मंत्रालय: 
गृह मामले
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस), और भारतीय साक्ष्य बिल, 2023 (बीएसबी) क्रमशः भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी), और भारतीय साक्ष्य एक्ट, 1872 (आईईए) का स्थान लेते हैं। ये बिल मौजूदा कानूनी ढांचे को आधुनिक बनाने और आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने का प्रयास करते हैं।

  • दंडात्मक बनाम सुधारात्मक न्याय: बिल कारावास की बजाय सामुदायिक सेवा प्रदान करके सुधारात्मक न्याय प्रणाली की ओर बढ़ने का प्रयास करते हैं। हालांकि वे अधिकतर आपराधिक न्याय प्रणाली के वर्तमान दंडात्मक चरित्र को बरकरार रखते हैं।

  • दीवानी बनाम आपराधिक न्याय: बिल आईपीसी और सीआरपीसी के कई अपराधों को बरकरार रखता है जो नागरिक विवाद हो सकते हैंयानीये जनता या राज्य के खिलाफ अपराध होने के बजाय किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाते हैं।

  • ट्रायल की प्रक्रिया और सार्वजनिक व्यवस्था बरकरार रखना: बीएनएसएस में जांच और ट्रायल की प्रक्रियाओं के साथ-साथ कानून और व्यवस्था बनाए रखने के प्रावधान भी शामिल हैं। सवाल यह है कि क्या आपराधिक प्रक्रिया से संबंधित कानून को सार्वजनिक व्यवस्था बरकरार रखने से भी संबंधित होना चाहिए।

  • विशेष कानूनों के साथ ओवरलैप होना: बिल आईपीसी के कई प्रावधानों को बरकरार रखता हैजिन्हें अन्य विशेष कानूनों में शामिल किया गया है। इन्हें हटाने से विसंगतियों और प्रशासनिक दोहराव को कम करने में मदद मिल सकती है। बिल में आतंकवाद और संगठित अपराध से संबंधित अन्य विशेष कानूनों के प्रावधान भी जोड़े गए हैं।

  • आपराधिक जिम्मेदारी के लिए आयु: आपराधिक जिम्मेदारी के लिए न्यूनतम आयु सात वर्ष बरकरार रखी गई हैजो अंतरराष्ट्रीय समझौतों और अन्य न्यायक्षेत्रों के मानकों से कम है।

  • जेलों में विचाराधीन कैदियों का उच्च अनुपात: बीएनएसएस सीआरपीसी में मौजूदा प्रावधानों को बरकरार रखता है। अगर आरोपियों पर कई मामले लंबित हैं तो यह उनकी जमानत पर भी रोक लगाता है। यह छोटे अपराध के लिए प्ली बार्गेनिंग की अनुमति नहीं देता।

  • न्यायालय के निर्णयों और कमिटी के सुझावों को संहिताबद्ध नहीं किया गया है: बिल्स में न्यायालयों के कई निर्देशों को संहिताबद्ध नहीं किया गया हैजैसे कि अग्रिम जमानत और गिरफ्तारी प्रक्रिया से संबंधित। बिल में गिरफ्तारीकबूलनामाजमानत और मृत्युदंड से संबंधित विभिन्न उच्च-स्तरीय समितियों के सुझावों को भी शामिल नहीं किया गया है।

  • संस्थागत रुकावटें: न्याय प्रणाली में कई रुकावटेंजैसे पुलिस बल की रिक्तियां और फोरेंसिक क्षमता न होनात्वरित न्याय को प्रभावित करती हैं। बिल में इन चुनौतियों को दूर नहीं किया गया है।

  • ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्देबिल अपराधों के संबंध में कुछ कमियों को दूर नहीं करते हैंइनकी ड्राफ्टिंग में गलतियां हैंऔर पुराने तरीके के उदाहरणों का उपयोग करते हैं।

संदर्भ

ब्रिटिश भारत में आपराधिक न्याय व्यवस्था हेतु मुख्य कानून के रूप में भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी)भारतीय साक्ष्य एक्ट, 1872 (आईईए)दंड प्रक्रिया संहिता, 1882, पुलिस एक्ट, 1861 और जेल एक्ट, 1894 को लागू किया गया था। 1898 में दंड प्रक्रिया संहिता को बदला गया और फिर उसकी जगह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) को लाया गया। संविधान के लागू होने के बाद पुलिस और जेलों को सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में रखा गया।

जबकि आईपीसीसीआरपीसी और आईईए पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली को नियंत्रित करते हैंपिछले कुछ वर्षों में कुछ अपराधों को दंडित करने और अलग-अलग प्रक्रियाएं प्रदान करने के लिए कई विशेष कानून बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए गैरकानूनी गतिविधि (निवारण) एक्ट, 1967 आतंकवादी गतिविधियों और व्यक्तियों और संगठनों की गैरकानूनी गतिविधियों से संबंधित है। यौन अपराधों से बाल संरक्षण एक्ट, 2012 यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से बच्चों का संरक्षण करता है। खाद्य सुरक्षा और मानक एक्ट, 2006 एक रेगुलेटरी कानून है जो खाद्य पदार्थों में मिलावट सहित कई अपराधों को दंडित करता है। संगठित अपराध को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न राज्यों ने भी कानून बनाए हैं।

