप्रैल-जून के स्तर के मुकाबले बेरोजगारी दर में भी गिरावट हुई। 2020 में अक्टूबर-दिसंबर के दौरान (यही अब तक का उपलब्ध डेटा है) बेरोजगारी दर गिरकर 10.3% हो गई। हालांकि यह पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान की बेरोजगारी दर के मुकाबले काफी अधिक है (7.9%)।
रेखाचित्र 1: वर्तमान साप्ताहिक गतिविधि स्थिति के अनुसार शहरी क्षेत्रों में सभी आयु वर्ग के लोगों की बेरोजगारी दर (आंकड़े % में)
नोट: पीएलएफएस में पुरुषों में ट्रांसजेंडर्स के आंकड़े शामिल हैं।
Sources: Quarterly Periodic Labour Force Survey Reports, Ministry of Statistics and Program Implementation; PRS.
देशव्यापी लॉकडाउन के बाद महिलाओं में रिकवरी असमान
कोविड-19 से पहले के रुझानों से पता चलता है कि देश में पुरुष बेरोजगारी दर की तुलना में महिलाओं की बेरोजगारी दर बहुत अधिक है (2019 के अक्टूबर-दिसंबर में क्रमशः 7.3% बनाम 9.8%)। कोविड-19 महामारी के बाद से यह अंतर बढ़ता महसूस हुआ है। 2020 के अक्टूबर-दिसंबर के दौरान महिलाओं की बेरोजगारी दर 13.1% थी, जबकि पुरुषों की 9.5%।
श्रम संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (अप्रैल 2021) ने कहा है कि महामारी के कारण संगठित और असंगठित क्षेत्रों की महिला श्रमिक बड़े पैमाने पर बेरोजगार हुई हैं। उसने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं: (i) महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों से सरकारी खरीद को बढ़ाना, (ii) नई तकनीक के बारे में महिलाओं को प्रशिक्षित करना, (iii) महिलाओं को पूंजी उपलब्ध कराना, और (iv) बच्चों की देखभाल और संबंधित इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करना।
श्रम बल में भागीदारी
श्रम बल में प्रवेश करने वाले और उससे बाहर होने वाले लोग बेरोजगारी दर को प्रभावित कर सकते हैं। किसी समय, ऐसा भी संभव है कि काम करने की कानूनी उम्र से कम आयु के लोग इसमें शामिल हों या लोग विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारणों से, जैसे पढ़ाई करने के लिए, श्रम बल से बाहर हो जाएं। इसी के साथ इसमें ऐसे लोग शामिल हो सकते हैं जो नियुक्ति के इच्छुक हैं और उसके लायक भी, लेकिन हतोत्साहित होकर काम की तलाश बंद कर दें।
श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) वह संकेतक है जोकि जनसंख्या के उस प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करता है जो श्रम बल का हिस्सा है। 2019 और 2020 के दौरान एलएफपीआर में सिर्फ मामूली बदलाव हुआ। अप्रैल-जून की तिमाही के दौरान (जब कोविड-19 संबंधी प्रतिबंध बहुत कड़े थे) एलएफपीआर 35.9% थी जोकि 2019 में इसी अवधि के मुकाबले थोड़ी कम थी (36.2%)। उल्लेखनीय है कि भारत में महिला एलएफपीआर पुरुष एलएफपीआर से काफी कम है (2019 के अक्टूबर-दिसंबर में क्रमशः 16.6% और 56.7%)।
रेखाचित्र 2: वर्तमान साप्ताहिक गतिविधि स्थिति के अनुसार शहरी क्षेत्रों में सभी आयु वर्गों में एलएफपीआर (आंकड़े % में)
नोट: पीएलएफएस में पुरुषों में ट्रांसजेंडर्स के आंकड़े शामिल हैं।
Sources: Quarterly Periodic Labour Force Survey Reports, Ministry of Statistics and Program Implementation; PRS.
श्रमिकों के लिए सरकार के उपाय
अगस्त 2021 में श्रम संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में 90% श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। इन श्रमिकों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) प्रवासी श्रमिक, (ii) कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक, (iii) निर्माण श्रमिक और (iv) फुटपाथी दुकानदार। कमिटी ने कहा कि मौसमी रोजगार और असंगठित क्षेत्रों में नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों की कमी के कारण महामारी में इन श्रमिकों पर सबसे बुरा असर हुआ। कमिटी ने केंद्र और राज्य सरकारों को निम्नलिखित उपाय करने का सुझाव दिया: (i) उद्यमिता के अवसरों को बढ़ावा देना, (ii) परंपरागत मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्रों में निवेश को आकर्षित करना और औद्योगिक क्लस्टर्स को विकसित करना, (iii) सामाजिक सुरक्षा उपायों को मजबूती देना, (iv) अनौपचारिक क्षेत्र में श्रमिकों का डेटाबेस बनाना, और (v) व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देना। कमिटी ने श्रमिकों की मदद करने और कोविड-19 महामारी की चुनौतियों और खतरों से निपटने के लिए केंद्र सरकार के विभिन्न उपायों पर गौर किया (जो शहरी क्षेत्रों में किए गए हैं):
केंद्र और राज्य सरकारों ने कई दूसरे उपाय भी किए जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण के खर्च को बढ़ाना और व्यवसायों के लिए सस्ते ऋण उपलब्ध कराना, ताकि आर्थिक गतिविधियां जारी रहें और रोजगार सृजन को बढ़ावा मिले।