
One of the most politically contentious issues in recent times has been the government’s right to acquire land for ‘public purpose’. Increasingly, farmers are refusing to part with their land without adequate compensation, the most recent example being the agitation in Uttar Pradesh over the acquisition of land for the Yamuna Express Highway. Presently, land acquisition in India is governed by the Land Acquisition Act, an archaic law passed more than a century ago in 1894. According to the Act, the government has the right to acquire private land without the consent of the land owners if the land is acquired for a “public purpose” project (such as development of towns and village sites, building of schools, hospitals and housing and state run corporations). The land owners get only the current price value of the land as compensation. The key provision that has triggered most of the discontent is the one that allows the government to acquire land for private companies if it is for a “public purpose” project. This has led to conflict over issues of compensation, rehabilitation of displaced people and the type of land that is being acquired. The UPA government introduced the Land Acquisition (Amendment) Bill in conjunction with the Rehabilitation and Resettlement Bill on December 6, 2007 in the Lok Sabha and referred them to the Standing Committee on Rural Development for scrutiny. The Committee submitted its report on October 21, 2008 but the Bills lapsed at the end of the 14th Lok Sabha. The government is planning to introduce revised versions of the Bills. The following paragraphs discuss the lapsed Bills to give some idea of the government’s perspective on the issue while analysing the lacunae in the Bills. The Land Acquisition (Amendment) Bill, 2007 redefined “public purpose” to allow land acquisition only for defence purposes, infrastructure projects, or any project useful to the general public where 70% of the land had already been purchased from willing sellers through the free market. It prohibited land acquisition for companies unless they had already purchased 70% of the required land. The Bill also made it mandatory for the government to conduct a social impact assessment if land acquisition resulted in displacement of 400 families in the plains or 200 families in the hills or tribal areas. The compensation was to be extended to tribals and individuals with tenancy rights under state laws. The compensation was based on many factors such as market rates, the intended use of the land, and the value of standing crop. A Land Acquisition Compensation Disputes Settlement Authority was to be established to adjudicate disputes. The Rehabilitation and Resettlement Bill, 2007 sought to provide for benefits and compensation to people displaced by land acquisition or any other involuntary displacements. The Bill created project-specific authorities to