पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों ने परीक्षाओं में नकल को रोकने के लिए विभिन्न कानून बनाए हैं, खासकर लोक सेवा आयोगों की भर्तियों से जुड़ी परीक्षाओं के लिए। न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार, उत्तराखंड में कई मौकों पर नकल और पेपर लीक होने की घटनाएं हुई हैं जिनमें 2016 में पंचायत विकास अधिकारी भर्ती परीक्षा और 2021 में उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग परीक्षा शामिल हैं। जनवरी 2023 में उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के पेपर भी लीक हो गए थे। राज्य में नकल की हाल की घटनाओं के चलते विरोध हुए और अशांति भड़की। इसके बाद 11 फरवरी, 2023 को राज्य ने सार्वजनिक परीक्षाओं में अनुचित साधनों के इस्तेमाल पर रोक लगाने और दंड देने के लिए एक अध्यादेश जारी किया। मार्च 2023 में उत्तराखंड विधानसभा ने अध्यादेश की जगह बिल पारित किया। अध्यादेश के लागू होने के बाद कई खबरें आई हैं कि फॉरेस्ट गार्ड और सेक्रेटेरियट गार्ड जैसे पदों की सार्वजनिक परीक्षाओं में नकल करने पर उम्मीदवारों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें परीक्षा देने से प्रतिबंधित किया गया। नकल के ऐसे ही मामले दूसरे राज्यों में भी सामने आए हैं। न्यूज रिपोर्टों के अनुसार, 2015 के बाद से गुजरात में ऐसी कोई भर्ती परीक्षा नहीं हुई है, जिसमें पेपर लीक नहीं हुआ हो। फरवरी 2023 में गुजरात विधानसभा ने भी सार्वजनिक परीक्षाओं में नकल के लिए सजा निर्दिष्ट करने वाला एक कानून पारित किया। अन्य राज्यों जैसे राजस्थान (2022 में एक्ट पारित किया गया), उत्तर प्रदेश (1998 में एक्ट पारित किया गया) और आंध्र प्रदेश (1997 में एक्ट पारित किया गया) में भी इसी तरह के कानून हैं। इस ब्लॉग में हम कुछ राज्यों के नकल विरोधी कानूनों के बीच तुलना कर रहे हैं (तालिका 1 देखें), और कुछ विचारणीय मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।
नकल विरोधी कानूनों के विशिष्ट प्रावधान
राज्यों के नकल विरोधी कानूनों में आमतौर पर ऐसे प्रावधान होते हैं जो सरकारी परीक्षाओं में परीक्षार्थियों और अन्य समूहों द्वारा अनुचित साधनों के उपयोग पर दंड निर्दिष्ट करते हैं। इन परीक्षाओं में राज्यों के लोक सेवा आयोगों और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा बोर्डों द्वारा संचालित परीक्षाएं शामिल हैं। मोटे तौर पर, अनुचित साधन के मायने हैं, जब उम्मीदवार अनाधिकृत मदद ले या लिखित सामग्री का अनाधिकृत इस्तेमाल करे। इन कानूनों में परीक्षाओं को संचालित करने के लिए जिम्मेदार लोगों को भी इस बात से प्रतिबंधित किया गया है कि वे अपनी भूमिका के कारण प्राप्त किसी भी जानकारी का खुलासा करें। गुजरात, उत्तराखंड और राजस्थान के हालिया कानूनों में अनुचित साधनों की परिभाषा में उम्मीदवारों का इम्पर्सनैशन (यानी किसी दूसरे की जगह परीक्षा देना) और एग्जाम पेपर को लीक करना भी शामिल है। उत्तराखंड, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश इलेक्ट्रॉनिक एड्स के उपयोग पर रोक लगाते हैं। इस तरह के अनुचित साधनों का उपयोग करने के लिए अधिकतम जेल की सजा उत्तर प्रदेश में तीन महीने से लेकर आंध्र प्रदेश में सात वर्ष तक है।
विचारणीय मुद्दे