11 अगस्त, 2023 को लोकसभा में आईपीसीसीआरपीसी और आईईए के स्थान पर तीन बिल पेश किए गए। ये क्रमशः भारतीय न्याय संहिता, 2023 (बीएनएस)भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस)और भारतीय साक्ष्य एक्ट, 2023 (बीएसबी) हैं। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी ने इन तीन बिल्स की समीक्षा की है।[1]

आपराधिक कानून के सुधारों से संबंधित मुख्य मुद्दे 

आपराधिक न्याय प्रणाली का आधुनिकीकरण

आईपीसीआईईए और सीआरपीसी का एक बड़ा खंड स्वतंत्र भारत से भी पुराना है। यह देखते हुए कि बिल्स 19वीं और 20वीं सदी के कानूनों की जगह ले रहे हैं (हालांकि कई बार संशोधित किए गए हैं)सवाल यह है कि क्या वे आपराधिक न्यायशास्त्र के मौजूदा मानदंडों को प्रतिबिंबित करते हैं। यहां हम नौ पहलुओं की जांच कर रहे हैं।

क्या आपराधिक कानूनों का स्वरूप सुधारात्मक या दंडात्मक होना चाहिए? 

1979 में सर्वोच्च न्यायालय ने संकेत दिया कि अपराधियों का सुधार और पुनर्वास केवल अपराध की रोकथाम के बजाय भारत में आपराधिक न्याय प्रशासन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य था।[2] दंड का विचार सुधारात्मक हो और इसका उद्देश्य अपराधियों का समाज में फिर से समावेश करना होआपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिए महत्वपूर्ण है।[3]  आपराधिक न्याय पर राष्ट्रीय नीति के मसौदे (2007) की रिपोर्ट ने आपराधिक कानून में कुछ सुधारात्मक तत्वों को शामिल करने का सुझाव दिया था।[4] इनमें निम्नलिखित शामिल हैं: (i) उन अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करना जिन्हें नागरिक प्रक्रिया के माध्यम से निपटाया जा सकता है, (ii) मुकदमे के बिना मामले को निपटाने को बढ़ावा देना (कंपाउंडिंग और प्ली बार्गेनिंग)और (iii) आवारागर्दी जैसे अपराधों के लिए मुआवजे और सामुदायिक सेवा की अनुमति देना। बिल कुछ अपराधों के लिए कारावास की बजाय सामुदायिक सेवा के जरिए सुधारात्मक न्याय की दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। हालांकि वे बड़े पैमाने पर आपराधिक न्याय प्रणाली के दंडात्मक चरित्र को बरकरार रखते हैं।

अपराधों को जमानत और समझौता योग्य के रूप में वर्गीकृत करने में विसंगतियां हैं। उदाहरण के लिएचोरी के लिए एक वर्ष से पांच वर्ष तक के कठोर कारावास की सजा हो सकती है। बीएनएस का कहना है कि चोरी की सजा के तौर पर सामुदायिक सेवा भी करवाई जा सकती है। यह उन मामलों के लिए प्रदान किया जाएगा जहां: (i) चोरी की गई संपत्ति का मूल्य 5,000 रुपए से कम है (ii) व्यक्ति पहली बार अपराधी हैऔर (iii) चोरी की गई संपत्ति वापस कर दी जाती है या उसका मूल्य बहाल कर दिया जाता है। हालांकि चोरी एक गैर-जमानती अपराध है। दूसरी ओर बीएनएस स्नैचिंग को एक अपराध (चोरी का गंभीर रूप) के रूप में जोड़ता है जिसमें तीन साल तक की कैद की सजा हो सकती है लेकिन इसे जमानत योग्य अपराध बना दिया गया है। इसके अलावा कई छोटे-मोटे अपराध जिनका समरी ट्रायल किया जा सकता है, वे कंपाउंडिंग योग्य नहीं हैं और उनके लिए मुकदमे और दोषसिद्धि की आवश्यकता होगी (यहां तक कि जुर्माने के साथ भी)। उदाहरण के लिएबीएनएस अनाधिकृत लॉटरी ऑफिस होने पर छह महीने तक की कैद की सजा देता है। हालांकिसजा की गंभीरता से पता चलता है कि इसे एक छोटा अपराध माना गया है और यह समरी ट्रायल के योग्य हैयह बीएनएसएस के तहत कंपाउंडिंग योग्य अपराधों की सूची में शामिल नहीं है।

