मंत्रालय: 
वित्त

बिल की मुख्‍य विशेषताएं

  • बिल कुछ मौजूदा अपीलीय ट्रिब्यूनल्स को भंग करता है और उनके कार्यों को दूसरे मौजूदा न्यायिक निकायों को ट्रांसफर करता है। 
  • ट्रिब्यूनल्स के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्य़काल चार वर्ष होगा, जोकि चेयरपर्सन के लिए 70 वर्ष और सदस्यों के लिए 67 वर्ष की आयु सीमा के अधीन होगा।
  • बिल निर्दिष्ट करता है कि चेयरपर्सन या सदस्य के तौर पर नियुक्ति की पात्रता के लिए व्यक्ति की आयु कम से कम 50 वर्ष होनी चाहिए।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विभिन्न फैसलों में चेयरपर्सन के लिए न्यूनतम पांच वर्ष के कार्यकाल की बात कही है, जबकि बिल में इससे कम, चार वर्ष के कार्यकाल का प्रावधान किया गया है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि सदस्यों की नियुक्ति के लिए 50 वर्ष की न्यूनतम आयु सीमा की शर्त से युवा प्रतिभाएं हतोत्साहित हो सकती हैं। उसने पहले निर्देश दिया था कि 10 वर्ष के अनुभव वाले वकील ज्यूडीशियल सदस्य के तौर पर नियुक्ति के पात्र बनाए जाएं। 
  • ट्रिब्यूनल्स को समाप्त करने से नए मामलों के निस्तारण में लगने वाला समय बढ़ सकता है, चूंकि उच्च न्यायालयों में पहले ही बड़ी संख्या में मामले फैसलों के इंतजार में हैं।

 

तालिका 1: ट्रिब्यूनल सुधारों से संबंधित घटनाक्रम[1],[2],[3],[4],[5][6] 

वर्ष

मुख्य घटनाक्रम

2017

  • मार्च 2017 में फाइनांस एक्ट, 2017 में एक जैसे कार्य करने वाले ट्रिब्यूनल्स का विलय करके ट्रिब्यूनल प्रणाली को पुनर्गठित किया गया। ट्रिब्यूनल्स की कुल संख्या को घटाकर 26 से 19 कर दिया गया। उसने इन ट्रिब्यूनल्स के चेयरपर्सन्स और सदस्यों की क्वालिफिकेशन, नियुक्तियों, कार्यकाल, वेतन और भत्ते और सेवा की अन्य शर्तों के लिए नियम बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को सौप दिया।
  • जून 2017 में वित्त मंत्रालय ने नियमों को अधिसूचित किया जिसमें ट्रिब्यूनल्स के सदस्यों की अहर्ताओं, उनके कार्यकाल और सेवा शर्तों और सर्च-कम-सिलेक्शन कमिटीज़ के संयोजन का विवरण था।

2019

  • नवंबर 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 के नियमों को निरस्त कर दिया। अदालत ने कहा कि उसके पहले फैसलों में निम्नलिखित में न्यायिक स्वतंत्रता की अनिवार्यता की बात कही गई थी, और नियम इन शर्तों को पूरा नहीं करते: (i) ट्रिब्यूनल का संयोजन, (iiट्रिब्यूनल के सदस्यों के कार्यकाल की सुरक्षा, और (iiसर्च-कम-सिलेक्शन कमिटीज़ का संयोजन। 

 

  • अदालत ने केंद्र सरकार को फिर से नियम बनाने का निर्देश दिया। अदालत चाहती थी कि निम्नलिखित मुद्दों को संबोधित किया जाए: (i) छोटा कार्यकाल जिससे न्यायिक अनुभव नहीं बढ़ पाता और परिणामस्वरूप ट्रिब्यूनल्स की कार्यकुशलता प्रभावित होती है, और (ii) सिलेक्शन कमिटीज़ में न्यायिक सदस्यों की कम संख्या, जोकि शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का सीधा उल्लंघन है।

