17 मई, 2022 को कर्नाटक के राज्यपाल ने कर्नाटक धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण अध्यादेश, 2022 जारी किया। अध्यादेश जबरन धर्म परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाता है। दिसंबर 2021 में कर्नाटक विधानसभा ने एक बिल पारित किया था जिसके प्रावधान अध्यादेश जैसे ही थे। यह बिल विधान परिषद में पेश होने के लिए लंबित है।  

इससे पहले हरियाणा (2022), मध्य प्रदेश (2021), और उत्तर प्रदेश (2021) धर्म परिवर्तन को रेगुलेट करने वाले कानून पारित कर चुके हैं। इस ब्लॉग पोस्ट में हम कर्नाटक के अध्यादेश के मुख्य प्रावधानों पर चर्चा कर रहे हैं और अन्य राज्यों के मौजूदा कानूनों से उसकी तुलना कर रहे हैं (तालिका 2)। 

कर्नाटक का अध्यादेश किन धर्म परिवर्तनों पर प्रतिबंध लगाता है?

अध्यादेश गलत बयानी, जबरदस्तीलालचधोखाधड़ी या शादी के वादे के जरिए जबरन धर्म परिवर्तन पर रोक लगाता है। अगर कोई भी व्यक्ति, किसी अन्य व्यक्ति का गैर कानूनी तरीके से धर्म परिवर्तन करता हैतो उसे दंडित किया जाएगातथा सभी अपराध संज्ञेय और गैर जमानती होंगे। जबरन धर्म परिवर्तन करने की कोशिश पर क्या दंड दिए जा सकते हैं, उसका विवरण तालिका 1 में दिया गया है। अगर कोई संस्था (जैसे अनाथालय, वृद्धाश्रम या एनजीओ) अध्यादेश के प्रावधानों का उल्लंघन करती है तो संस्था के प्रभारी व्यक्तियों को तालिका 1 में दर्ज प्रावधानों के अनुसार दंडित किया जाएगा।

तालिका 1जबरन धर्म परिवर्तन पर दंड

धर्म परिवर्तन

कैद

जुर्माना (रुपए में)

निर्दिष्ट तरीके से किसी व्यक्ति का

3-5 वर्ष

25,000

नाबालिग, महिला, एससी/एसटी, या मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति का

3-10 वर्ष

50,000

दो या उससे अधिक व्यक्तियों का (सामूहिक धर्म परिवर्तन)

3-10 वर्ष

1,00,000

स्रोत: कर्नाटक धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का संरक्षण अध्यादेश, 2022; पीआरएस।

व्यक्ति के पूर्व धर्म में दोबारा धर्मांतरण अध्यादेश के अंतर्गत धर्म परिवर्तन नहीं माना जाएगा। इसके अतिरिक्त सिर्फ गैर कानूनी रूप से धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से शादी करना प्रतिबंधित होगा, जब तक कि धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता। 

धर्म परिवर्तन कैसे किया जा सकता है?

अध्यादेश के अनुसार, अपने धर्म को बदलने के इच्छुक व्यक्ति से यह अपेक्षित है कि वह धर्म परिवर्तन के कार्यक्रम से पहले और उसके बाद में जिला मेजिस्ट्रेट (डीएम) को एक डेक्लरेशन भेजे। धर्म परिवर्तन से पहले का डेक्लरेशन (प्रि कन्वर्जन) दोनों पक्षों (धर्म परिवर्तन करने वाला तथा धर्म परिवर्तन कराने वाला व्यक्ति) द्वारा कम से कम 30 दिन पहले सौंपा जाना चाहिए। अध्यादेश में इस प्रक्रिया का पालन न करने पर दोनों पक्षों के लिए दंड निर्दिष्ट किया गया है।

