
A recent news report stated that the Planning Commission has advocated putting in place a “proper regulatory mechanism” before permitting the use of genetic modification in Indian crops. A recent Standing Committee report on genetically modified (GM) crops found shortcomings in the regulatory framework for such crops. The current framework is regulated primarily by two bodies: the Genetic Engineering Appraisal Committee (GEAC) and the Review Committee on Genetic Manipulation (RCGM). Given the inadequacy of the regulatory framework, the Standing Committee recommended that all research and development activities on transgenic crops be carried out only in containment (in laboratories) and that ongoing field trials in all states be discontinued. The blog provides a brief background on GM crops, their regulation in India and the key recommendations of the Standing Committee. What is GM technology? GM crops are usually developed through the insertion or deletion of genes from plant cells. Bt technology is a type of genetic modification in crops. It was introduced in India with Bt cotton. The debate around GM crops has revolved around issues of economic efficacy, human health, consumer choice and farmers’ rights. Some advantages of Bt technology are that it increases crop yield, decreases the use of pesticides, and improves quality of crops. However, the technology has also been known to cause crop loss due to resistance developed by pests and destruction of local crop varieties, impacting biodiversity. Approval process for commercial release of GM crops
Committee’s recommendations for strengthening the regulatory process The Standing Committee report found several shortcomings in the regulatory framework, some of which are as follows:
Note that over the last few sessions of Parliament, the government has listed the Biotechnology Regulatory Authority Bill for introduction; however the Bill has not been introduced yet. The Bill sets up an independent authority for the regulation of GM crops. For a PRS summary of the report and access to the full report, see here and here.
30 नवंबर, 2022 को उत्तराखंड विधानसभा का दो दिवसीय सत्र समाप्त हो गया। पहले यह सत्र पांच दिनों के लिए निर्धारित था। इस पोस्ट में हम विधानसभा में विधायी कामकाज और राज्य विधानमंडलों की स्थिति की समीक्षा कर रहे हैं।
दो दिनों में 13 बिल पेश और पारित
सेशन एजेंडा के अनुसार, दो दिनों में कुल 19 बिल पेश किए जाने के लिए सूचीबद्ध थे। इनमें से 13 पर दूसरे दिन चर्चा होनी थी और उन्हें पारित किया जाना था। इनमें उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता संरक्षण (संशोधन) बिल, 2022, पेट्रोलियम एवं ऊर्जा अध्ययन विश्वविद्यालय (संशोधन) बिल, 2022 और उत्तराखंड कूड़ा फेंकना और थूकना प्रतिषेध (संशोधन) बिल, 2022 शामिल हैं।
