कैदियों की पहचान एक्ट, 1920 में पुलिस अधिकारियों को इस बात की अनुमति दी गई है कि वे अपराधियों और गिरफ्तार व्यक्तियों इत्यादि की पहचान योग्य सूचना (उंगलियों के निशान और पैरों की छाप) को जमा कर सकते हैं।[1] इसके अतिरिक्त किसी अपराध की जांच में मदद के लिए मेजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति की पैमाइश (मेज़रमेंट्स) या फोटोग्राफ लेने के आदेश दे सकता है। उस व्यक्ति की रिहाई या छूटने की स्थिति में सभी सामग्रियों को नष्ट कर दिया जाना चाहिए।
तकनीकी तरक्की के साथ दूसरी पैमाइशें भी अपराध की जांच में उपयोगी साबित हुई हैं। डीएनए टेक्नोलॉजी (प्रयोग और लागू होना) रेगुलेशन बिल, 2019 (लोकसभा में लंबित) इस उद्देश्य के लिए डीएनए टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए फ्रेमवर्क प्रदान करता है।[2] 1980 में भारतीय विधि आयोग ने 1920 के एक्ट की समीक्षा करते हुए कहा था कि अपराध की जांच की आधुनिक प्रवृत्तियों को देखते हुए इसमें संशोधन करने की जरूरत है।[3] मार्च 2003 में आपराधिक न्याय प्रणाली के सुधारों पर गठित एक्सपर्ट कमिटी (चेयर: डॉ. जस्टिस वी.एस. मलिमथ) ने 1920 के एक्ट में संशोधन का सुझाव दिया था ताकि मेजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया जा सके कि वह डीएनए के लिए खून के सैंपल, बाल, लार और सीमन जैसे डेटा को जमा करने के आदेश दे सके।[4]
28 मार्च, 2022 को लोकसभा में आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) बिल, 2022 को पेश किया गया। यह बिल कैदियों की पहचान एक्ट, 1920 का स्थान लेने का प्रयास करता है।[5]
बिल की मुख्य विशेषताएं
बिल निम्नलिखित का दायरा बढ़ाता है: (i) किस किस्म का डेटा जमा किया जा सकता है, (ii) किन व्यक्तियों से डेटा जमा किया जा सकता है, और (iii) कौन सी अथॉरिटी डेटा जमा करने का आदेश दे सकती है। बिल में यह प्रावधान भी है कि डेटा को केंद्रीय डेटाबेस में स्टोर किया जाएगा। 1920 के एक्ट और 2022 के बिल, दोनों के तहत डेटा देने का विरोध करना या इससे इनकार करना, यह माना जाएगा कि एक लोकसेवक को अपना कर्तव्य निभाने से रोका जा रहा है, और यह एक अपराध होगा। तालिका 1 में 1920 के एक्ट से 2022 के बिल की तुलना की गई है।
तालिका 1: 1920 के एक्ट से 2022 के बिल की तुलना
1920 का एक्ट |
2022 के बिल में परिवर्तन |
कैसा डेटा जमा किया जा सकता है |
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किन व्यक्तियों के डेटा जमा किए जा सकते हैं |
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व्यक्ति जो डेटा जमा करने को कह सकते/निर्देश दे सकते हैं |
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नोट: सीआरपीसी—आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता, 1973
स्रोत: कैदियों की पहचान एक्ट, 1920; आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) बिल, 2022; पीआरएस
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) रिकॉर्ड्स रखने वाली केंद्रीय एजेंसी होगी। यह कानून प्रवर्तन करने वाली एजेंसियों से डेटा को शेयर करेगी। इसके अतिरिक्त राज्य/केंद्र शासित प्रदेश अपने-अपने क्षेत्राधिकारों में उन एजेंसियों को अधिसूचित करेंगे जो डेटा जमा, उन्हें संरक्षित और साझा करेंगी।