धर्म परिवर्तन से पहले का डेक्लरेशन मिलने पर डीएम सार्वजनिक रूप से प्रस्तावित धर्म परिवर्तन को अधिसूचित करेगा और 30 दिनों की अवधि के लिए उस पर आपत्तियों को निमंत्रित करेगा। अगर सार्वजनिक आपत्ति दर्ज होती है तो डीएम धर्म परिवर्तन के कारण, उद्देश्य और वास्तविक इरादे को साबित करने के लिए जांच का आदेश देगा। अगर जांच में पता चलता है कि अपराध किया गया है तो डीएम धर्म परिवर्तन कराने वाले व्यक्ति के खिलाफ क्रिमिनल कार्रवाई कर सकता है। धर्म परिवर्तन के बाद के डेक्लरेशन (धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति द्वारा) के लिए ऐसी ही प्रक्रिया निर्दिष्ट है।

उल्लेखनीय है कि विभिन्न राज्यों में से सिर्फ उत्तर प्रदेश में धर्म परिवर्तन से पहले और बाद में डेक्लरेशन की जरूरत है।

धर्म परिवर्तन के बाद भी व्यक्ति को 30 दिनों के अंदर डीएम को डेक्लरेशन (पोस्ट कन्वर्जन) देना होगा। इसके अतिरिक्त धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को डीएम के सामने अपनी पहचान और डेक्लरेशन की विषयवस्तु की पुष्टि करने के लिए हाजिर होना होगा। अगर इस दौरान कोई शिकायत प्राप्त नहीं होती तो डीएम धर्म परिवर्तन को अधिसूचित करेगा और संबंधित अधिकारियों को इसकी सूचना देगा (नियोक्ता, विभिन्न सरकारी विभागों के अधिकारी, स्थानीय सरकार के निकाय और शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुख)। 

शिकायत कौन दर्ज करा सकता है?

अन्य राज्यों के कानूनों के समान, जिस व्यक्ति का धर्म परिवर्तन गैर कानूनी रूप से किया गया है, वह या उससे रक्त, विवाह या एडॉप्शन से संबंधित व्यक्ति शिकायत दर्ज करा सकते हैं। हरियाणा और मध्य प्रदेश के कानूनों के तहत कुछ लोग (धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति से रक्त, एडॉप्शन, कस्टोडियनशिप या विवाह से संबंधित) अदालत की अनुमति लेने के बाद शिकायत दर्ज करा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक का अध्यादेश सहकर्मियों (या संबंधित व्यक्तियों) को गैरकानूनी धर्म परिवर्तन के खिलाफ शिकायत दर्ज करने की अनुमति देता है।  

तालिका 2धर्म परिवर्तन विरोधी कानूनों के बीच अंतरराज्यीय तुलना

*चिराग सिंघवी बनाम राजस्थान राज्य मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य में धर्म परिवर्तनों को रेगुलेट करने के लिए दिशानिर्देश दिए थे। 

जुलाई में राष्ट्रपति के रूप में श्री रामनाथ कोविंद का कार्यकाल पूरा हो जाएगा। उम्मीद है कि इस हफ्ते भारतीय निर्वाचन आयोग चुनावों की तारीख को अधिसूचित कर देगा। इसके मद्देनजर हम बता रहे हैं कि भारत अपने अगले राष्ट्रपति का चुनाव कैसे करेगा। 

देश के प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति संसद का अहम हिस्सा होता है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से संसद के दोनों सदनों का सत्र बुलाता है। लोकसभा और राज्यसभा द्वारा पारित कोई भी बिल तब तक कानून नहीं बनता, जब तक राष्ट्रपति की अनुमति न हो। इसके अतिरिक्त जब संसद सत्र में नहीं होती तो राष्ट्रपति के पास अध्यादेश के जरिए तत्काल प्रभाव से किसी कानून पर दस्तखत करने की शक्ति होती है।    

राष्ट्रपति कौन चुनता है?