विधानसभा ने पांच मिनट के भीतर प्रत्येक बिल (दो को छोड़कर) पर चर्चा करने और उसे पारित करने का प्रस्ताव रखा था (देखें रेखाचित्र 1)। दो बिल्स पर चर्चा और उन्हें पारित करने के लिए 20 मिनट का समय दिया गया था। ये दो बिल हैं- हरिद्वार विश्वविद्यालय बिल, 2022 और सार्वजनिक सेवा (महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण) बिल, 2022। न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार विधानसभा ने इन दो दिनों में सभी 13 बिल्स को पारित किया (इनमें एप्रोप्रिएशन बिल्स शामिल नहीं हैं)। इससे यह सवाल उठता है कि इन बिल्स की कितनी जांच पड़ताल की गई और जब विधायक उन्हें चंद मिनटों में पारित करने की इच्छा रखते हैं तो इन बिल्स की कितनी समीक्षा हो पाएगी, और उनकी क्वालिटी क्या होगी।
रेखाचित्र 1: उत्तराखंड विधानसभा के नवंबर 2022 के सेशन एजेंडा के एक हिस्सा
कानून निर्माण के लिए चर्चा और जांच पड़ताल जरूरी
हमारे कानून निर्माण संस्थानों के पास ऐसे कई उपाय होते हैं जिससे यह सुनिश्चित हो कि किसी कानून के पारित होने से पहले, उसके विभिन्न पहलुओं की विस्तार से जांच पड़ताल की गई है जैसे संवैधानिकता, स्पष्टता और उसके प्रावधानों को लागू करने के लिए राज्य की वित्तीय और तकनीकी क्षमता। बिल को लाने वाला मंत्रालय/विभाग सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं के लिए बिल के ड्राफ्ट को साझा कर सकता है (पूर्व विधायी जांच)। बिल पेश होने के साथ, सदस्य प्रस्तावित कानून की संवैधानिकता का मुद्दा उठा सकते हैं। एक बार पेश होने के बाद बिल्स को विधायी समितियों के पास भेजा जा सकता है ताकि उनकी विस्तृत समीक्षा की जा सके। इससे विधायक और सांसद प्रत्येक प्रावधान पर गहराई से विचार विमर्श कर सकते हैं और यह समझ सकते हैं कि क्या किसी प्रावधान के संबंध में कोई संवैधानिक चुनौती है या कोई दूसरा मुद्दा। इस प्रक्रिया के दौरान विशेषज्ञों और प्रभावित होने वाले हितधारकों को प्रावधानों पर अपना योगदान देने, मुद्दों को उठाने और कानून को मजबूत करने में मदद देने का भी मौका मिलता है।
हालांकि जब कुछ ही मिनटों में बिल को पेश और पारित किया जाता है तो उससे विधायकों को उसके प्रावधानों को समझने और उसके प्रभावों, विभिन्न मुद्दों और प्रभावित पक्षों के लिए कानून में सुधार करने के तरीकों पर विचार करने का समय कम ही मिलता है। इससे यह प्रश्न भी उठता है कि चर्चा के बिना हड़बड़ी में कानून पारित करने के पीछे विधायिका की मंशा क्या है। अक्सर सोचे-समझे बिना बनाए जाने वाले कानूनों को अदालतों में चुनौती भी दी जाती है।
उदाहरण के लिए उत्तराखंड विधानसभा ने इस सत्र में उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता (संशोधन) बिल, 2022 को पारित किया (बिल पर चर्चा और उसे पारित करने के लिए पांच मिनट दिए गए थे)। यह बिल, 2018 के एक्ट में संशोधन करता है जिसमें जबरन धर्म परिवर्तन किए जाने पर प्रतिबंध लगाया गया है और यह प्रावधान किया गया है कि लालच देकर, या शादी के जरिए धर्म परिवर्तन गैरकानूनी होगा। बिल में यह प्रावधान है कि धर्म परिवर्तन के लिए जिला मेजिस्ट्रेट (डीएम) को अतिरिक्त नोटिस देना होगा और किसी व्यक्ति के एकदम पहले के धर्म में दोबारा धर्मांतरण करने को धर्म परिवर्तन नहीं माना जाएगा। इनमें से कई प्रावधान उन दूसरे कानूनों के समान हैं जिन्हें राज्यों ने पारित किया और अदालतों ने उन्हें निरस्त कर दिया या उन्हें चुनौती दी गई। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्रता एक्ट, 2021 की जांच करते हुए कहा था कि धर्म परिवर्तन के लिए डीएम को नोटिस देने वाला प्रावधान निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है, चूंकि इस अधिकार में चुप रहने का अधिकार शामिल है। इसके अलावा इसमें व्यक्ति का अपनी आस्था को चुनने का फैसला भी आता है। हिमाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता एक्ट, 2006 में उन लोगों को सार्वजनिक नोटिस देने से छूट दी गई थी जो अपने मूल धर्म में दोबारा धर्म परिवर्तन करते हैं। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भेदभावकारी और समानता के अधिकार का उल्लंघन कहकर रद्द कर दिया था। अदालत ने यह भी कहा था कि सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर लोगों के अपने विश्वास को बदलने के अधिकार को नहीं छीना जा सकता।