- जमा किए जाने वाले डेटा को 75 वर्षों के लिए डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में रखा जाएगा। अगर किसी व्यक्ति को सभी अपीलों के बाद बरी कर दिया जाता है, या मुकदमे के बिना छोड़ दिया जाता है, तो उसके रिकॉर्ड्स को नष्ट कर दिया जाएगा। हालांकि ऐसे मामलों में अदालत या मेजिस्ट्रेट लिखित कारण बताने के बाद उस व्यक्ति के विवरणों को बरकरार रखने के निर्देश दे सकता है।
विचारणीय मुद्दे
बिल निजता के अधिकार और समानता, दोनों का उल्लंघन कर सकता है
बिल अपराध की जांच के लिए किसी व्यक्ति की पहचान योग्य सूचना को जमा करने की अनुमति देता है। बिल के अंतर्गत निर्दिष्ट सूचना व्यक्ति के पर्सनल डेटा का हिस्सा है और इसलिए व्यक्तियों के निजता के अधिकार यानी राइट टू प्राइवेसी के तहत संरक्षित है। सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी थी (2017)।[6] अदालत ने ऐसे सिद्धांत निर्धारित किए हैं जो इस अधिकार को प्रतिबंधित करने वाले किसी भी कानून को नियंत्रित करते हैं। इनमें सार्वजनिक उद्देश्य, इस उद्देश्य के साथ कानून का एक तर्कसंगत गठजोड़, और इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे कम दखल देने वाला तरीका शामिल है। यानी इस उद्देश्य के लिए निजता का उल्लंघन जरूरी होना चाहिए और उसके अनुपात में भी। बिल कई मापदंडों पर इस परीक्षण में असफल होता है। यह अनुच्छेद 14 के अंतर्गत इस बात पर भी खरा नहीं उतरता कि कानून को निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिए और कानून के अंतर्गत सभी समान हैं।[7]
यह मुद्दा इन वजहों से उभरता है कि: (क) डेटा न सिर्फ अपराधी व्यक्तियों से जमा किया जा सकता है, बल्कि ऐसे व्यक्तियों से भी, जो किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए हैं या जांच में मदद के लिए किसी भी व्यक्ति से; (ख) जमा किए जाने वाले डेटा का, मामले के लिए जरूरी सबूतों से संबंधित होना जरूरी नहीं है; (ग) डेटा को केंद्रीय डेटाबेस में स्टोर किया जाएगा जिसे सिर्फ केस फाइल के लिए नहीं, व्यापक स्तर पर एक्सेस किया जा सकता है; (घ) डेटा को 75 वर्षों के लिए स्टोर किया जाएगा (प्रभावी रूप से, जिंदगी भर के लिए); और (डं) डेटा जमा करने के लिए अधिकृत अधिकारी की रैंक को कम करके, सुरक्षात्मक उपायों को कमजोर किया गया है। हम नीचे इन मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं और कुछ उदाहरणों के जरिए इनके परिणामों का विश्लेषण कर रहे हैं।
किन व्यक्तियों का डेटा जमा किया जा सकता है
बिल इस दायरे को बढ़ाता है कि किन लोगों का डेटा जमा किया जा सकता है। इसमें वे लोग भी शामिल किए गए हैं जोकि अपराधी हैं या किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए हैं। उदाहरण के लिए, इसमें ऐसे लोग शामिल हैं जिन्हें तेज या लापरवाही से गाड़ी चलाने के लिए गिरफ्तार किया गया है और इसके लिए अधिकतम छह महीने की कैद की सजा है। बिल मेजिस्ट्रेट की शक्तियों को बढ़ाता है। अब वह जांच में मदद के लिए किसी भी व्यक्ति से (पहले सिर्फ गिरफ्तार लोगों से) डेटा जमा करने का आदेश दे सकता है। यह विधि आयोग (1980) के निष्कर्षों से अलग है जोकि इस सिद्धांत पर आधारित है कि अपराध जितना कम गंभीर हो, बल प्रयोग करने की शक्ति पर उतना अधिक प्रतिबंध होना चाहिए।3 उल्लेखनीय है कि डीएनए टेक्नोलॉजी (प्रयोग और लागू करना) रेगुलेशन बिल, 2019 में सिर्फ ऐसे अपराधों के लिए गिरफ्तार व्यक्तियों से डेटा जमा करने के लिए उनकी सहमति लेने की जरूरत नहीं, जिनके लिए मृत्यु दंड या सात साल से ज्यादा की कैद की सजा है।2