राष्ट्रपति के निर्वाचन का तरीका संविधान के अनुच्छेद 55 में दिया गया है। दिल्ली और पुद्दूचेरी के केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) के निर्वाचित प्रतिनिधियों सहित संसद और विधानसभाओं के सदस्यों (सांसद और विधायक) का एक इलेक्टोरल कॉलेज होता है जो राष्ट्रपति का निर्वाचन करता है। कम से कम 50 इलेक्टर्स किसी उम्मीदवार का प्रस्ताव देते हैं (प्रस्तावक) और 50 दूसरे इलेक्टर उसे अपना अनुमोदन देते हैं (अनुमोदक)। इसके बाद वह व्यक्ति राष्ट्रपति के पद के लिए चुनाव लड़ सकता है। विधान परिषदों के सदस्य और राज्यसभा के 12 मनोनीत सदस्य मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लेते हैं।

प्रस्तावकों और अनुमोदकों का इतिहास

एक निश्चित संख्या में इलेक्टर्स किसी उम्मीदवार का प्रस्ताव दें, यह प्रथा पहले पांच राष्ट्रपति चुनावों के बाद शुरू हुई। तब यह बहुत आम बात थी कि बहुत से उम्मीदवार चुनाव में खड़े हो जाते थे, जबकि उनके चुने जाने की संभावना बहुत कम होती थी। 1967 के राष्ट्रपति चुनावों में 17 उम्मीदवार खड़े हुए लेकिन उनमें से नौ को एक भी वोट नहीं मिला। ऐसा 1969 के चुनावों में भी हुआ, जब 15 उम्मीदवारों में से पांच को एक भी वोट नहीं मिला। 

इस प्रथा को निरुत्साहित करने के लिए 1974 से यह नियम बनाया गया कि उम्मीदवार को चुनाव में खड़ा होने के लिए कम से कम 10 प्रस्तावकों और 10 अनुमोदकों की जरूरत होगी। इसके अलावा 2,500 रुपए के अनिवार्य सिक्योरिटी डिपॉजिट को भी शुरू किया गया। ये परिवर्तन राष्ट्रपतीय और उपराष्ट्रपतीय चुनाव एक्ट, 1952 में संशोधनों के जरिए लाए गए।   

1997 में एक्ट में फिर संशोधन किया गया। इन संशोधनों में सिक्योरिटी डिपॉजिट को बढ़ाकर 15,000 रुपए और प्रस्तावकों तथा अनुमोदकों, प्रत्येक की संख्या 50 कर दी गई है।

मतों की गणना कैसे होती है?

राष्ट्रपति चुनाव में मतों की गणना के लिए विशेष वोटिंग का इस्तेमाल किया जाता है। सांसदों और विधायकों को अलग-अलग वोटिंग वेटेज दिया जाता है। प्रत्येक विधायक की वोट वैल्यू उसके राज्य की जनसंख्या और विधायकों की संख्या के आधार पर निर्धारित होती है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के विधायक की वैल्यू 208 होगी और सिक्किम की विधायक की 7 (देखें तालिका 1)। चूंकि संवैधानिक संशोधन 2002 में पारित किया गया था इसलिए राज्य की जनसंख्या की गणना 1971 की जनगणना के आधार पर की जाती है। देश भर में विधायकों के सभी वोटों के योग को निर्वाचित सांसदों की संख्या से विभाजित करने पर एक सांसद के वोट की वैल्यू मिलती है। 

2022 में गणित क्या होगा?

2017 के राष्ट्रपति चुनावों में 31 राज्यों तथा दिल्ली और पुद्दूचेरी केंद्र शासित प्रदेशों के इलेक्टर्स ने हिस्सा लिया था। लेकिन 2019 में जम्मू एवं कश्मीर पुनर्गठन एक्ट के साथ राज्यों की संख्या घटकर 30 रह गई है। एक्ट के अनुसार, जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा भंग कर दी गई और जम्मू एवं कश्मीर यूटी के लिए एक नई विधायिका का गठन होना अभी बाकी है। राष्ट्रपति चुनावों के इलेक्टोरल कॉलेज में पहले विधायिका वाले केंद्र शासित प्रदेशों को शामिल नहीं किया जाता था। 1992 में संविधान में संशोधन किया गया ताकि दिल्ली और पुद्दूचेरी के केंद्र शासित प्रदेशों को इसमें खास तौर से शामिल किया जा सके। उल्लेखनीय है कि जम्मू एवं कश्मीर के विधायक भविष्य में राष्ट्रपति चुनावों में हिस्सा ले सकें, इसके लिए संसद में एक ऐसा ही संवैधानिक संशोधन पारित करना होगा। 