गुजरात और उत्तराखंड में नकल विरोधी कानूनों में नकल के लिए अपेक्षाकृत कड़े प्रावधान हैं। उत्तराखंड के कानून में नकल करते हुए या अनुचित साधनों का इस्तेमाल करते हुए पकड़े जाने पर तीन वर्ष की जेल की सजा है (पहले अपराध के लिए)। चूंकि एक्ट विभिन्न प्रकार के अनुचित साधनों के बीच अंतर नहीं करता है, इसलिए संभव है कि परीक्षार्थी को होने वाली सजा उसके अपराध के अनुपात में न हो। अधिकतर अन्य राज्यों में, ऐसे अपराधों के लिए कारावास की अधिकतम अवधि तीन वर्ष है। आंध्र प्रदेश में न्यूनतम कारावास की अवधि तीन वर्ष है। हालांकि सभी राज्यों में दंड के संबंध में एक सीमा दी गई है, यानी नकल के तरीके और उस नकल के असर के आधार पर जज कारावास की अवधि (निर्दिष्ट सीमा के भीतर) तय कर सकता है। तालिका 1 में आठ राज्यों में कुछ अपराधों की सजा के बीच तुलना की गई है।
उत्तराखंड के कानून में एक प्रावधान है जिसके तहत चार्जशीट दायर होने पर परीक्षार्थी को दो से पांच वर्ष के लिए राज्य की प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने से रोक दिया जाता है, भले ही दोष सिद्ध न हुआ हो। इस प्रकार यह कानून आरोपी को सिर्फ मुकदमा चलने पर परीक्षा देने से रोकता है, जबकि यह संभावना हो सकती है कि वह व्यक्ति अंततः निर्दोष साबित हो। गुजरात और राजस्थान के कानून भी उम्मीदवारों को दो वर्षों के लिए निर्दिष्ट परीक्षाओं में बैठने से रोकते हैं, लेकिन सिर्फ तभी जब उनका दोष सिद्ध हो गया हो।
विभिन्न राज्यों में इन कानूनों का दायरा भी अलग-अलग है। उत्तराखंड और राजस्थान में नकल विरोधी कानून सिर्फ राज्य सरकार के विभागों (जैसे लोक सेवा) की भर्ती परीक्षाओं पर लागू होते हैं। अन्य छह राज्यों में ये कानून डिप्लोमा और डिग्री जैसी शैक्षणिक योग्यता देने वाले शैक्षणिक संस्थानों की परीक्षाओं पर भी लागू होते हैं। उदाहरण के लिए गुजरात माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की परीक्षाएं भी गुजरात सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित तरीकों की रोकथाम) एक्ट, 2023 के दायरे में आती हैं। सवाल यह है कि क्या शैक्षणिक संस्थानों की परीक्षाओं में भी वैसी ही सजा होना उचित है, जैसी सरकारी नौकरियों में भर्ती परीक्षाओं के लिए दी जाती है, चूंकि दोनों स्थितियों में होने वाला असर अलग-अलग होता है।
स्रोत: राजस्थान सार्वजनिक परीक्षा (भर्ती में अनुचित साधनों की रोकथाम के उपाय) एक्ट, 2022; उत्तर प्रदेश सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) एक्ट, 1998; छत्तीसगढ़ सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) एक्ट, 2008; उड़ीसा परीक्षा संचालन एक्ट, 1988; आंध्र प्रदेश सार्वजनिक परीक्षा (कदाचार और अनुचित साधनों की रोकथाम) एक्ट, 1997; झारखंड परीक्षा संचालन एक्ट, 2001, उत्तराखंड प्रतियोगी परीक्षा (भर्ती में अनुचित साधनों की रोकथाम और रोकथाम के उपाय) एक्ट, 2023, गुजरात सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित तरीकों की रोकथाम) एक्ट, 2023; पीआरएस।
13 जून, 2022 को पश्चिम बंगाल सरकार ने एक बिल पास किया जिसमें राज्य के 31 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों (जैसे कोलकाता विश्वविद्यालय, जाधवपुर विश्वविद्यालय) में राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को चांसलर बनाए जाने का प्रावधान है। जैसा कि उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2019-20) कहता है, भारत में उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले 85% विद्यार्थी राज्य संचालित विश्वविद्यालयों में पढ़ते है। इस ब्लॉग में हम राज्यों के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की भूमिका पर चर्चा करेंगे।
सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में चांसलर यानी कुलाधिपति की क्या भूमिका होती है?
