2 अक्टूबर, 2021 को स्वच्छ भारत अभियान (एसबीएम) के सात साल पूरे हुए हैं। 2 अक्टूबर, 2019 को स्वच्छ भारत के लक्ष्य को पूरा करने के मकसद से इसे 2 अक्टूबर, 2014 को शुरू किया गया था। इस अभियान का उद्देश्य देश को खुले में शौच से मुक्त करना, मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करना और वैज्ञानिक तरीके से ठोस कचरा प्रबंधन करना है। इस ब्लॉग पोस्ट में हम स्वच्छ भारत अभियान के तहत सैनिटेशन कवरेज और इस योजना की प्रगति पर चर्चा कर रहे हैं।

पिछले दशकों में देशव्यापी सैनिटेशन कार्यक्रम

जनगणना के अनुसार, 1981 में भारत में ग्रामीण स्तर पर सैनिटेशन कवरेज सिर्फ 1% था।  

सैनिटेशन से संबंधित भारत का पहला देशव्यापी कार्यक्रम केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) था। इसे ग्रामीण क्षेत्रों में सैनिटेशन की सुविधाएं प्रदान करने के उद्देश्य से 1986 में शुरू किया गया था। इसके बाद 1999 में सीआरएसपी को पुनर्गठित किया गया और फिर टोटल सैनिटेशन कैंपेन (टीएससी) के तौर पर शुरू किया गया। जबकि सीआरएसपी एक आपूर्ति संचालित, इंफ्रास्ट्रक्चर केंद्रित कार्यक्रम था जोकि सबसिडी पर आधारित था, टीएससी मांग आधारित, समुदाय के नेतृत्व वाला, परियोजना आधारित कार्यक्रम था जो जिले में एक इकाई के तौर पर संचालित किया जाता था। 

2001 में 22% ग्रामीण परिवारों को शौचालयों की सुविधा प्राप्त थी। 2011 में यह बढ़कर 32.7हो गया। 2012 में सैचुरेशन एप्रोच के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों में सैनिटेशन कवरेज में तेजी लाने और व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों (आईएचएचएल) के लिए इनसेंटिव्स को बढ़ाने के माध्यम से टीएससी का निर्मल भारत अभियान (एनबीए) के तौर पर कायापलट किया गया।

ग्रामीण सैनिटेशन की तुलना में कुछ कार्यक्रम शहरी सैनिटेशन की कमियों को दूर करने के लिए चलाए गए। अस्सी के दशक में एकीकृत निम्न लागत वाली सैनिटेशन योजना परिवारों को निम्न लागत पर शौचालय बनाने के लिए सबसिडी देती थी। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय स्लम विकास परियोजना और उसके रिप्लेसमेंट कार्यक्रम वाल्मीकि अंबेडकर आवास योजना को 2001 में शुरू किया गया था। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य झुग्गी-झोपड़ी इलाकों में सामुदायिक शौचालय बनाना था। 2008 में मानव मल और संबंधित सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों का प्रबंधन करने के लिए राष्ट्रीय शहरी सैनिटेशन नीति (एनयूएसपी) की घोषणा की गई

2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की गई। इसके दो घटकों स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) और स्वच्छ भारत मिशन (शहरी) क्रमशः ग्रामीण और शहरी सैनिटेशन पर केंद्रित हैं। इस अभियान के ग्रामीण घटक को पेयजल एवं सैनिटेशन विभाग तथा शहरी घटक को आवासन एवं शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा लागू किया जाता है। 2015 में नीति आयोग के अंतर्गत स्वच्छ भारत अभियान पर मुख्यमंत्रियों के उपसमूह ने पाया कि एसबीएम और पहले के कार्यक्रमों के बीच कुछ अंतर था। अंतर यह था कि नया कार्यक्रम सैनिटेशन के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश में सहयोग हेतु अधिक भागीदारों को आकर्षित करने का प्रयास करता है।

स्वच्छ भारत मिशन- ग्रामीण (एसबीएम-ग्रामीण) 