इस अनुमान के आधार पर कि जम्मू एवं कश्मीर 2022 के राष्ट्रपति चुनावों में शामिल नहीं है, इन चुनावों में विधायकों के वोटों की कुल संख्या को समायोजित किया जाएगा। कुल 4,120 विधायकों की संख्या से जम्मू एवं कश्मीर के 87 विधायकों को हटा दिया दिया जाना चाहिए। जम्मू और कश्मीर के वोट शेयर 6,264 को भी कुल वोट शेयर 549,495 से कम किया जाना चाहिए। इन परिवर्तनों को समायोजित करने के बाद, 2022 के राष्ट्रपति चुनावों में 4,033 विधायक भाग लेंगे और सभी विधायकों का संयुक्त वोट शेयर 5,43,231 होगा। 

तालिका 1: 2017 के राष्ट्रपति चुनावों में विभिन्न राज्यों के निर्वाचित विधायकों के वोटों की वैल्यू 

राज्य का नाम

विधानसभा सीटों की संख्या 

जनसंख्या (1971 जनगणना)

प्रत्येक विधायक के वोट की वैल्यू

राज्य के वोटों की कुल वैल्यू (ग x घ)

आंध्र प्रदेश

175

2,78,00,586

159

27,825

अरुणाचल प्रदेश

60

4,67,511

8

480

असम

126

1,46,25,152

116

14,616

बिहार

243

4,21,26,236

173

42,039

छत्तीसगढ़

90

1,16,37,494

129

11,610

गोवा

40

7,95,120

20

800

गुजरात

182

2,66,97,475

147

26,754

हरियाणा

90

1,00,36,808

112

10,080

हिमाचल प्रदेश

68

34,60,434

51

3,468

जम्मू और कश्मीर

87

63,00,000

72

6,264

झारखंड

81

1,42,27,133

176

14,256

कर्नाटक

224

2,92,99,014

131

29,344

केरल

140

2,13,47,375

152

21,280

मध्य प्रदेश

230

3,00,16,625

131

30,130

महाराष्ट्र

288

5,04,12,235

175

50,400

मणिपुर

60

10,72,753

18

1,080

मेघालय

60

10,11,699

17

1,020

मिजोरम

40

3,32,390

8

320

नगालैंड

60

5,16,449

9

540

ओड़िशा

147

2,19,44,615

149

21,903

पंजाब

117

1,35,51,060

116

13,572

राजस्थान

200

2,57,65,806

129

25,800

सिक्किम

32

2,09,843

7

224

तमिलनाडु

234

4,11,99,168

176

41,184

तेलंगाना

119

1,57,02,122

132

15,708

त्रिपुरा

60

15,56,342

26

1,560

उत्तराखंड

70

44,91,239

64

4,480

उत्तर प्रदेश

403

8,38,49,905

208

83,824

पश्चिम बंगाल

294

4,43,12,011

151

44,394

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली

70

40,65,698

58

4,060

पुद्दूचेरी

30

4,71,707

16

480

कुल

4,120

54,93,02,005

 

5,49,495

स्रोत: भारतीय निर्वाचन आयोग (2017); पीआरएस।

एक सांसद के वोट की वैल्यू 2017 में 708 से घटकर 2022 में 700 हो जाएगी।

सांसद के वोट की वैल्यू =   विधायकों के सभी वोट्स की कुल वैल्यू =  543231 = 700 
                          निर्वाचित सांसदों की कुल संख्या         776

उल्लेखनीय है कि सांसदों के वोट की वैल्यू को सबसे करीबी होल नंबर में राउंड ऑफ कर दिया जाता है (यानी उसे पूर्णांक बना दिया जाता है)। इससे सभी सांसदों के वोटों की कंबाइंड वैल्यू 543,200 (700 776) हो जाती है।

जीतने के लिए कितने वोट्स की जरूरत होती है?