डेटा जमा करने का आदेश कौन दे सकता है
1920 के एक्ट के अंतर्गत मेजिस्ट्रेट अपराध की जांच में मदद देने के लिए डेटा जमा करने का आदेश दे सकता है।1 विधि आयोग (1980) ने कहा था कि 1920 के एक्ट के तहत मेजिस्ट्रेट को अपने आदेश का कारण बताने की जरूरत नहीं थी।3 उसने कहा कि कानून का दायरा बहुत बड़ा था (“किसी भी जांच” के संबंध में गिरफ्तार “कोई भी व्यक्ति”), और आदेश का पालन करने से इनकार करने पर आपराधिक सजा दी जा सकती थी। उसने सुझाव दिया था कि इन प्रावधानों में संशोधन किया जाए और मेजिस्ट्रेट के लिए यह जरूरी किया जाए कि वह आदेश देने के कारण को दर्ज करे। इस बिल में ऐसे कोई सुरक्षात्मक उपाय नहीं किए गए हैं। इसकी बजाय, बिल ने ऐसे पुलिस अधिकारी के स्तर को भी कम कर दिया है जो पैमाइश (मेज़रमेंट) ले सकता है (सब-इंस्पेक्टर से हेड कांस्टेबल), और बिल जेल के हेड वॉर्डर को भी पैमाइश लेने की अनुमति देता है।
कौन सा डेटा जमा किया जा सकता है
बिल डेटा के दायरे को भी बढ़ाता है। इसमें बायोमैट्रिक्स (उंगलियों के निशान, हथेलियों के निशान, पैरों की छाप, आइरिस और रेटिना स्कैन), फिजिकल और बायोलॉजिकल सैंपल (व्याख्या नहीं की गई है लेकिन इसमें खून, सीमन, लार इत्यादि शामिल हो सकते हैं) और व्यवहारगत विशेषताएं (दस्तखत, हैंडराइटिंग और इसमें वॉयस सैंपल शामिल हो सकते हैं) शामिल हैं। बिल यह तय नहीं करता कि किसी विशेष जांच के लिए मेज़रमेंट्स लेने की सीमा क्या हो सकती है। उदाहरण के लिए बिल तेज और लापरवाही से गाड़ी चलाने के लिए गिरफ्तार व्यक्ति की हैंडराइटिंग का नमूना लेने की अनुमति देता है। लेकिन डीएनए सैंपल लेने को खास तौर से प्रतिबंधित नहीं करता (जिसमें पहचान निर्धारित करने के अतिरिक्त दूसरी सूचना भी हो सकती है)। उल्लेखनीय है कि आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के सेक्शन 53 के अंतर्गत बायोलॉजिकल सैंपल और उनके एनालिसिस को सिर्फ तभी जमा किया जा सकता है, जब “यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि इस तरह के परीक्षण से अपराध के होने का सबूत मिलेगा”।[8]
बायोलॉजिकल सैंपल
बिल बायोलॉजिकल सैंपल के मामले में एक अपवाद पेश करता है। व्यक्ति अपने सैंपल देने से इनकार कर सकता है, जब तक कि उसे निम्नलिखित अपराध के लिए गिरफ्तार नहीं किया गया हो: (i) महिला या बच्चे के खिलाफ, या (ii) न्यूनतम सात वर्ष की कैद की सजा वाला अपराध। पहला अपवाद व्यापक है। उदाहरण के लिए इसमें महिला के सामान की चोरी का मामला शामिल हो सकता है। यह प्रावधान कानून के सामने सभी व्यक्ति समान हैं, इसके भी खिलाफ है, जैसे चोरी आदमी के सामान की हो या महिला के सामान की।
डेटा बरकरार रखना
बिल 75 वर्षों तक डेटा को बरकरार रखने की अनुमति देता है। इस डेटा को तभी डिलीट किया जाएगा, जब किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को बरी किया जाता है (उसका फाइनल एक्विटल) या उसे छोड़ दिया जाता है। केंद्रीय डेटाबेस में डेटा का बरकरार रहना और भविष्य में अपराधों की जांच में उसका संभावित इस्तेमाल भी जरूरत और आनुपातिकता के मापदंडों को पूरा नहीं करता।