अन्य देशों की न्याय व्यवस्थाओं में सुधारात्मक प्रक्रिया की ओर कदम बढ़ाया गया है। उदाहरण के लिएकैलिफोर्निया क्रिमिनल कोड को 2022 में संशोधित किया गया था। संशोधन में कहा गया था कि विधायिकाओं को "कम से कम प्रतिबंधात्मक तरीकों से" आपराधिक मामलों को निपटाना चाहिए। इसमें न्यायाधीशों को "कैद के विकल्पों पर विचार करना चाहिए जिसमें बिना किसी सीमा केसहयोगपरक न्यायालय कार्यक्रम (जस्टिस कोर्ट प्रोग्राम्स)डायवर्जनपुनर्स्थापनात्मक न्याय (रेस्टोरेटिव जस्टिस) और परिवीक्षा (प्रोबेशन) शामिल है"।[5]

बिल्स के तहत कई अपराधों को दीवानी मामलों के तौर पर नहीं माना जा सकता 

आमतौर पर दीवानी कानून निजी पक्षों के बीच विवादों और व्यक्तियों के लापरवाह कृत्यों से संबंधित होते हैं जो दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं।[6] आपराधिक कानून व्यक्तियों को जानबूझकर नुकसान पहुंचाने वाले कृत्यों और ऐसे अपराधों से संबंधित होते हैं जो जनतासमाज या राज्य के खिलाफ हो सकते हैं। सीआरपीसी उन अपराधों की एक सूची प्रदान करती है जिनकी कंपाउंडिंग प्रभावित व्यक्ति कर सकते हैं और जिनके परिणामस्वरूप आरोपी को बरी कर दिया जाएगा। बीएनएसएस सीआरपीसी के उन्हीं समान प्रावधानों को बरकरार रखता है। उदाहरण के लिएधोखाधड़ी के मामले में जिस व्यक्ति को धोखा दिया गया हैवह अपराध को कंपाउंड कर सकता है। प्रभावित व्यक्ति को यह शक्ति देकरसीआरपीसी ऐसे अपराधों को बड़े पैमाने पर समाज के बजाय व्यक्ति के विरुद्ध मानता है। सवाल उठता है कि क्या ऐसे मामलों को बीएनएस में रखने की बजाय दीवानी मामला माना जाना चाहिए?

बीएनएसएस और बीएनएस ने सीआरपीसी और आईपीसी के कई प्रावधानों को भी बरकरार रखा है जिन्हें दीवानी विवाद माना जा सकता है। इनमें पत्नियोंबच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण प्रदान करने से संबंधित प्रावधान शामिल हैं। आईपीसी मानहानि का दंड देता हैजिसे बीएनएस में रखा जाता है। जबकि यूनाइटेड किंगडम और न्यूजीलैंड जैसे कुछ देश अब मानहानि को एक दीवानी अपराध मानते हैंकनाडा और जर्मनी जैसे कुछ अन्य देशों ने मानहानि को अपने आपराधिक कानून में शामिल किया है।[7]  

बीएनएसएस में सार्वजनिक व्यवस्था संबंधी कार्य भी शामिल 

सीआरपीसी अपराधों की जांच और मुकदमे की प्रक्रिया प्रदान करता है। इसमें शांति बरकरार रखने के लिए सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल रखने के प्रावधान भी शामिल हैं। इसमें ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो जिला मजिस्ट्रेट को सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने की अनुमति देते हैं। बीएनएसएस ने इन प्रावधानों को (अलग-अलग अध्यायों में) बरकरार रखा है। चूंकि मुकदमेबाजी और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करना अलग-अलग कार्य हैंइसलिए सवाल यह है कि क्या उन्हें एक ही कानून में शामिल किया जाना चाहिए या क्या उनसे अलग से निपटा जाना चाहिए। संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसारसार्वजनिक व्यवस्था राज्य का विषय है।[8] हालांकि सीआरपीसी के तहत मामले (संविधान के प्रारंभ से पहले) समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं।[9]

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के निर्देशों को संहिताबद्ध करना

न्यायालयों ने आपराधिक न्याय प्रणाली के कई पहलुओं के लिए प्रक्रियाएं निर्धारित की हैं। इन प्रक्रियाओं और दिशानिर्देशों को कानून में संहिताबद्ध करने का सुझाव दो महत्वपूर्ण कारणों से दिया जाता है। सबसे पहलेएक ही मुद्दे से संबंधित कई निर्णय हो सकते हैंजो आम जनता और कानून प्रवर्तन अधिकारियों को आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकते या समझ नहीं आ सकते। दूसराविधायिका के पास पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ उचित कानून बनाने के लिए संवैधानिक जनादेश और विचार-विमर्श प्रक्रियाएं हैंजबकि अदालतें केवल उस अंतर को दूर करती हैं। उदाहरण के लिए विशाखा फैसले ने कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए दिशानिर्देश बनाए जिसके बाद 2013 में संसद ने एक कानून बनाया।[10],[11]