2020

  • फरवरी 2020 में नए नियमों को अधिसूचित किया गया। इन्हें फिर से सर्वोच्च न्यायलय में चुनौती दी गई, क्योंकि कहा गया कि ये भी अदालत द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं। उदाहरण के लिए: 2020 के नियमों में चार वर्ष का कार्यकाल निर्दिष्ट किया गया था जबकि 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने पांच वर्ष का कार्यकाल निर्दिष्ट किया था।  
  • अदालत ने 2020 के नियमों में कुछ संशोधनों का सुझाव दिया, जैसे कार्यकाल को बढ़ाकर पांच वर्ष करना, साथ ही पुनर्नियुक्ति की पात्रता (ऊपरी आयु सीमा के अधीन) और 10 वर्ष के अनुभव वाले वकीलों की न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्ति को मंजूरी।

2021

  • ट्रिब्यूनल सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा की शर्तें) बिल, 2021 को फरवरी में लोकसभा में पेश किया गया। चूंकि सत्र के अंत में बिल लंबित था, इसलिए अप्रैल में ऐसे ही प्रावधानों वाला एक अध्यादेश जारी किया गया।
  • फाइनांस एक्ट, 2017 के अंतर्गत 30 जून, 2021 को नए नियम अधिसूचित किए गए। नियमों में 10 वर्षों के प्रासंगिक अनुभव वाले वकीलों की न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्ति को मंजूरी दी गई है और सदस्यों के मकान किराया भत्ते पर विवरण हैं। 
  • अध्यादेश और नियमों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। अदालत ने ट्रिब्यूनल के सदस्यों के चार वर्ष के कार्यकाल और 50 वर्ष की न्यूनतम आयु सीमा से संबंधित शर्त को निरस्त कर दिया है।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

ट्रिब्यूनल सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा की शर्तें) बिल, 2021 को 13 फरवरी, 2021 को लोकसभा में पेश किया गया।[7]  बिल कुछ मौजूदा अपीलीय ट्रिब्यूनल्स को भंग करता है और उनके कार्यों को दूसरे मौजूदा न्यायिक निकायों को ट्रांसफर करता है। इसके अतिरिक्त वह एक्ट में सिलेक्शन कमिटीज़ के संयोजन और कार्यकाल से संबंधित प्रावधानों को शामिल करने का प्रस्ताव रखता है। ऐसे ही प्रावधानों वाला एक अध्यादेश अप्रैल 2021 में जारी किया गया था।[8]  इस अध्यादेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई क्योंकि कहा गया कि यह अध्यादेश ट्रिब्यूनल्स पर सर्वोच्च न्यायालय के पहले के फैसलों के अनुरूप नहीं है।4  जुलाई 2021 में अदालत ने अध्यादेश के कुछ प्रावधानों को निरस्त कर दिया।4 

मुख्य विशेषताएं

  • अपीलीय ट्रिब्यूनल्स को भंग करना और उनके काम को ट्रांसफर करना: बिल कुछ मौजूदा अपीलीय ट्रिब्यूनल्स को भंग करता है और उनके कार्यों को दूसरे मौजूदा न्यायिक निकायों को ट्रांसफर करता है (देखें तालिका 2)। 

तालिका 2: बिल के अंतर्गत प्रस्तावित मुख्य अपीलीय निकायों के कार्यों का ट्रांसफर 

अपीलीय निकाय

भूमिका 

प्रस्तावित एंटिटी

सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 के अंतर्गत अपीलीय ट्रिब्यूनल

फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड के खिलाफ अपील पर निर्णय

उच्च न्यायालय

ट्रेड मार्क्स एक्ट, 1999 के अंतर्गत अपीलीय बोर्ड

रजिस्ट्रार के आदेशों के खिलाफ अपील पर निर्णय

उच्च न्यायालय

कॉपीराइट एक्ट, 1957 के अंतर्गत अपीलीय बोर्ड

रजिस्ट्रार ऑफ कॉपीराइट के आदेशों के खिलाफ अपील और कुछ विवादों पर निर्णय। विवादों में प्रकाशन और कॉपीराइट की शर्तों से संबंधित विवाद शामिल हैं

कमर्शियल अदालत या उच्च न्यायालय की कमर्शियल डिविजन*

कस्टम्स एक्ट, 1962 के अंतर्गत स्थापित अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग्स 

एडवांस रूलिंग्स के लिए कस्टम्स अथॉरिटी के आदेशों के खिलाफ अपील पर फैसला

उच्च न्यायालय

पेटेंट्स एक्ट, 1970 के अंतर्गत अपीलीय बोर्ड

कुछ मामलों पर कंट्रोलर के फैसले के खिलाफ अपील पर निर्णय। इन मामलों में पेंटेंट्स के आवेदन और पेटेंट्स की बहाली शामिल हैं