राज्यों में सार्वजनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों के जरिए होती है। अधिकतर कानूनों में राज्यपाल को इन विश्वविद्यालयों के चांसलर के रूप में नामित किया जाता है। चांसलर सार्वजनिक विश्ववविद्यालयों के प्रमुख के तौर पर काम करते हैं और विश्वविद्यालय में वाइस-चांसलर की नियुक्ति करते हैं। इसके अतिरिक्त अगर विश्वविद्यालय में कोई कार्रवाई मौजूदा कानूनों के अनुसार नहीं होती तो चांसलर द्वारा उसे अमान्य घोषित किया जा सकता है। कुछ राज्यों में (जैसे बिहार, गुजरात और झारखंड) चांसलर के पास विश्वविद्यालय में मुआयना करने की शक्ति होती है। चांसलर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता करते हैं और मानद उपाधियां देने के प्रस्तावों की पुष्टि करते हैं। लेकिन तेलंगाना में स्थिति फर्क है। वहां राज्य सरकार चांसलर की नियुक्ति करती है।
विश्वविद्यालय के विभिन्न निकायों (जैसे विश्वविद्यालय का कोर्ट/सीनेट) की बैठकों की अध्यक्षता भी चांसलर द्वारा की जाती है। कोर्ट/सीनेट विश्वविद्यालय के विकास से संबंधित निम्नलिखित नीतिगत मामलों पर फैसल लेती है: (i) विश्वविद्यालयों में नए विभागों की स्थापना, (ii) डिग्री और टाइटिल्स देना और वापस लेना, और (iii) फेलोशिप्स की शुरुआत।
पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) बिल, 2022 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को 31 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के चांसलर के तौर पर नामित किया गया है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री (राज्यपाल के स्थान पर) इन विश्वविद्यालयों की प्रमुख होंगी और विश्वविद्यालयों के निकायों (जैसे कोर्ट/सीनेट) की बैठकों की अध्यक्षता करेंगी।
क्या चांसलर के तौर पर राज्यपाल के पास अपने विवेक का इस्तेमाल करने की शक्ति है?
1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल अलग वैधानिक कार्य करने के दौरान (जैसे बतौर चांसलर) मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
सरकारिया और पुंछी आयोगों ने शिक्षण संस्थानों में राज्यपाल की भूमिका पर भी सुझाव दिए थे। इन दोनों आयोगों ने सहमति जताई थी कि वैधानिक कार्य करने के दौरान राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह मानने को कानूनी रूप से बाध्य नहीं होते। हालांकि अगर राज्यपाल संबंधित मंत्री से सलाह ले तो यह लाभप्रद होता है। सरकारिया आयोग ने सुझाव दिया था कि राज्य विधानमंडलों को राज्यपाल को ऐसी वैधानिक शक्तियां प्रदान करने से बचना चाहिए जिन्हें संविधान में परिकल्पित नहीं किया गया है। पुंछी आयोग ने कहा था कि अगर राज्यपाल विश्वविद्यालय के चांसलर होंगे तो इस पद के विवादग्रस्त होने या सार्वजनिक आलोचना का शिकार होने की आशंका हो सकती है। इसलिए राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक प्रावधानों तक सीमित होनी चाहिए। पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) बिल, 2022 के उद्देश्यों और कारणों के कथन में पुंछी आयोग के इस सुझाव का भी उल्लेख है।
हाल के घटनाक्रम
हाल ही में कई राज्यों ने सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जिम्मेदारियों को कम करने के लिए कदम उठाए हैं। अप्रैल 2022 में तमिलनाडु विधानसभा ने दो बिल पास करके, वाइस चांसलर को नियुक्त करने की शक्ति (सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में) राज्यपाल से राज्य सरकार को हस्तांतरित कर दी। 8 जून, 2022 तक इन बिलों पर राज्यपाल ने सम्मति नहीं दी है।
इससे पहले 2021 में महाराष्ट्र ने राज्य के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर की नियुक्ति की प्रक्रिया में संशोधन किया। संशोधन से पूर्व एक सर्च कमिटी चांसलर (जो राज्यपाल है) को कम से कम पांच नामों की सूची भेजती थी। चांसलर सूची में से किसी एक व्यक्ति को वाइस चांसलर नियुक्त कर सकता है, या नई सूची का सुझाव देने को कह सकता है। 2021 के संशोधनों में सर्च कमिटी के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वह पहले राज्य सरकार को नामों की सूची भेजे। राज्य सरकार चांसलर को सूची में से दो नामों (मूल सूची से) का सुझाव देगी। चांसलर को 30 दिनों के भीतर पैनल में से एक नाम को वाइस चांसलर नियुक्त करना होगा। संशोधन के अनुसार, चांसलर के पास नामों की नई सूची मांगने का कोई विकल्प नहीं होगा।