formulate, implement and monitor the rehabilitation process. It also outlined minimum benefits for displaced families such as land, house, monetary compensation, skill training and preference for jobs. A grievance redressal system was also provided for. Although the Bills were a step in the right direction, many issues still remained unresolved. Since the Land Acquisition Bill barred the civil courts from entertaining any disputes related to land acquisition, it was unclear whether there was a mechanism by which a person could challenge the qualification of a project as “public purpose”. Unlike the Special Economic Zone Act, 2005, the Bill did not specify the type of land that could be acquired (such as waste and barren lands). The Bill made special provision for land taken in the case of ‘urgency’. However, it did not define the term urgency, which could lead to confusion and misuse of the term. The biggest loop-hole in the Rehabilitation and Resettlement Bill was the use of non-binding language. Take for example Clause 25, which stated that “The Government may, by notification, declare any area…as a resettlement area.” Furthermore, Clause 36(1) stated that land for land “shall be allotted…if Government land is available.” The government could effectively get away with not providing many of the benefits listed in the Bill. Also, most of the safeguards and benefits were limited to families affected by large-scale displacements (400 or more families in the plains and 200 or more families in the hills and tribal areas). The benefits for affected families in case of smaller scale displacements were not clearly spelt out. Lastly, the Bill stated that compensation to displaced families should be borne by the requiring body (body which needs the land for its projects). Who would bear the expenditure of rehabilitation in case of natural disasters remained ambiguous. If India is to attain economic prosperity, the government needs to strike a balance between the need for development and protecting the rights of people whose land is being acquired. Kaushiki Sanyal The article was published in Sahara Time (Issue dated September 4, 2010, page 36)
पिछले हफ्ते पावर फाइनांस कॉरपोरेशन ने कहा कि 2022-23 में देश में राज्यों के स्वामित्व वाली बिजली वितरण कंपनियों को 68,832 करोड़ रुपए का वित्तीय घाटा हुआ। यह 2021-22 में हुए घाटे के चार गुना से अधिक है और उत्तराखंड जैसे राज्य के वार्षिक बजट के लगभग बराबर है। इस ब्लॉग में इस नुकसान के कुछ कारणों और उनके असर की समीक्षा की गई है।
वित्तीय घाटे पर एक नजर
कई वर्षों से बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम्स), जोकि अधिकतर राज्यों के स्वामित्व वाली हैं, ने जबरदस्त वित्तीय घाटा दर्ज किया है। 2017-18 और 2022-23 के बीच यह घाटा तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक हो गया। लेकिन 2021-22 में डिस्कॉम के घाटे में काफी कमी आई, जब मुख्य रूप से राज्यों ने लंबित बकाया चुकाने के लिए सबसिडी के तौर पर 1.54 लाख रुपए जारी किए। राज्य सरकारें डिस्कॉम्स को सबसिडी देती हैं ताकि घरेलू और कृषि उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली मिल सके। लेकिन यह भुगतान देर से किया जाता है, जिससे नकदी के प्रवाह में रुकावट आती है और ऋण इकट्ठा होता जाता है। इसके अलावा 2021-22 से डिस्कॉम्स की लागत में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