 

उच्च न्यायालय

एयरपोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया एक्ट, 1994 के अंतर्गत एयरपोर्ट अपीलीय ट्रिब्यूनल

निम्नलिखित पर निर्णय:

  • एयरपोर्ट परिसर में अनाधिकृत कब्जाधारियों ने जो संपत्ति छोड़ी है, उसके निस्तारण से उठने वाले विवाद, और 
  • एविक्शन ऑफिसर के आदेशों के खिलाफ अपील 
  • एयरपोर्ट परिसर में अनाधिकृत कब्जाधारियों की छोड़ी गई संपत्तियों के निस्ता के लिएिस्तारण संबंधी विवाद, औरश की जाएगी। कैसा स होता, यह है कि ोंकि उनकी अपनी सरकार लोकतंत्रण से उठने वाले विवादों पर केंद्र सरकार
  • एविक्शन ऑफिसर के आदेशों के खिलाफ अपील के लिए उच्च न्यायालय

राष्ट्रीय राजमार्ग नियंत्रण (भूमि और ट्रैफिक) एक्ट, 2002 के अंतर्गत एयरपोर्ट

अपीलीय ट्रिब्यूनल

कुछ मुद्दों पर राजमार्ग प्रशासन के आदेशों के खिलाफ अपील पर निर्णय। इन निर्णयों में राजमार्ग भूमि की लीज या लाइसेंस देना, अनाधिकृत कब्जाधारियों को हटाना, और राजमार्ग को नुकसान से रोकना शामिल है

सिविल अदालत # 

पौध किस्मों के संरक्षण और किसान अधिकार एक्ट, 2001 के अंतर्गत अपीलीय ट्रिब्यूनल

पौध किस्मों के संरक्षण और किसान अधिकार के रजिस्ट्रार के आदेशों के खिलाफ अपील पर निर्णय

उच्च न्यायालय

वस्तुओं के भौगोलिक चिन्ह (पंजीकरण और संरक्षण) एक्ट, 1999 के अंतर्गत अपीलीय बोर्ड

रजिस्ट्रार के आदेशों के खिलाफ अपील पर निर्णय

उच्च न्यायालय

नोट्स: * कमर्शियल अदालत एक्ट, 2015 के अंतर्गत स्थापित; # जिले में मूल न्यायक्षेत्र की सिविल अदालत को संदर्भित और इसमें अपने मूल सामान्य सिविल न्यायक्षेत्र का उपयोग करने वाली उच्च न्यायालय शामिल है। 

SourcesThe Tribunals Reforms (Rationalisation and Conditions of ServiceBill, 2021; Parent Acts of the appellate bodies; PRS.

  • सर्च-कम-सिलेक्शन कमिटी: फाइनांस एक्ट, 2017 कहता है कि केंद्र सरकार सर्च-कम-सिलेक्शन कमिटी के सुझाव पर ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन और सदस्य की नियुक्ति करेगी। बिल 2017 के एक्ट में संशोधन करता है और यह निर्दिष्ट करता है कि कमिटी में निम्नलिखित सदस्य होंगे: (i) भारत के मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जोकि कमिटी के चेयरपर्सन होंगे (टाई होने पर सेकेंड कास्टिंग वोट के साथ), (ii) केंद्र सरकार द्वारा नामित दो सेक्रेटरी, (iii) वर्तमान या निवर्तमान चेयरपर्सन, या सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्ति मुख्य न्यायाधीश, और (iv) जिस मंत्रालय के अंतर्गत ट्रिब्यूनल का गठन किया गया है, उसका सेक्रेटरी (वोटिंग अधिकार के बिना)।
  • कार्यकाल: फाइनांस एक्ट, 2017 के अंतर्गत, 2020 के नियम सदस्यों के लिए चार वर्ष का कार्यकाल निर्दिष्ट करते हैं। बिल 2017 के एक्ट में कार्यकाल से संबंधित प्रावधानों को शामिल करने के लिए उस एक्ट में भी संशोधन करता है। बिल पुनर्नियुक्ति के प्रावधान के साथ चार वर्ष के कार्यकाल को बहाल रखता है (जोकि चेयरपर्सन के लिए 70 वर्ष और अन्य सदस्यों के लिए 67 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा के अधीन होगा)। 