मुख्यमंत्रियों के उपसमूह (2015) ने कहा था कि भारत के 25 करोड़ में से आधे परिवारों को उन जगहों के निकट शौचालय उपलब्ध नहीं, जहां वे रहते हैं। उल्लेखनीय है कि 2015-19 की अवधि के दौरान पेयजल एवं सैनिटेशन विभाग ने एसबीएम-ग्रामीण पर अपने व्यय का एक बड़ा हिस्सा खर्च किया (देखें रेखाचित्र 1)। 

रेखाचित्र 1: 2014-22 के दौरान स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण पर व्यय 

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नोट: 2020-221 के आंकड़े संशोधित और 2021-22 के बजट अनुमान हैं। 2019-20 से पहले का व्यय पूर्ववर्ती पेयजल एवं सैनिटेशन मंत्रालय का था। 
स्रोत: केंद्रीय बजट 2014-15 से 2021-22; पीआरएस

स्वच्छ भारत-ग्रामीण के व्यय में 2015-16 (2,841 करोड़ रुपए) से 2017-18 (16,888 करोड़ रुपए) के बीच लगातार बढ़ोतरी हुई, और फिर बाद के वर्षों में गिरावट। इसके अलावा 2015-18 के दौरान योजना का व्यय बजटीय राशि से 10से अधिक बढ़ गया। हालांकि 2018-19 से हर साल आबंटित राशि से कुछ कम उपयोग हुआ है।

पेयजल एवं सैनिटेशन विभाग के अनुसार, 2014-15 में 43.79% ग्रामीण परिवारों को शौचालय उपलब्ध था, जोकि 2019-20 में बढ़कर 100हो गया (देखें रेखाचित्र 2)।

हालांकि 15वें वित्त आयोग (2020) ने कहा था कि शौचालयों की उपलब्धता के बावजूद खुले में शौच की प्रथा चालू है और इस बात पर जोर दिया कि लोग शौचालयों का उपयोग करते रहें, इस आदत को बरकरार रखने की जरूरत है। ग्रामीण विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने 2018 में ऐसा ही मामला उठाया था और कहा था कि "यहां तक कि 100% घरेलू शौचालय वाले गांवों को भी खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि सभी निवासी उनका उपयोग करना शुरू न कर दें"। स्टैंडिंग कमिटी ने शौचालयों के निर्माण की गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े किए थे और गौर किया था कि सरकार नॉन फंक्शनल शौचालयों को भी गिन रही है जिससे बढ़े हुए आंकड़े मिल रहे हैं।

रेखाचित्र 2: ग्रामीण परिवारों के लिए शौचालयों का कवरेज

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स्रोत: एसबीएम (ग्रामीण) का डैशबोर्डजल शक्ति मंत्रालय; पीआरएस

15वें वित्त आयोग ने यह भी कहा है कि योजना गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के परिवारों और गरीबी रेखा से ऊपर के चुनींदा परिवारों को लैट्रिन बनाने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन देती है। उसने कहा कि बीपीएल परिवारों को खोजने में गलतियां की जा रही हैं, जिससे बहुत से इसमें शामिल नहीं हो पाते। आयोग ने सुझाव दिया था कि 100% ओडीएफ दर्जा हासिल करने के लिए योजना का सार्वभौमीकरण किया जाए। 

मार्च 2020 में पेयजल एवं सैनिटेशन मंत्रालय ने एसबीएम-ग्रामीण के चरण दो की शुरुआत की जोकि ओडीएफ प्लस पर केंद्रित होगा और 1.41 लाख करोड़ रुपए के परिव्यय से 2020-21 से 2024-25 के बीच लागू किया जाएगा। ओडीएफ प्लस में ओडीएफ दर्जे को बरकरार रखना, तथा ठोस एवं तरल कचरा प्रबंधन शामिल हैं। विशेष रूप से यह देश की प्रत्येक ग्राम पंचायत में ठोस एवं तरल कचरे के प्रभावी प्रबंधन को सुनिश्चित करेगा।