नोट: 2020-21 के बाद के आंकड़ों में ओड़िशा, दादरा नगर हवेली और दमन-दीव शामिल नहीं हैं क्योंकि 2020-21 में वहां बिजली वितरण के काम का निजीकरण कर दिया गया था। लद्दाख का आंकड़ा 2021-22 से उपलब्ध है। जम्मू-कश्मीर का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। दिल्ली नगर पालिका परिषद वितरण इकाई को 2020-21 से शामिल किया गया है।
स्रोत: पावर फाइनांस कॉरपोरेशन की विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट्स; पीआरएस।
2022-23 तक घाटा फिर से बढ़कर 68,832 करोड़ रुपए हो गया। यह बढ़ोतरी, लागत में बढ़ोतरी के कारण हुई है। प्रति युनिट स्तर पर एक किलोवाट बिजली की सप्लाई की लागत 2021-22 में 7.6 रुपए से बढ़कर 2022-23 में 8.6 रुपए हो गई (तालिका 1 देखें)।
तालिका 1: राज्य के स्वामित्व वाली बिजली वितरण कंपनियों का वित्तीय विवरण
विवरण |
2019-20 |
2020-21 |
2021-22 |
2022-23 |
बिजली आपूर्ति की औसत लागत (एसीएस) |
7.4 |
7.7 |
7.6 |
8.6 |
प्राप्त औसत राजस्व (एआरआर) |
6.8 |
7.1 |
7.3 |
7.8 |
प्रति युनिट घाटा (एसीएस-एआरआर) |
0.6 |
0.6 |
0.3 |
0.7 |
कुल घाटा (करोड़ रुपए में) |
-60,231 |
-76,899 |
-16,579 |
-68,832 |
नोट: 2020-21 के बाद के आंकड़ों में ओड़िशा, दादरा नगर हवेली और दमन-दीव शामिल नहीं हैं क्योंकि 2020-21 में वहां बिजली वितरण के काम का निजीकरण कर दिया गया था। लद्दाख का आंकड़ा 2021-22 से उपलब्ध है। जम्मू-कश्मीर का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। दिल्ली नगर पालिका परिषद वितरण इकाई को 2020-21 से शामिल किया गया है।
स्रोत: पावर फाइनांस कॉरपोरेशन की विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट्स; पीआरएस।
उत्पादन कंपनियों (जेनको) से बिजली की खरीद डिस्कॉम्स की कुल लागत का लगभग 70% है और कोयला बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत है। 2022-23 में निम्नलिखित घटनाएं हुईं: (i) बिजली की उपभोक्ता मांग पिछले वर्ष की तुलना में 10% बढ़ी, जबकि पिछले 10 वर्षों में साल-दर-साल 6% की वृद्धि हुई थी, (ii) बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कोयला आयात करना पड़ा, और (iii) विश्व स्तर पर कोयले की कीमतें बढ़ गईं।
बिजली की बढ़ती मांग को देखते हुए बढ़ी हुई कीमतों पर कोयला आयात किया गया
2021-22 की तुलना में 2022-23 में बिजली की मांग 10% बढ़ गई। इससे पहले 2008-09 और 2018-19 के बीच 6% की वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) के हिसाब से मांग बढ़ी थी। अर्थव्यवस्था के बढ़ने (7% की दर से) के साथ बिजली की मांग बढ़ी जिसमें घरेलू और कृषि उपभोक्ताओं का हिस्सा सबसे ज्यादा था। बिजली की कुल बिक्री में इन उपभोक्ता श्रेणियों का हिस्सा 54% है और उनकी मांग में 7% की वृद्धि हुई है।
स्रोत: केंद्रीय बिजली रेगुलेटरी आयोग; पीआरएस।