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

ट्रिब्यूनल्स अर्ध न्यायिक निकाय होते हैं जोकि अदालती प्रणाली के समानांतर होते हैं। भारत में कुछ ट्रिब्यूनल अधीनस्थ अदालतों के स्तर के हैं जिनके फैसलों के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, जबकि कुछ उच्च न्यायालय के स्तर के, जिनके फैसलों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। ट्रिब्यूनल्स की स्थापना के दो मुख्य कारण हैंतकनीकी मामलों के लिए विषय के विशेष ज्ञान पर विचार, और अदालती प्रक्रिया के दबाव को कम करना। ट्रिब्यूनल्स के कामकाज पर चर्चा के लिए हमारा नोट देखें- भारत में ट्रिब्यूनल प्रणाली। 

ट्रिब्यूनल के पीठासीन अधिकारी और अन्य सदस्यों की नियुक्ति

पीठासीन अधिकारियों और सदस्यों का कार्यकाल सर्वोच्च न्यायालय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है

बिल और अध्यादेश निर्दिष्ट करते हैं कि चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल चार वर्ष होगा।7,8 14 जुलाई, 2021 को सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यादेश के इन प्रावधानों को निरस्त कर दिया।4  अदालत ने कहा कि चार वर्ष का कार्यकाल शक्तियों के पृथक्करण, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, कानून के नियम और कानून के समक्ष समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।4

पिछले कुछ वर्षों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि टिब्यूनल के सदस्यों के छोटे कार्यकाल के साथ-साथ पुनर्नियुक्ति के प्रावधान से न्यायपालिका पर कार्यपालिका का प्रभाव और नियंत्रण बढ़ता है।2,[9] इसके कारण मेधावी उम्मीदवार इन पदों के लिए आवेदन नहीं करते क्योंकि शायद वे इतने कम समय के लिए सदस्य बनने हेतु अपना अच्छा-खासा करियर न छोड़ना चाहें।2 अदालत ने यह भी कहा कि कार्यकाल की सुरक्षा और सेवा की शर्ते (पर्याप्त पारिश्रमिक भी) न्यायपालिका की स्वतंत्रता के मुख्य घटक हैं।2,9  सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि चेयरपर्सन और अन्य सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष होना चाहिए (जोकि चेयरपर्सन के लिए 70 वर्ष और अन्य सदस्यों के लिए 67 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा के अधीन होगा)।3

सदस्यों के तौर पर नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु 50 वर्ष 

बिल और अध्यादेश निर्दिष्ट करते हैं कि किसी व्यक्ति को ट्रिब्यूनल के सदस्य के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए कम से कम 50 वर्ष का होना जरूरी है।7,8 इससे सर्वोच्च न्यायालय के पहले के फैसलों का उल्लंघन होता है और इसे जुलाई 2021 में अदालत ने निरस्त भी कर दिया था।2,4 

2021 में अध्यादेश की समीक्षा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने पहले के फैसलों को दोहराया जिसमें कम उम्र में सदस्यों की भर्ती पर जोर दिया गया था।4  सर्वोच्च न्यायालय पहले फैसला दे चुका है (2020) कि कम से कम 10 वर्ष के प्रासंगिक अनुभव वाले वकील न्यायिक सदस्य के रूप में नियुक्ति के पात्र हैं, जोकि उच्च न्यायालय के जज के लिए जरूरी क्वालिफिकेशन है।3 50 वर्ष की न्यूनतम आयु की शर्त के कारण ऐसे लोग ट्रिब्यूनल के सदस्य नहीं बन पाएंगे। 

ट्रिब्यूनल्स को समाप्त करने से नए मामलों को निपटाने का समय बढ़ सकता है

बिल और अध्यादेश कुछ मौजूदा अपीलीय ट्रिब्यूनल्स को भंग करते हैं और उनके कार्यों को दूसरे मौजूदा न्यायिक निकायों को ट्रांसफर करते हैं। इससे मामलों के निपटारे का समय और बढ़ सकता है।