ये बिल आंशिक रूप से सिद्धांत का पालन करते हैं। बीएनएसएस का कहना है कि हर राज्य गवाहों की सुरक्षा के लिए एक गवाह सुरक्षा योजना तैयार करेगा और उसे अधिसूचित करेगा। सर्वोच्च न्यायालय लंबे समय से गवाहों की सुरक्षा पर जोर देता रहा है, और उसके बाद 2018 में गवाह संरक्षणस योजना को लागू किया गया था। तो, इस प्रावधान का श्रेय उस पूरी मेहनत को जाता है।[12] हालांकि बिल कुछ अन्य पहलुओं को संहिताबद्ध नहीं करते हैंजैसे कि गिरफ्तारी और जमानत से संबंधित। चूंकि ये कार्य देशभर में पुलिस अधिकारियों और न्यायाधीशों द्वारा किए जाते हैंइसलिए इन्हें संहिताबद्ध करने से कार्यान्वयन में कुछ एकरूपता लाने में मदद मिलेगी। उदाहरण के लिएसर्वोच्च न्यायालय (2021) ने कहा था कि आईपीसी के तहत सात साल तक की सजा वाले अपराधों के लिएअदालत आरोपी को हिरासत में लिए बिना उसकी उपस्थिति में उसकी जमानत अर्जी पर फैसला कर सकती है।[13]  

सजा संबंधी दिशानिर्देश सजा में न्यायिक असमानता को दूर करने में मदद कर सकते हैं 

कई अपराध दंड के लिए एक सीमा निर्दिष्ट करते हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई पुरुष किसी ऐसी महिला को धोखा देता हैजिसने उससे शादी नहीं की हैयह सोच कर कि वे शादीशुदा हैं और उसके साथ सहवास करता हैतो जुर्माने के साथ 10 साल तक की कैद होगी। इसका मतलब यह है कि न्यायाधीश एक दिन से लेकर 10 साल तक की सजा दे सकता है। न्यायाधीश को उचित सजा निर्धारित करने के लिए मामले की परिस्थितियों के आधार पर निर्णय देने का काम सौंपा गया है। इतनी विस्तृत सीमा के साथअलग-अलग न्यायाधीश समान मामलों पर अलग-अलग सजा दे सकते हैंजिसके परिणामस्वरूप परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि किस न्यायाधीश को मामला सौंपा गया है। समान मामलों की सज़ा में न्यायिक असमानता कानूनी प्रणाली में निष्पक्षता और स्थिरता को प्रभावित कर सकती है। तो, इसे दूर करने के लिए स्वीकार्य दंड की सीमा को कम किया जा सकता है, और सजा से संबंधित दिशानिर्देश दिए जा सकते हैं ताकि न्यायाधीशों के बीच एकरूपता सुनिश्चित की जा सके।  

यह सुनिश्चित करने के लिए कि सजा आनुपातिक हैंकई न्यायक्षेत्रों ने सजा संबंधी दिशानिर्देश पेश किए हैं। यूनाइटेड किंगडम और अमेरिकी राज्य मिनेसोटा और कैलिफोर्नियान्यायाधीशों को सजा के नियमों के अनुसार सजा निर्धारित करने का अधिकार देते हैं।[14],[15] ये नियम प्रत्येक अपराध के लिए दंड की एक सीमा सहित कई दूसरे दिशानिर्देश प्रदान करते हैं जोकि अपराधी की व्यक्तिगत परिस्थितियों और अपराध की गंभीरता जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए दिए जा सकते हैं।[16]  मलिमथ समिति (2003) ने सजा देने में अनिश्चितता को कम करने के लिए सजा संबंधी दिशानिर्देश अपनाने का सुझाव दिया था।[17]  

आपराधिक जिम्मेदारी की न्यूनतम आयु सात वर्ष निर्धारित है 

आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र उस न्यूनतम उम्र को कहा जाता है, जब से किसी बच्चे पर मुकदमा चलाया जा सकता है और किसी अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है। किशोरों के व्यवहार को प्रभावित करने वाली न्यूरोबायोलॉजिकल प्रक्रियाओं की समझ जब विकसित हुई तब यह सवाल खड़े हुए कि बच्चों को उनके कार्यों के लिए किस हद तक जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।[18] आईपीसी के तहत सात साल से कम उम्र के बच्चे द्वारा किया गया कोई भी काम अपराध नहीं माना जाता है। अगर यह पाया जाता है कि बच्चे ने अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों को समझने की क्षमता हासिल नहीं की हैतो आपराधिक जिम्मेदारी की आयु बढ़कर 12 वर्ष हो जाती है। बीएनएस ने इन प्रावधानों को बरकरार रखा है। यह उम्र अन्य देशों में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र से कम है। उदाहरण के लिएजर्मनी में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र 14 वर्ष हैजबकि इंग्लैंड और वेल्स में यह 10 वर्ष है।[19],[20] स्कॉटलैंड में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र 12 वर्ष है।[21]  यह उन अंतरराष्ट्रीय समझौतों का भी उल्लंघन कर सकता है जिन पर भारत ने हस्ताक्षर किए हैं। 2007 में संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समिति ने विभिन्न देशों से कहा था कि वे आपराधिक जिम्मेदारी की आयु 12 वर्ष से अधिक करें।[22]  