स्वच्छ भारत मिशन- शहरी (एसबीएम-शहरी) 

एसबीएम-शहरी का उद्देश्य देश के शहरों को खुले में शौच से मुक्त करना और देश के 4000+ शहरों में म्यूनिसिपल ठोस कचरे का 100वैज्ञानिक प्रबंधन हासिल करना है। इनमें से एक लक्ष्य यह था कि 2 अक्टूबर, 2019 तक 66 लाख व्यक्तिगत घरेलू शौचालय (आईएचएचएलज़) बनाए जाएं। हालांकि 2019 में इस लक्ष्य को कम करके 59 लाख किया गया। इस लक्ष्य को 2020 तक हासिल करना था (देखें तालिका 1)। 

तालिका 130 दिसंबर, 2020 तक स्वच्छ भारत मिशन- शहरी की प्रगति

लक्ष्य

मूल लक्ष्य 

संशोधित लक्ष्य (2019 में संशोधित)  

वास्तविक निर्माण

व्यक्तिगत घरेलू लैट्रिन

66,42,000

58,99,637

62,60,606

सामुदायिक एवं सार्वजनिक शौचालय

5,08,000

5,07,587

6,15,864

 स्रोत: स्वच्छ भारत मिशन शहरी- डैशबोर्ड; पीआरएस 

रेखाचित्र 3: 2014-22 के दौरान स्वच्छ भारत मिशन-शहरी पर व्यय (करोड़ रुपए में)

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नोट: 2020-221 के आंकड़े संशोधित और 2021-22 के बजट अनुमान हैं। 

स्रोत: केंद्रीय बजट 2014-15 से 2021-22; पीआरएस

 

शहरी विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने 2020 की शुरुआत में यह जानकारी दी कि पूर्वी दिल्ली सहित कई क्षेत्रों में योजना के तहत बनाए गए शौचालय बहुत खराब क्वालिटी के हैं, और उनकी उचित देखभाल भी नहीं की जाती। इसके अतिरिक्त खुले में शौच से मुक्त 4,320 शहरों में से सिर्फ 1,276 में पानी, देखरेख और साफ-सफाई वाले शौचालय हैं। इसके अतिरिक्त उसने सितंबर 2020 में यह भी कहा कि कार्यक्रम के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए राज्यों/यूटीज़ में ठोस कचरा प्रबंधन के लिए असमान धन वितरण को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। 

शहरी विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2021) ने स्रोत पर कचरे को अलग-अलग करने और कचरा प्रोसेसिंग के लक्ष्यों को हासिल करने की धीमी गति पर भी चिंता जताई थी। 2020-21 के दौरान एसबीएम-शहरी के अंतर्गत इनके लिए निर्धारित लक्ष्य क्रमशः 78% और 68% थे। इसके अतिरिक्त कचरे को घर-घर जाकर जमा करने से संबंधित दूसरे लक्ष्य भी पूरा नहीं हुए हैं (देखें तालिका 2)।

तालिका 2: 30 दिसंबर, 2020 तक स्वच्छ भारत मिशन-शहरी की प्रगति 

लक्ष्य

लक्ष्य 

मार्च 2020 तक प्रगति

दिसंबर 2020 तक प्रगति

घर-घर कचरा एकत्रण (वॉर्ड में)

86,284

81,535 (96%)

83,435 (97%)

स्रोत पर कचरे को अलग-अलग करना (वॉर्ड में) 

86,284

64,730 (75%)

67,367 (78%)

कचरे की प्रोसेसिंग (में) 

100%

65%

68%

 स्रोत: शहरी विकास संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2021); पीआरएस 