उदाहरण
नीचे दिए गए प्रसंग बताते हैं कि इस बिल के प्रावधानों के क्या परिणाम हो सकते हैं।
प्रसंग 1. व्यक्ति क को तेज और लापरवाही से गाड़ी चलाने का अपराधी पाया जाता है (उस पर 1,000 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है)। उसके दस्तखत को जमा किया जाता है और उसे केंद्रीय डेटाबेस में 75 वर्षों के लिए स्टोर किया जा सकता है। बिल इसकी अनुमति देता है।
प्रसंग 2. व्यक्ति ख को किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किया जाता है। वह अपनी उंगलियों के निशान देने से इनकार करता है। उसे किसी लोक सेवक को अपना काम करने से रोकने के लिए आरोपित किया गया है (भारतीय दंड संहिता, 1860 का सेक्शन 186)। दोनों मामलों के तहत उसकी उंगलियों के निशान जबरदस्ती लिए जाते हैं। उसे मूल मामले में छोड़ दिया जाता है। चूंकि दूसरे मामले मे वह भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 186 के अंतर्गत दोषी है, उसके उंगलियों के निशान को 75 वर्षों के लिए स्टोर किया जा सकता है।[9] इसका अर्थ यह है कि अगर कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किया गया है और वह पैमाइश देने से इनकार करता है तो उसका डेटा 75 वर्षों तक स्टोर किया जा सकता है, इसके बावजूद कि मुख्य मामले में उसे बरी कर दिया गया हो।
प्रसंग 3. व्यक्ति ग को गिरफ्तार किया जाता है। कई अपीलीय स्तरों के जरिए मामला 20 वर्ष तक चलता है (यह असामान्य बात नहीं है)। इस दौरान उसके रिकॉर्स डेटाबेस में बरकरार रहते हैं। उसे बरी कर दिया जाता है। लेकिन पहले मामले में बरी होने से पहले उसे दूसरे मामले में गिरफ्तार कर लिया जाता है। रिकॉर्ड्स डेटाबेस में रखे जा सकते हैं, जब तक कि दूसरे मामले में फैसला नहीं हो जाता। यह प्रक्रिया तीसरे मामले के जरिए और उसके बाद भी जारी रह सकती है।
प्रसंग 4. व्यक्ति घ आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत सेक्शन 144 के आदेश का उल्लंघन करता है (गैरकानूनी जमावड़ा) और उसे गिरफ्तार किया जाता है। उसके उंगलियों के निशान लिए जाते हैं (बिल में पैमाइश और जांच के लिए जरूरी सबूतों के बीच संबंध होना जरूरी नहीं है)।[10] उसे भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 188 के अंतर्गत दोषी पाया जाता है (लोक सेवक के आदेश का पालन न करना) और उस पर 200 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है।[11] डेटाबेस में उसकी उंगलियों के निशान 75 वर्ष तक रहेंगे।
[3]. Eighty-Seventh Report on Identification of Prisoners Act, 1920, Law Commission of India, 1980.
[4]. Committee on Reforms of Criminal Justice System Report (Volume 1), Ministry of Home Affairs, March 2003.
[6]. Justice K.S. Puttaswamy (Retd) vs. Union of India, W.P. (Civil) No 494 of 2012, Supreme Court of India, August 24, 2017.
[7]. Article 14, The Constitution of India.
[8]. Section 53, The Code of Criminal Procedure, 1973.
[9]. Section 186, The Indian Penal Code, 1860.
[10]. Section 144, The Code of Criminal Procedure, 1973.
[11]. Section 188, The Indian Penal Code, 1860.
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