2021 के बिल के उद्देश्यों और कारणों के कथन में कहा गया है कि पिछले तीन वर्षों के डेटा के अनुसार, कुछ क्षेत्रों में ट्रिब्यूनल्स की मौजूदगी से फैसलों में तेजी नहीं आई और इन ट्रिब्यूनल्स के कारण राजकोष को भी काफी खर्च करना पड़ा।7  उसमें कहा गया है कि संशोधनों से इन ट्रिब्यूनल्स में सपोर्ट स्टाफ और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी की समस्या हल होगी। हालांकि अपीलीय बोर्ड के कार्य उच्च न्यायालय को हस्तांतरित करने से मामलों के निपटान का समय और बढ़ सकता है, चूंकि अधिकतर उच्च न्यायालयों में पहले से ही बहुत से मामले लंबित हैं। उल्लेखनीय है कि 20 जुलाई, 2021 तक भारत के उच्च न्यायालयों में 59 लाख से ज्यादा मामले लंबित थे।[10]  इससे वह उद्देश्य विफल होता है जिसके लिए इन ट्रिब्यूनल्स को बनाया गया था। इनका उद्देश्य यह था कि उच्च न्यायालयों पर दबाव को कम करने में मदद मिले। इसके अतिरिक्त अगर इन ट्रिब्यूनल्स की प्रशासनिक क्षमता की कमी का कोई मुद्दा है तो यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या इनकी क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए या उनका केस लोड दूसरी अदालतों को दिया जाए। 

सर्वोच्च न्यायालय (2019) ने इस प्रश्न पर विचार किया कि क्या ट्रिब्यूनल्स का विलय करने से मुकदमेबाजी बढ़ सकती है, क्योंकि पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर या बजटीय अनुदान न होने के कारण न्यायपालिका पर दबाव बढ़ जाएगा। उसने गौर किया कि न्यायिक प्रणाली पर होने असर का मूल्यांकन नहीं किया गया और अदालत ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह प्रत्येक ट्रिब्यूनल की जरूरतों का मूल्यांकन करे और उन्हें पर्याप्त संसाधन प्रदान करे।2  लेकिन ट्रिब्यूनल्स का पुनर्गठन करने वाले फाइनांस एक्ट, 2017 और इस बिल में वह वित्तीय झापन नहीं दिया गया है जिसमें उनके प्रावधानों के परिणामस्वरूप जरूरी संसाधनों का अनुमान लगाया गया हो।

 

[1] The Finance Act, 2017, Ministry of Law and Justice, March 31, 2017, https://egazette.nic.in/WriteReadData/2017/175141.pdf

[2] Rojer Mathew versus South Indian Bank Ltd & Ors., 2019 (369ELT3 (S.C.), Supreme Court of India, November 13, 2019, https://www.sci.gov.in/pdf/JUD_4.pdf.

[3] Madras Bar Association vs Union of India & Anr., Civil Writ Petition No804 of 2020, Supreme of India, November 27, 2020, https://main.sci.gov.in/supremecourt/2020/16100/16100_202 0_35_1501_24869_Judgement_27-Nov-2020.pdf

[4] Madras Bar Association vs Union of India, W.P.(CNo000502 of 2021, Supreme Court of India, July 14, 2021, https://main.sci.gov.in/supremecourt/2021/10688/10688_2021_36_1501_28573_Judgement_14-Jul-2021.pdf

[5] Tribunal, Appellate Tribunal and other Authorities (Qualifications, Experience and other Conditions of Service of Members) (AmendmentRules, 2021, https://egazette.nic.in/WriteReadData/2021/228033.pdf

[6] Tribunal, Appellate Tribunal and other Authorities (Qualifications, Experience and other Conditions of Service of Members) (AmendmentRules, 2021, https://egazette.nic.in/WriteReadData/2021/228033.pdf

[7] The Tribunals Reforms (Rationalisation and Conditions of ServiceBill, 2021, Ministry of Finance, February 13, 2021, https://prsindia.org/files/bills_acts/bills_parliament/The%20Tribunals%20Reforms%20(Rationalisation%20and%20Conditions%20of%20Service)%20Bill,2021.pdf

[8] The Tribunals Reforms (Rationalisation and Conditions of ServiceOrdinance, 2021, Ministry of Law and Justice, April 4, 2021, https://prsindia.org/files/bill_track/2021-04-04/Tribunals%20Reforms%20Ordinance%202021.pdf

[9] Madras Bar Association versus Union of India, 2014 (308ELT209 (S.C.), Supreme Court of India, September 25, 2014, https://main.sci.gov.in/judgment/judis/41962.pdf.

[10] National Judicial Data Grid (High Courts of India), as accessed on July 20, 2021, https://njdg.ecourts.gov.in/hcnjdgnew/

 

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