फरवरी 2021 में वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में घोषणा की कि शहरी स्वच्छ भारत मिशन 2.0 को शुरू किया जाएगा। शहरी स्वच्छ भारत मिशन 2.0 निम्नलिखित पर केंद्रित होगा(i) कीचड़ का प्रबंधन(ii) अपशिष्ट जल उपचार, (iii) कचरे को स्रोत पर ही अलग-अलग करना, (iv) सिंगल-यूज़ प्लास्टिक को कम करना, और (v) निर्माण, ध्वंस के कारण होने वाले वायु प्रदूषण को रोकना, और डंप साइट्स का बायो-रेमिडिएशन। 1 अक्टूबर, 2021 को प्रधानमंत्री ने एसबीएम-शहरी 2.0 को शुरू किया जिसका उद्देश्य हमारे सभी शहरों को गारबेज फ्री बनाना है। 

18 अक्टूबर को यह खबर आई कि केंद्र सरकार को नागरिकता (संशोधन) एक्ट, 2019 के तहत नियम बनाने के लिए और समय दिया गया है। दिसंबर 2019 में इस एक्ट को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली थी और जनवरी 2020 में यह कानून प्रभावी हुआ था। इसी तरह नई श्रम संहिताओं को संसद द्वारा पारित किए लगभग दो वर्ष बीत गए हैं और अंतिम नियमों को अब भी प्रकाशित किया जाना बाकी है। इससे सवाल उठता है कि सरकार नियम बनाने के लिए कितना समय ले सकती है और इसे निर्देशित करने वाली प्रक्रिया क्या है। इस ब्लॉग में हम इस पर चर्चा कर रहे हैं।

संविधान के तहत विधायिका के पास कानून बनाने की शक्ति होती है और कार्यपालिका उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार होती है। अक्सर विधायिका सामान्य सिद्धांत और नीतियों के साथ किसी कानून को लागू करती है और कार्यपालिका को यह अधिकार सौंपती है कि वह कानून को लागू करने के कुछ विवरणों को निर्दिष्ट करे। उदाहरण के लिए नागरिकता संशोधन एक्ट यह प्रावधान करता है कि कौन नागरिकता के लिए पात्र होगा। किसी व्यक्ति को रजिस्ट्रेशन या नैचुरलाइजेशन का सर्टिफिकेट जारी किया जाएगा, जोकि उन शर्तों, सीमाओं और तरीकों के अधीन होगा, जिन्हें केंद्र सरकार नियमों के जरिए निर्दिष्ट कर सकती है। नियम बनाने में देर करने से, कानून को लागू करने में देरी होगी, चूंकि जरूरी विवरण उपलब्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिए नई श्रम संहिताएं गिग अर्थव्यवस्था के वर्कर्स जैसे स्विगी और जोमैटो डिलिवरी पर्सन्स और ऊबर और ओला ड्राइवर्स के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना प्रदान करती हैं। इन संहिताओं के ये लाभ अब भी मिलने बाकी हैं, चूंकि नियम अभी अधिसूचित नहीं किए गए हैं।  

अनुपालन के लिए समय सीमा और नियंत्रण एवं संतुलन

संसद के प्रत्येक सदन में सदस्यों की एक समिति होती है जोकि नियमों, रेगुलेशंस और सरकारी आदेशों की विस्तार से समीक्षा करती है। इस समिति को अधीनस्थ विधान संबंधी समिति कहते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इन समितियों के सुझावों ने अधीनस्थ विधानों को तैयार करने की प्रक्रिया और समय सीमाओं को विकसित किया है। यह संसदीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी संसदीय प्रक्रिया की नियम पुस्तिका में प्रदर्शित है। यह नियम पुस्तिका इस संबंध में विस्तृत दिशानिर्देश प्रदान करती है। 

सामान्य तौर पर जिस तारीख को कोई कानून लागू होता है, उस तारीख से छह महीने के भीतर नियम, रेगुलेशंस और उप कानूनों को तैयार किया जाना चाहिए। उसके बाद संबंधित मंत्रालय को अधीनस्थ विधान संबंधी संसदीय समितियों से समय बढ़ाने की मांग करनी होती है। एक बार में अधिकतम तीन महीने का समय और मिल सकता है। उदाहरण के लिए, इससे पहले नागरिकता संशोधन एक्ट, 2019 के तहत नियम बनाने के लिए अतिरिक्त समय तब दिया गया था, जब कोविड-19 महामारी शुरू हो गई थी।