एक से अधिक आरोप होने पर जमानत का दायरा सीमित 

सीआरपीसी के अनुसारअगर किसी विचाराधीन कैदी ने किसी अपराध के लिए कारावास की अधिकतम अवधि का आधा हिस्सा हिरासत में बिताया हैतो उसे उसके निजी बांड पर रिहा किया जाना चाहिए। यह प्रावधान उन अपराधों पर लागू नहीं होता है जिनमें मौत की सजा हो सकती है। बीएनएसएस ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है और कहा है कि उन विचाराधीन कैदियों को जमानत दी जाएगी जो पहली बार अपराधी हैं, अगर उन्होंने अधिकतम सजा का एक तिहाई पूरा कर लिया है। हालांकि यह प्रावधान निम्नलिखित अपराधों और व्यक्तियों पर भी नहीं लागू होंगे: (i) आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधऔर (ii) ऐसे व्यक्ति जिनके खिलाफ एक से अधिक अपराधों में कार्यवाही लंबित है। चूंकि आरोप पत्रों में अक्सर कई अपराधों का उल्लेख होता हैइसलिए इस प्रावधान से कई विचाराधीन कैदी अनिवार्य जमानत के अयोग्य हो सकते हैं।

प्ली बार्गेनिंग को सीमित करना 

प्ली बार्गेनिंग बचाव और अभियोजन पक्ष के बीच एक समझौता होता है जहां अभियुक्त कम अपराध या कम सजा के लिए दोषी माने जाने का निवेदन करता है। इसे 2005 में सीआरपीसी में जोड़ा गया था। मृत्युदंडआजीवन कारावास या सात साल से अधिक कारावास की सजा वाले कुछ अपराध प्ली बार्गेनिंग के अधीन नहीं हैं। सीआरपीसी किसी छोटे अपराध के लिए या अपराध को कम करने के लिए बार्गेनिंग यानी सौदेबाजी की अनुमति नहीं देता है- ऐसे में आरोपी द्वारा अपराध कबूल कर लिया माना जाएगा और उसे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाएगा। बीएनएसएस इस प्रावधान को बरकरार रखता है। यह भारत में प्ली बार्गेनिंग को सेंटेंस बार्गेनिग तक सीमित करता हैयानी आरोपी की दोषी याचिका (गिल्टी प्ली) के बदले में हल्की सजा। 

विभिन्न उच्च-स्तरीय समितियों के सुझावों को शामिल करना

पिछले कुछ वर्षों में कई समितियों ने आपराधिक कानून के पहलुओं की जांच की है। इनमें विधि आयोगगृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटीन्यायमूर्ति मलिमथ समिति (2003), और न्यायमूर्ति वर्मा समिति (2013) शामिल हैं। इन समितियों ने जिन विषयों पर विचार किया, उनमें गिरफ्तारीकबूलनामाजमानतगलत अभियोजन के लिए मुआवजा और मृत्युदंड से संबंधित पहलू शामिल हैं। इन समितियों के कई प्रमुख सुझावों को बिल्स में शामिल नहीं किया गया है।

उदाहरण के लिए मलिमथ समिति (2003) ने गलत तरीके से आरोपी बनाए गए लोगों को मुआवजा प्रदान करने के लिए सीआरपीसी में एक अध्याय जोड़ने का सुझाव दिया था।17 विधि आयोग (2003) ने सुझाव दिया था कि पुलिस कस्टडी में धमकाकर या हिंसा के जरिए आरोपी से प्राप्त जानकारी को साबित नहीं किया जाएगा।[23]  2017 में विधि आयोग ने भी सीआरपीसी में एक नई धारा जोड़ने का सुझाव दिया था जिसके तहत अदालतों को जमानत से इनकार करने के कारण रिकॉर्ड करने होंगे।[24]  सुझावों की विस्तृत सूची के लिएकृपया तीनों बिल्स पर हमारे लेजिसलेटिव ब्रीफ्स देखें। 

आपराधिक न्याय प्रणाली में संस्थागत रुकावटें 

आपराधिक न्याय प्रणाली पुलिसन्यायपालिकानौकरशाही (जिला मजिस्ट्रेट) और जेल अधिकारियों सहित विभिन्न संस्थाओं के कामकाज पर निर्भर है। पुलिस अधिकारियों के पास कानून लागू करनेसंदिग्धों को गिरफ्तार करने और उन्हें हिरासत में लेने की शक्ति है। ये संदिग्ध एक न्यायाधीश के सामने पेश हो सकते हैं जो उनका अपराधी या निर्दोष होना निर्धारित करेगा। दोषी ठहराए जाने परजेल अधिकारियों को कारावासपैरोल और परिवीक्षा का प्रबंधन करने का काम सौंपा जाता है। हालांकि आपराधिक न्याय प्रणाली में कई लॉजिस्टिक्स समस्याएं भी हैं जैसे कर्मचारियों की कमीविशेषज्ञों की कमी और लंबित मामलों की उच्च दर और जेल में कैदियों की अधिक संख्या। ये सब अंततः पूरी प्रणाली को प्रभावित करते हैं।