बिजली का बड़े पैमाने पर भंडारण नहीं किया जा सकता, जिसका मतलब यह है कि अनुमानित मांग के आधार पर उत्पादन किया जाना चाहिए। केंद्रीय बिजली प्राधिकरण प्रत्येक वर्ष के लिए वार्षिक मांग का अनुमान लगाता है। अनुमान है कि 2022-23 में मांग 1,505 बिलियन युनिट्स होगी। हालांकि 2022-23 के पहले कुछ महीनों में वास्तविक मांग अनुमान से अधिक थी (रेखाचित्र 3 देखें)।
इस मांग को पूरा करने के लिए बिजली उत्पादन बढ़ाना पड़ा। 2021-22 में उच्च मांग के कारण कोयले का स्टॉक पहले ही जून 2021 में 29 मिलियन टन से घटकर सितंबर 2021 में आठ मिलियन टन हो गया था। बिना रुकावट बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए, बिजली मंत्रालय ने उत्पादन कंपनियों को कोयला आयात करने का निर्देश दिया। मंत्रालय ने कहा कि आयात के बिना बड़े स्तर पर व्यापक बिजली कटौती और ब्लैकआउट हो जाता।
स्रोत: लोड जेनरेशन बैलेंस रिपोर्ट 2022 और 2023, केंद्रीय बिजली प्राधिकरण; पीआरएस।
2022-23 में कोयले का आयात लगभग 27 मिलियन टन बढ़ गया। हालांकि क्षेत्र में उपयोग किए जाने वाले कुल कोयले का यह केवल 5% था, लेकिन जिस कीमत पर इसका आयात किया गया था, उसके कारण इस क्षेत्र पर काफी असर हुआ। 2021-22 में भारत ने औसतन 8,300 रुपए प्रति टन की कीमत पर कोयला आयात किया। 2022-23 में यह बढ़कर 12,500 रुपए प्रति टन हो गया, जो 51% की वृद्धि है। कोयला मुख्य रूप से इंडोनेशिया से आयात किया जाता था, और रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत और चीन जैसे देशों की बढ़ती मांग के कारण कीमतों में इजाफा हो गया।
स्रोत: ऊर्जा मंत्रालय; सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय; पीआरएस।
कोयला आयात की स्थिति बनी रहेगी
जनवरी 2023 में ऊर्जा मंत्रालय ने सितंबर 2023 तक पर्याप्त स्टॉक सुनिश्चित करने के लिए बिजली कंपनियों को आवश्यक कोयले का 6% आयात करने की सलाह दी। उसने कहा कि देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ और अस्थिर वर्षा के कारण जल विद्युत उत्पादन क्षमता लगभग 14% कम हो गई है। इससे 2023-24 में कोयला आधारित तापीय उत्पादन पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। इसके बाद अक्टूबर 2023 में मंत्रालय ने सभी उत्पादन कंपनियों को मार्च 2024 तक कम से कम 6% आयातित कोयले का उपयोग जारी रखने का निर्देश दिया।
स्रोत: कोयला मंत्रालय; पीआरएस।
बिजली क्षेत्र में संरचनात्मक मुद्दे और राज्य के वित्त पर इसका प्रभाव
कुछ संरचनात्मक मुद्दों के कारण डिस्कॉम को लगातार वित्तीय घाटा हो रहा है। उत्पादन कंपनियों (जेनकोस) के साथ पुराने कॉन्ट्रैक्ट्स के कारण उनकी लागत आम तौर पर अधिक होती है। इन कॉन्ट्रैक्ट्स में बिजली खरीद की लागत अपरिवर्तनीय रहती है, जबकि उत्पादन क्षमता बेहतर होती जाती है। शुल्क को हर कुछ वर्षों में संशोधित किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित हो कि उपभोक्ताओं को सप्लाई चेन के झटकों से बचाया जा सके। इसका नतीजा यह होता है कि लागत को कुछ वर्षों के लिए कैरी फॉरवर्ड किया जाता है। इसके अलावा डिस्कॉम कुछ उपभोक्ताओं जैसे कृषि और आवासीय उपभोक्ताओं को लागत से कम कीमत पर बिजली बेचते हैं। इसे मुख्य रूप से राज्य सरकारों के सबसिडी अनुदान के जरिए वसूल किया जाना चाहिए। हालांकि राज्य अक्सर सबसिडी भुगतान में देरी करते हैं जिससे नकदी प्रवाह में समस्याएं आती हैं और ऋण इकट्ठा होता जाता है। इसके अलावा बेची गई बिजली से शुल्क की वसूली उतनी नहीं होती, जितनी होनी चाहिए।