गतिविधि

समय सीमा

  • नियमों, रेगुलेशंस और उप कानूनों का प्रकाशन, जहां एक्ट के तहत सार्वजनिक परामर्श जरूरी है
  • सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए न्यूनतम 30 दिन
  • परिणामस्वरूप, प्रकाशन के लिए,
  • तीन महीने, अगर सुझावों की संख्या कम है
  • छह महीने, अगर सुझावों की संख्या अधिक है
  • नियमों, रेगुलेशंस और उप कानूनों का प्रकाशन, जहां एक्ट के तहत सार्वजनिक परामर्श जरूरी नहीं है
  • संबंधित एक्ट के प्रभावी होने की तारीख से छह महीने
  • प्रकाशन के लिए समय सीमा को बढ़ाना
  • एक बार में अधिकतम तीन महीने

निगरानी सुनिश्चित करने के लिए हर मंत्रालय को त्रैमासिक आधार पर उन अधीनस्थ विधानों की रिपोर्ट तैयार करनी होती है, जो बनाए नहीं गए और उन्हें कानून एवं न्याय मंत्रालय के साथ साझा करना होता है। ये रिपोर्ट पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं हैं।

विलंब को दूर करने के लिए सुझाव

पिछले कुछ वर्षों के दौरान सदन के दोनों सदनों की अधीनस्थ विधान संबंधी समितियों ने गौर किया है कि कई मंत्रालयों ने उपरिलिखित समय सीमाओं का कई बार पालन नहीं किया। इस संबंध में उन्होंने कई मुख्य सुझाव दिए: 

  • विलंब के कारणों पर वक्तव्य: 2011 में राज्यसभा की समिति ने सुझाव दिया था कि संसद के सामने नियम/रेगुलेशंस पेश करते समय, मंत्रालय को विलंब, अगर हुआ है, के कारण बताने वाला वक्तव्य भी पेश करना चाहिए।
  • कैबिनेट सचिव द्वारा विलंब की जांच: 2016 में राज्यसभा की समिति ने सुझाव दिया था कि कैबिनेट सचिव को संबंधित मंत्रालयों/विभागों के सचिवों को बुलाने और उनसे अधीनस्थ विधान बनाने में देरी के कारण पूछने की परंपरा को जारी रखना चाहिए। प्रत्येक मंत्रालय को कैबिनेट सचिवालय को त्रैमासिक स्टेटस रिपोर्ट भेजनी चाहिए।
  • दिशानिर्देशों पर पुनर्विचार2011 में लोकसभा की समिति ने सुझाव दिया था कि 1986 के दिशानिर्देशों पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए और समिति के सभी प्रमुख सुझावों को उनमें शामिल करना चाहिए। हालांकि ऐक्शन टेकेन रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने कहा था कि मंत्रालयों को समय बढ़ाने वाले दिशानिर्देश पर्याप्त लगते हैं और 2012 में इन दिशानिर्देशों को फिर से दोहराया गया।

क्या एक्ट के तहत सभी नियमों को बनाने की जरूरत होती है?

आम तौर पर एक्ट में ये अभिव्यक्तियां इस्तेमाल की जाती हैं, “केंद्र सरकार, अधिसूचना के जरिए, इस एक्ट के प्रावधानों को लागू करने के लिए नियम बना सकती है या “जैसा कि निर्दिष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार यह महसूस हो सकता है कि कानून का उद्देश्य शासन आदेश देने की बजाय नियम बनाने के लिए सक्षम करना है। हालांकि एक्ट के कुछ प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि अपेक्षित विवरण नियमों के तहत निर्दिष्ट न किए जाएं। इसी के कारण संबंधित नियमों के प्रकाशन के बाद ही कानून को लागू किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) एक्ट, 2022 पुलिस और कुछ अन्य लोगों को सक्षम बनाता है कि वे कुछ लोगों की पहचान से संबंधित सूचनाओ को जमा करें। यह प्रावधान करता है कि ऐसी सूचना को जमा करने के तरीके को केंद्र सरकार द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है। जब तक वह तरीका निर्दिष्ट नहीं किया जाएगा, सूचना जमा नहीं की जा सकती।