पुलिस में रिक्तियां और अतिरिक्त कार्यभार से जांच में बाधा आती है

रिक्तियां: 1 जनवरी 2021 तक राज्यों में लगभग 21% पुलिस पद खाली थे। यह रिक्ति दर राज्यों में भिन्न-भिन्न है।[25] उदाहरण के लिएकेरल (4%) और हिमाचल प्रदेश (9%) की तुलना में बिहार (42%) और पश्चिम बंगाल (38%) की राज्य पुलिस में रिक्ति की दर अधिक है।25 विभिन्न पदों पर भी रिक्ति की दर अलग-अलग है। जैसे सुपरिंटेंडेंट के पद पर रिक्ति की दर 8% है, और इंस्पेक्टर के पद पर 28%।25 पुलिस बल का महिलाओं का हिस्सा लगभग 10% है।[26] कर्मचारियों की कमी के कारण प्रशासनिक बाधाओं को दूर करने के लि गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2022) ने राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को पुलिस भर्ती अभियान चलाने का सुझाव दिया।33 

जांच में सुधारगृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2022) ने एक चिंता और जाहिर की थी। उसने कहा था कि दोष सिद्धि की दर भी बहुत कम है, जोकि हत्याबलात्कारअपहरण जैसे मुख्य अपराधों के लिए 45% से भी कम है।26 इसके मुख्य कारणों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) जांच में चूक, (ii) अन्य कार्यों के कारण जांच के लिए समय की कमी, (iii) नियमित रूप से केस डायरी न लिखनाऔर (iv) सबूत जमा और उन्हें संरक्षित न कर पाना।26  कमिटी ने सुझाव दिया था कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मौका-ए-वारदात का आकलन करें और महत्वपूर्ण मामलों एवं जांच अधिकारियों के प्रदर्शन पर मासिक रिपोर्ट प्रस्तुत करें।26 

जांच को प्राथमिकता देने के लिए मूसाहारी समिति (2005) ने सुझाव दिया था कि पुलिस के मुख्य कार्यों (जांच और कानून एवं व्यवस्था को बहाल करना) को गैर-मुख्य कार्यों (समन देना) से अलग किया जाए।[27]  गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2022) ने इस बात पर जोर दिया था कि अपराधों की जांच में पुलिस की जवाबदेही और स्वायत्तता के लिए जांच को कानून और व्यवस्था से अलग करना महत्वपूर्ण है।26 उसने कहा था कि तमिलनाडुमहाराष्ट्र और पंजाब सहित केवल छह राज्यों ने जांच और कानून एवं व्यवस्था के कामों को पूरी तरह से अलग कर दिया है। 

फॉरेंसिक सुविधाओं का अभाव

फॉरेंसिक प्रयोगशालाएं कानून प्रवर्तन और न्यायपालिका को विश्लेषणात्मक सहायता प्रदान करके जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।[28]  ये प्रयोगशालाएं हत्यायौन उत्पीड़न और डकैती जैसे अपराधों की डीएनए-आधारित फॉरेंसिक जांच भी करती हैं।[29]  बीएनएसएस के तहत ऐसे प्रत्येक अपराध के सबूत इकट्ठा करने के लिए फॉरेंसिक एक्सपर्ट को अपराध स्थल पर अनिवार्य रूप से जाना होगा जिसके लिए कम से कम सात साल की सजा है। यह प्रावधान पहली बार किया गया है। अगर कोई फॉरेंसिक सुविधा उपलब्ध नहीं हैतो राज्य सरकार किसी दूसरे राज्य की सुविधा के इस्तेमाल को अधिसूचित कर सकती है। जबकि बिल जांच में फॉरेंसिक के अधिक इस्तेमाल का प्रावधान करता है, ऐसी सुविधाओं की उपलब्धता चिंता का विषय बनी हुई है।

वर्तमान में केंद्रीय जांच ब्यूरो के तहत दिल्ली में छह केंद्रीय फॉरेंसिक प्रयोगशालाएं (सीएफएल) और एक अतिरिक्त सीएफएल हैं।[30] मार्च 2023 तक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 32 राज्य फॉरेंसिक प्रयोगशालाएं, 106 क्षेत्रीय फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएं और 516 मोबाइल फॉरेंसिक विज्ञान वाहन हैं।[31]  राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं की संख्या भी एक समान नहीं है। उदाहरण के लिएजनवरी 2021 तक उत्तर प्रदेश में चार और ओड़िशा में तीन क्षेत्रीय फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाएं थींजबकि महाराष्ट्र में सात और तमिलनाडु में दस थीं।[32]  गृह मामलों से संबंधित कमिटी (2022) ने गृह मंत्रालय को सुझाव दिया था कि दो साल के भीतर प्रत्येक राज्य की राजधानी और दस लाख से अधिक आबादी वाले हर शहर में एक फॉरेंसिक प्रयोगशाला बनाई जाए।[33]  वर्तमान में फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे: (i) समय पर जांच के लिए सीमित क्षमताएं, (ii) तकनीकी उन्नयन, (iii) प्रशिक्षित कर्मचारियों की उपलब्धताऔर (iv) गुणवत्ता आश्वासन और नियंत्रण सुनिश्चित करना।[34]  