उत्तराखंड के विधायकों को यह सोचने का मौका नहीं मिला होगा कि धर्म परिवर्तन को रेगुलेट करने वाले कानूनों ने उन मुद्दों से कैसे निपटा है, जिन्हें अदालतों ने उठाया था।
अधिकतर अन्य राज्य विधानसभाएं भी पर्याप्त जांच के बिना ही बिल पारित करती हैं
2021 में 44% राज्यों ने बिल को पेश होने के दिन या उसके अगले दिन पारित किया था। जनवरी 2018 औऱ सितंबर 2022 के बीच गुजारत विधानसभा ने 92 बिल्स पेश किए (एप्रोप्रिएशन बिल्स को छोड़कर)। इनमें से 91 को पेश होने वाले दिन ही पारित कर दिया गया। 2022 के मानसून सत्र में गोवा विधानसभा ने दो दिनों के भीतर ही 28 बिल पारित कर दिए। यह विभिन्न सरकारी विभागों के बजटीय आबंटनों पर चर्चा और वोटिंग के अतिरिक्त है।
रेखाचित्र 2: 2021 में राज्य विधानसभाओं को किसी बिल को पारित करने में कितना समय लगा
नोट: यहां दिए गए चार्ट में अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम शामिल नही हैं। एक बिल को एक दिन में पारित माना जाता है, अगर वह पेश होने वाले दिन या उसके अगले दिन पारित कर दिया जाता है। जिन राज्यों में दो सदन वाले विधानमंडल हैं, वहां बिल्स दोनों सदनों में पारित किए जाते हैं। ऊपर दिए गए चार्ट में पांच राज्यों, जहां विधान परिषदें हैं, में इस बात का ध्यान रखा गया है। इसमें बिहार शामिल नहीं है क्योंकि वहां विधान परिषद का डेटा उपलब्ध नहीं है।
स्रोत: विधानसभा की वेबसाइट्स, विभिन्न राज्यों के ई-गैजेट और सूचना का अधिकार संबंधी अनुरोध; पीआरएस।
कभी कभी, किसी बिल पर चर्चा में लगने वाला समय, आबंटित समय से कम होता है। सदन में व्यवधान इसका कारण हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा यह डेटा देती है कि बिल पर चर्चा में असल में कितना समय लगा। उदाहरण के लिए अगस्त 2022 के सत्र में उसने 10 बिल्स पर चर्चा करने और उन्हें पारित करने में औसत 12 मिनट खर्च किए। हालांकि उत्तराखंड विधानसभा ने नवंबर 2022 के सत्र में प्रत्येक बिल पर चर्चा के लिए सिर्फ पांच मिनट का समय आबंटित किया। यह दर्शाता है कि कुछ राज्य विधानसभाओं में अपने कामकाज में सुधार करने का इरादा नहीं है।
जहां तक संसद का मामला है, जांच पड़ताल का कुछ काम विभाग संबंधी स्टैंडिंग कमिटी भी किया करती हैं, तब भी जब संसद का सत्र नहीं चल रहा होता। 14वीं लोकसभा में पेश होने वाले 60% बिल्स को विस्तृत समीक्षा के लिए कमिटिज़ के पास भेजा गया था और 15वीं लोकसभा में 71% बिल्स को। इन आंकड़ों में हाल ही में गिरावट आई है। 16वीं लोकसभा में 27% बिल्स को कमिटीज़ को भेजा गया था, जबकि 17वीं लोकसभा में अब तक 13% बिल्स को भेजा गया है। हालांकि राज्यों में बिल्स को विस्तृत समीक्षा के लिए भेजना अक्सर अपवाद होता है, कायदा नहीं। 2021 में 10% से भी कम बिल्स को कमिटीज़ के पास भेजा गया था। उत्तराखंड विधानसभा में पारित किसी भी बिल को किसी कमिटी के पास नहीं भेजा गया। जो राज्य अपवाद हैं, उनमें से एक केरल है जहां 14 विभागीय समितियां हैं और बिल्स को नियमित रूप से वहां जांच के लिए भेजा जाता है। हालांकि इन समितियों की अध्यक्षता संबंधित मंत्री करते हैं जिससे स्वतंत्र जांच की गुंजाइश कम होती है।