उत्पादन क्षेत्र में दर्ज घाटे में भी वृद्धि हुई है। 2022-23 में राज्य के स्वामित्व वाली उत्पादन कंपनियों ने 7,175 करोड़ रुपए का घाटा दर्ज किया, जबकि 2021-22 में यह घाटा 4,245 करोड़ रुपए था। इनमें से 87% यानी 6,278 करोड़ रुपए घाटा, सिर्फ राजस्थान का था। उल्लेखनीय है कि विलंबित भुगतान अधिभार नियम, 2022 के तहत वितरण कंपनियों को उत्पादन कंपनियों को अग्रिम भुगतान करना होता है।
राज्यों के वित्त को खतरा
लगातार वित्तीय घाटा, उच्च ऋण और राज्यों की गारंटियां, राज्य की वित्तीय स्थिति के लिए जोखिम बने हुए हैं। ये राज्य सरकारों के लिए आकस्मिक देनदारियां हैं, यानी, अगर कोई डिस्कॉम अपना कर्ज चुकाने में असमर्थ है, तो राज्य को उसका वहन करना होगा।
डिस्कॉम को संकट से उबारने के लिए पहले भी ऐसी कई योजनाएं शुरू की गई हैं (तालिका 2 देखें)। 2022-23 तक, डिस्कॉम पर 6.61 लाख करोड़ रुपए का बकाया कर्ज है, जो राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का 2.4% है। तमिलनाडु (जीएसडीपी का 6%), राजस्थान (जीएसडीपी का 6%), और उत्तर प्रदेश (जीएसडीपी का 3%) जैसे राज्यों में ऋण काफी अधिक है। पिछले वित्त आयोगों ने माना है कि राज्यों की वित्तीय स्थिति के जोखिम को कम करने के लिए डिस्कॉम्स की वित्तीय स्थिति को मजबूत करना महत्वपूर्ण है।
तालिका 2: पिछले कुछ वर्षों में वितरण क्षेत्र में बदलाव के लिए प्रमुख सरकारी योजनाएं
वर्ष |
योजना |
विवरण |
2002 |
बेलआउट पैकेज |
राज्यों ने राज्य बिजली बोर्डों का 35,000 करोड़ रुपए का कर्ज वहन किया, राज्य बिजली बोर्डों द्वारा पीएसयू को देय ब्याज में 50% की छूट |
2012 |
फाइनांशियल रीस्ट्रक्चरिंग पैकेज |
राज्यों ने 56,908 करोड़ रुपए की बकाया अल्पकालिक देनदारियों का 50% हिस्सा वहन किया |
2015 |
उज्ज्वल डिस्कॉम अश्योरेंस योजना (उदय) |
राज्य डिस्कॉम के 2.3 लाख करोड़ रुपए के कर्ज का 75% हिस्सा वहन किया, और भविष्य में किसी भी नुकसान के लिए अनुदान देने पर भी सहमति जताई |
2020 |
लिक्विडिटी इंफ्यूजन स्कीम |
उत्पादकों का बकाया चुकाने के लिए डिस्कॉम को पावर फाइनांस कॉरपोरेशन और आरईसी लिमिटेड से 1.35 लाख करोड़ रुपए का ऋण मिला, राज्य सरकारों ने गारंटी दी |
2022 |
रीवैम्प्ड डिस्ट्रिब्यूशन सेक्टर स्कीम |
केंद्र सरकार सप्लाई इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने के लिए 97,631 करोड़ रुपए की परिणाम-आधारित वित्तीय सहायता प्रदान करेगी |
स्रोत: नीति आयोग, ऊर्जा मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियां; पीआरएस।
राज्यों की वित्तीय स्थिति पर डिस्कॉम्स के वित्त के प्रभाव के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहां देखें। बिजली वितरण क्षेत्र में संरचनात्मक मुद्दों पर अधिक जानकारी के लिए यहां देखें।
अनुलग्नक
तालिका 3: बिजली की बिक्री के आधार पर डिस्कॉम की लागत और राजस्व संरचना (रुपए प्रति किलोवाट में)
विवरण |
2019-20 |
2020-21 |
2021-22 |
2022-23 |
बिजली आपूर्ति की औसत लागत (एसीएस) |
7.4 |
7.7 |
7.6 |
8.6 |
जिसमें |
||||
बिजली खरीद की लागत |
5.8 |
5.9 |
5.8 |
6.6 |
प्राप्त औसत राजस्व (एआरआर) |
6.8 |
7.1 |
7.3 |
7.8 |
जिसमें |
||||
बिजली की बिक्री से राजस्व |
5.0 |
4.9 |
5.1 |
5.5 |
शुल्क सबसिडी |
1.3 |
1.4 |
1.4 |
1.5 |
रेगुलेटरी आय और उदय के तहत राजस्व अनुदान |
0.3 |
0.1 |
0.0 |
0.2 |
प्रति युनिट घाटा |
0.6 |
0.6 |
0.3 |
0.7 |
कुल वित्तीय घाटा |
-60,231 |
-76,899 |
-16,579 |
-68,832 |