लंबित मामलों की अधिक संख्या

भारतीय न्यायपालिका को सभी स्तरों पर लंबित मामलों की बढ़ती संख्या और अधिकांश स्तरों पर बड़ी रिक्तियों का सामना करना पड़ रहा है। लंबी अवधि तक मामलों के बढ़ते बैकलॉग के परिणामस्वरूपविचाराधीन कैदियों (मुकदमे का इंतज़ार कर रहे अभियुक्तों) की संख्या में भी वृद्धि हुई है। दिसंबर 2021 तकभारत की जेलों में 5.5 लाख से अधिक कैदी थेजिनकी कुल ऑक्यूपेंसी दर 130% थी।[35]  इनमें से लगभग 77% कैदी विचाराधीन कैदी (4.3 लाख) थेजबकि शेष 23% दोषी और बंदी थे।[36]  दिल्ली (91%), जम्मू और कश्मीर (91%), बिहार (89%), पश्चिम बंगाल (88%), और ओड़िशा (87%) में विचारधीन कैदियों की संख्या बहुत अधिक है।[37]   

लंबित मामलों का बोझ और विचाराधीन कैदियों की बड़ी संख्या न्यायिक प्रणाली के कई स्तरों को प्रभावित करती है। 30 मार्च, 2022 तक सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों में से लगभग 20% आपराधिक मामले थे।[38] 12 दिसंबर, 2021 तक भारत की निचली अदालतों में कुल लंबित मामलों में से 74% आपराधिक मामले थे।[39] नवंबर 2023 तक 30 लाख से अधिक आपराधिक मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।[40]

बिल और विशेष कानूनों के बीच ओवरलैप 

जब आईपीसी को लागू किया गया थातो इसमें सभी फौजदारी अपराधों को शामिल किया गया था। समय के साथविशिष्ट विषयों और संबंधित अपराधों को संबोधित करने के लिए विशेष कानून बनाए गए हैं। इनमें से कुछ अपराधों को बीएनएस से हटा दिया गया है। उदाहरण के लिएलीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009 में शामिल वजन और माप से संबंधित अपराधों को बीएनएस से हटा दिया गया है।[41]  हालांकि कई अपराध अभी भी बरकरार हैंजैसे खाद्य और दवाओं में मिलावटबंधुआ मजदूरीमोटर वाहन और मानव तस्करी से संबंधित अपराध। इसके अलावाबीएनएस आतंकवाद और संगठित अपराध को अपराध के रूप में जोड़ता है। ये अपराध प्रासंगिक विशेष कानूनों के अंतर्गत आते हैं।

कुछ मामलों मेंकानूनों के दोहराव से एक समानांतर रेगुलेटरी और प्रशासनिक ढांचा तैयार हो सकता है जिससे अतिरिक्त अनुपालन का बोझ और लागत बढ़ सकती है। इन कानूनों में समान अपराधों के लिए दंड भी भिन्न-भिन्न हैं। कुछ कानून एक ही विषय के लिए अलग-अलग परिभाषाएं भी प्रदान करते हैं। ऐसे अपराधों से संबंधित प्रावधानों को हटाने से दोहरावसंभावित असंगति और कई प्रकार रेगुलेटरी व्यवस्थाएं दूर हो सकती हैं। ऐसे ओवरलैप के उदाहरणों के लिए बीएनएस और बीएनएसएस पर हमारे लेजिसलेटिव ब्रीफ्स विवरण देखें।

आपराधिक पहचान2006 में सीआरपीसी में संशोधन किया गया ताकि मेजिस्ट्रेट को किसी व्यक्ति से हैंडराइटिंग या हस्ताक्षर के नमूने प्राप्त करने की शक्ति मिल सके। बीएनएसएस ने मजिस्ट्रेट को उंगलियों के निशान और आवाज के नमूने एकत्र करने का अधिकार देकर इस प्रावधान का विस्तार किया हैऔर उन व्यक्तियों के दायरे का विस्तार किया है जिनका डेटा एकत्र किया जा सकता है। आपराधिक दंड प्रक्रिया (पहचान) एक्ट, 2022 जांच के लिए व्यक्तियों के बारे में अधिक पहचान योग्य जानकारी (जैसे जैविक नमूने) एकत्र करने की अनुमति देता है। यह उन व्यक्तियों के डेटा के संग्रह की भी अनुमति देता है जो आरोपी नहीं हो सकते हैं। सवाल यह है कि क्या इस प्रावधान की आवश्यकता है, अगर इसे मौजूदा कानूनों में पहले से ही शामिल किया गया है, और वह भी डेटा जमा करने के व्यापक प्रावधानों के साथ।  