राष्ट्रपति पद का चुनाव सिंगल ट्रांसफरेबल वोट यानी एकल हस्तांतरणीय वोट प्रणाली के जरिए किया जाता है। इस प्रणाली में इलेक्टर्स वरीयता के क्रम में उम्मीदवारों को रैंक करते हैं। कोई उम्मीदवार तब विजेता होता है जब उसे वैध वोटों की कुल वैल्यू का आधे से अधिक हासिल हो। इसे कोटा कहा जाता है।    

कल्पना कीजिए कि हर इलेक्टर वोट देता है और हर वोट वैध होता है:

कोटा = सांसदों के वोट्स की कुल वैल्यू + विधायकों के वोट्स की कुल वैल्यू + 1 
                                 2

= 543200 + 543231 +1     =   1086431 +1     =    543,216 
          2                       2

दलबदल विरोधी कानून जोकि सांसदों को दलगत विचारधारा से इतर जाने से रोकता है, वह राष्ट्रपति चुनावों पर लागू नहीं होता। इसका मतलब यह है कि सांसद और विधायक अपन बैलेट गुप्त रख सकते हैं। 

वोटों की गिनती राउंट्स में होती है। पहले राउंड में गिने जाने वाले हर बैलेट पर पहला प्रिफरेंस लिखा जाता है। अगर किसी उम्मीदवार को इस चरण में कोटा मिलता है तो उसे विजेता घोषित कर दिया जाता है। अगर पहले राउंड में किसी उम्मीदवार को कोटा नहीं मिलता तो दूसरे राउंड की गिनती शुरू हो जाती है। जिस उम्मीदवार को पहले राउंड में सबसे कम वोट मिले थे, इस राउंड में उसके वोट ट्रांसफर हो जाते हैं। यानी ये वोट अब उस उम्मीदवार को चले जाते हैं जिसे हर बैलेट में दूसरा प्रिफरेंस मिला था। यह प्रक्रिया तब तक चलती है, जब तक सिर्फ एक उम्मीदवार रह जाता है। यह जरूरी नहीं है कि कोई इलेक्टर सभी उम्मीदवारों के लिए अपने प्रिफरेंस बताए। अगर बैलेट में कोई दूसरा प्रिफरेंस नहीं बताया गया है तो बैलेट को दूसरे राउंड में एग्जॉस्टेड बैलेट माना जाएगा और आगे गिनती में वह शामिल नहीं होगा। 

पांचवे राष्ट्रपति चुनाव, जिसमें श्री वी.वी. गिरी को चुना गया था, वह अकेला अवसर था जब किसी उम्मीदवार ने पहले राउंड में कोटा हासिल नहीं किया था। फिर दूसरे फ्रिफरेंस वोट्स का मूल्यांकन किया गया था और श्री गिरी को 8,36,337 में से 4,20,077 मिले थे और वह राष्ट्रपति घोषित कर दिए गए थे। 

भारत के अकेले राष्ट्रपति जिन्होंने निर्विरोध जीत हासिल की 

भारत के छठे राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी (1977-1982) अकेले राष्ट्रपति थे जिन्हें निर्विरोध चुना गया था। 1977 के चुनावों में 37 उम्मीदवारों ने अपने नामांकन भरे थे, लेकिन छानबीन करने पर 36 उम्मीदवारों के नामांकन पत्र रिटर्निंग ऑफिसर ने खारिज कर दिए और श्री रेड्डी एकमात्र उम्मीदवार बचे थे।