स्रोत: पावर फाइनांस कॉरपोरेशन की विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट्स; पीआरएस।
तालिका 4: राज्यों में बिजली वितरण कंपनियों के लाभ/हानि (करोड़ रुपए में)
राज्य/यूटी |
2017-18 |
2018-19 |
2019-20 |
2020-21 |
2021-22 |
2022-23 |
अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह |
-605 |
-645 |
-678 |
-757 |
-86 |
-76 |
आंध्र प्रदेश |
-546 |
-16,831 |
1,103 |
-6,894 |
-2,595 |
1,211 |
अरुणाचल प्रदेश |
-429 |
-420 |
NA |
NA |
NA |
NA |
असम |
-259 |
311 |
1,141 |
-107 |
357 |
-800 |
बिहार |
-1,872 |
-1,845 |
-2,913 |
-2,966 |
-2,546 |
-10 |
चंडीगढ़ |
321 |
131 |
59 |
79 |
-101 |
NA |
छत्तीसगढ़ |
-739 |
-814 |
-571 |
-713 |
-807 |
-1,015 |
दादरा नगर हवेली और दमन-दीव |
312 |
-149 |
-125 |
NA |
NA |
NA |
दिल्ली |
NA |
NA |
NA |
98 |
57 |
-141 |
गोवा |
26 |
-121 |
-276 |
78 |
117 |
69 |
गुजरात |
426 |
184 |
314 |
429 |
371 |
147 |
हरियाणा |
412 |
281 |
331 |
637 |
849 |
975 |
हिमाचल प्रदेश |
-44 |
132 |
43 |
-153 |
-141 |
-1,340 |
झारखंड |
-212 |
-730 |
-1,111 |
-2,556 |
-1,721 |
-3,545 |
कर्नाटक |
-2,439 |
-4,889 |
-2,501 |
-5,382 |
4,719 |
-2,414 |
केरल |
-784 |
-135 |
-270 |
-483 |
98 |
-1,022 |
लद्दाख |
NA |
NA |
NA |
NA |
-11 |
-57 |
लक्षद्वीप |
-98 |
-120 |
-115 |
-117 |
NA |
NA |
मध्य प्रदेश |
-5,802 |
-9,713 |
-5,034 |
-9,884 |
-2,354 |
1,842 |
महाराष्ट्र |
-3,927 |
2,549 |
-5,011 |
-7,129 |
-1,147 |
-19,846 |
मणिपुर |
-8 |
-42 |
-15 |
-15 |
-22 |
-146 |
मेघालय |
-287 |
-202 |
-443 |
-101 |
-157 |
-193 |
मिजोरम |
87 |
-260 |
-291 |
-115 |
-59 |
-158 |
नगालैंड |
-62 |
-94 |
-477 |
-17 |
24 |
33 |
पुद्दूचेरी |
5 |
-39 |
-306 |
-23 |
84 |
-131 |
पंजाब |
-2,760 |
363 |
-975 |
49 |
1,680 |
-1,375 |
राजस्थान |
-11,314 |
-12,524 |
-12,277 |
-5,994 |
2,374 |
-2,024 |
सिक्किम |
-29 |
-3 |
-179 |
-34 |
NA |
71 |
तमिलनाडु |
-12,541 |
-17,186 |
-16,528 |
-13,066 |
-9,130 |
-9,192 |
तेलंगाना |
-6,697 |
-9,525 |
-6,966 |
-6,686 |
-831 |
-11,103 |
त्रिपुरा |
28 |
38 |
-104 |
-4 |
-127 |
-193 |
उत्तर प्रदेश |
-5,269 |
-5,902 |
-3,866 |
-10,660 |
-6,498 |
-15,512 |
उत्तराखंड |
-229 |
-808 |
-323 |
-152 |
-21 |
-1,224 |
पश्चिम बंगाल |
-871 |
-1,171 |
-1,867 |
-4,261 |
1,045 |
-1,663 |
राज्य क्षेत्र |
-56,206 |
-80,179 |
-60,231 |
-76,899 |
-16,579 |
-68,832 |
दादरा नगर हवेली और दमन-दीव |
NA |
NA |
NA |
242 |
148 |
104 |
दिल्ली |
109 |
657 |
-975 |
1,876 |
521 |
-76 |
गुजरात |
574 |
307 |
612 |
655 |
522 |
627 |
ओड़िशा |
NA |
NA |
-842 |
-853 |
940 |
746 |
महाराष्ट्र |
NA |
590 |
1,696 |
-375 |
360 |
42 |
उत्तर प्रदेश |
182 |
126 |
172 |
333 |
256 |
212 |
पश्चिम बंगाल |
658 |
377 |
379 |
398 |
66 |
-12 |
निजी क्षेत्र |
1,523 |
2,057 |
1,042 |
2,276 |
2,813 |
1,643 |
भारत |
-54,683 |
-78,122 |
-59,189 |
-77,896 |
-13,766 |
-67,189 |
नोट: माइनस का चिह्न (-) हानि दर्शाता है; दादरा नगर हवेली और दमन-दीव डिस्कॉम का 1 अप्रैल, 2022 को निजीकरण किया गया था; नई दिल्ली नगर पालिका परिषद वितरण इकाई को 2020-21 से जोड़ा गया है। स्रोत: पावर फाइनांस कॉरपोरेशन की विभिन्न वर्षों की रिपोर्ट्स; पीआरएस