कानून में कमियां और ड्राफ्टिंग के मुद्दे

बिल में ऐसी खामियां हैं जो अन्य कानूनों में शामिल नहीं हैं। उदाहरण के लिएबीएनएस ने आईपीसी की पूर्ववर्ती धारा 377 को हटा दिया हैजिससे ऐसा कोई कानून नहीं रह गया है जो किसी वयस्क व्यक्ति के बलात्कार को अपराध बनाता हो। इसके अलावा ड्राफ्टिंग की गलतियों के भी कई उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए, "बशर्ते कि" के स्थान पर "जब तक" के इस्तेमाल से मामले उलट जाते हैं, जब नशे में धुत किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।

ऐसे उदाहरण भी हैं जो पुराने ढंग के हैंजिनमें तलवारोंघोड़ोंतोपोंरथों और पालकियों का उल्लेख है। उदाहरणों का मकसद यह होता है कि जनता (साथ ही न्यायाधीशों) के लिए यह समझना आसान हो कि उस सेक्शन के अंतर्गत क्या आएगा। इसलिएउदाहरण सामान्य जीवन में पाए जाने वाले उदाहरणों से संबंधित होने चाहिए। कृपया कमियोंड्राफ्टिंग की गलतियों और पुराने तरीके के उदाहरणों के लिए संबंधित बिल्स पर हमारे लेजिसलेटिव ब्रीफ्स देखें।

[1]Report No. 248, ‘The Bharatiya Sakshya Bill, 2023’, The Standing Committee on Home Affairs, Rajya Sabha, November 10, 2023.

[2]. 1979 AIR 964, Bishnu Deo Shaw @ Bishnu Dayal v. State of West Bengal, Supreme Court, February 22, 1979. 

[3]. ‘Criminal Justice Reform’, United Nations Office on Drugs and Crime.

[5]Section 17.2, Preliminary Provisions, California Penal Code. 

[6]“Civil and Criminal Law”, National Institute of Open Schooling.

[7]Defamation Act, 1992, New Zealand; The Coroners and Justice Act, 2009, The United Kingdom; Section 297, Canada Criminal Code; Section 187, The German Criminal Code.

[8]. Entry 1, List II, Seventh Schedule, The Constitution of India.

[9]. Entry 2, List III, Seventh Schedule, The Constitution of India.

[10].Vishaka v. State of Rajasthan, Supreme Court, August 13, 1997, 

[12]. N0.9/RN/Ref/February/2022, Witness Protection Scheme, 2018, Reference Note, Parliament Library and Reference, Research, Documentation and Information Service, Witness Protection Scheme, 2018, The Ministry of Home Affairs.

[13]. Special Leave Petition (crl) No. 5191 of 2021, Satender Kumar Antil v. Central Bureau of Investigation, Supreme Court, July 11,2021.

[14]'Sentencing – Overview, General Principles and Mandatory Custodial Sentences', Crown Prosecution Service, United Kingdom, June 2023.

[16]Rule 4.420 - Selection of term of imprisonment for offense, California Rules of Court.

[18]. PostNote 588, Age of Criminal Responsibility, Parliamentary Office of Science and Technology, The United Kingdom, June 2018. 

[19]. Section 19, The German Criminal Code, 1998.

[20]. “Age of criminal responsibility”, The Government of the United Kingdom.

[21]. “If a young person gets in trouble with the police”, The Government of Scotland. 

[23]Report No. 268, Law Commission of India, 2017. 

[24]. Report No. 185, Chapter III and Annexure, Law Commission of India, 2003.

[25]Data on Police Organisations, Bureau of Police Research and Development, Ministry of Home Affairs, January 1, 2021.

[26]Report No. 237, Police- Training, Modernisation, and Reforms, Standing Committee on Home Affairs, Rajya Sabha, February 10, 2022. 

[28]Central Forensic Science Laboratory Chandigarh, Ministry of Home Affairs, as accessed on November 19, 2023. 

[29]Unstarred Question No. 4126, Rajya Sabha, Ministry of Home Affairs, April 07, 2022. 

[30]Unstarred Question No. 2686, Rajya Sabha, Ministry of Home Affairs, August 10, 2016.

[31]. Report No. 242, ‘Demands for Grants: Ministry of Home Affairs 2023-24’, Standing Committee on Home Affairs, Rajya Sabha, March 20, 2023.

[32]Data on Police Organisation, Bureau of Police Research and Development, Ministry of Home Affairs, 2021.

[33]. Report No. 238, ‘Demands for Grants (2022-23), Ministry of Home Affairs’, Standing Committee on Home Affairs, Rajya Sabha, March 14, 2022. 

[34]. Starred Question No. 124, Ministry of Home Affairs, Lok Sabha, July 26, 2022. 

[35]‘Prisons and Occupancy’, Prison Statistics 2021, Ministry of Home Affairs. 

[36]‘Prisoners- Types and Demography’, Prison Statistics India 2021, Ministry of Home Affairs. 

[38]. Unstarred Question No. 4118, Rajya Sabha, Ministry of Law and Justice, April 7, 2022,

[39]. Unstarred Question No. 2201, Rajya Sabha, Ministry of Law and Justice, December 16, 2021.

[40]The National Judicial Data Grid, as accessed on November 23, 2023.

[41]Legal Meteorology Act, 2009

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