इसके बावजूद नियम बनाने की कुछ अन्य शक्तियों की प्रकृति एनेबलिंग यानी वैकल्पिक, और संबंधित मंत्रालय के विवेक पर आधारित हो सकती हैं। 2016 में राज्यसभा की अधीनस्थ विधान समिति ने ऊर्जा संरक्षण एक्ट, 2001 के तहत बनाए जाने वाले नियमों और रेगुलेशंस की स्थिति की समीक्षा की थी। उसने कहा था कि ऊर्जा मंत्रालय ने कहा था कि एक्ट के तहत दो नियम और तीन रेगुलेशंस जरूरी नहीं थे। कानून एवं न्याय मंत्रालय का मत था कि जो जरूरी नहीं समझे गए, वे अप्रत्याशित परिस्थितियों के मद्देनजनर एनेबलिंग यानी वैकल्पिक प्रावधान थे। राज्यसभा की समिति (2016) का कहना था कि जब मंत्रालय को अधीनस्थ विधान बनाने की जरूरत महसूस न हो, तो मंत्री को संसद में अपना वक्तव्य देना चाहिए जिसमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने के कारण दिए गए हों।

अधीनस्थ विधान से संबंधित मुख्य मुद्दे

विधायिका अधीनस्थ कानून बनाने की शक्तियों के जरिए कार्यपालिका को यह अधिकार देती है कि वह कानून के कार्यान्वयन के विवरणों को निर्दिष्ट करे। इसलिए यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होता है कि उनकी अच्छी तरह से जांच की जाए जिससे वे कानून में परिकल्पित सीमाओं के भीतर हों।

  • अधीनस्थ विधान संबंधी समितियों की क्षमताअधीनस्थ विधान संबंधी संसदीय समितियों की जिम्मेदारी है कि वे विस्तार से नियमों की समीक्षा करें। इससे पहले इन समितियों ने -कॉमर्स, इंटरनेट आधारित सेवाओं के दायित्वों और विमुद्रीकरण से संबंधित कई मुख्य नियमों, रेगुलेशंस औऱ अधिसूचनाओं की समीक्षा की है। हालांकि, आम तौर पर वे सिर्फ कुछ ही अधीनस्थ विधानों की विस्तार से समीक्षा कर पाईं। अधिक विवरण के लिए पीआरएस के डिस्कशन पेपर को यहां पढ़ें।
  • मानकों की एकरूपतायूकेयूएसएऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों में अधीनस्थ विधानों की संरचना को रेगुलेट करने वाला व्यापक कानून है। ये कानून सार्वजनिक परामर्श के तरीके, समय सीमा, ड्राफ्टिंग के मानकों और एक कॉमन रजिस्टर का प्रावधान करते हैं। भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है। भारत में यह विवरण कि अधीनस्थ विधान के लिए किसी सार्वजनिक परामर्श की जरूरत है या नहीं, संबंधित कानूनों में निर्दिष्ट होता है। सामान्य खंड एक्ट, 1897 भी अधीनस्थ विधान बनाने से संबंधित पहलुओं का प्रावधान करता है। इसके अतिरिक्त पूर्व विधान परामर्श नीति, 2014 अधीनस्थ विधानों पर पूर्व विधायी परामर्श के लिए दिशानिर्देश प्रदान करती है।

यहां आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) नियम, 2022 पर हमारे विश्लेषण को पढ़ें। इसे सितंबर 2022 में अधिसूचित किया गया था। इसके अतिरिक्त पीआरएस के निम्नलिखित विश्लेषणों को भी पढ़ें: