मंत्रालय: 
विधि एवं न्याय

अध्यादेश की मुख्‍य विशेषताएं

  • कमर्शियल अदालत एक्ट, 2015 में प्रावधान है कि कमर्शियल अदालतें और उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन्स न्यूनतम एक करोड़ रुपए मूल्य के कमर्शियल विवादों पर फैसले ले सकती हैं। अध्यादेश इस सीमा को तीन लाख रुपए करता है।
     
  • अध्यादेश राज्य सरकारों को जिला स्तर पर कमर्शियल अदालतें स्थापित करने की अनुमति देता है, उन क्षेत्रों में भी जहां उच्च न्यायालयों का सामान्य मूल दीवानी क्षेत्राधिकार (ऑर्डिनरी ओरिजनल सिविल ज्यूरिस्डिक्शन) है।
     
  • जिन क्षेत्रों में उच्च न्यायालयों का मूल क्षेत्राधिकार नहीं है, वहां राज्य सरकारें जिला स्तर पर कमर्शियल अपीलीय अदालतें स्थापित कर सकती हैं जोकि जिला जज के स्तर से नीचे की कमर्शियल अदालतों की अपील की सुनवाई करेंगी।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

  • अध्यादेश कमर्शियल अदालतों के आर्थिक क्षेत्राधिकार को एक करोड़ रुपए से घटाकर तीन लाख रुपए करता है। यह कहा जा सकता है कि तीन लाख रुपए से अधिक के सभी कमर्शियल विवादों को ट्रांसफर करने से कमर्शियल अदालतों पर बहुत अधिक बोझ पड़ सकता है। साथ ही जिस उद्देश्य से कमर्शियल अदालतों की स्थापना की गई थी, वह विफल हो सकता है।   

भाग क : अध्यादेश की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

कमर्शियल कॉन्ट्रैक्टस को लागू करने के लिए न्यायिक प्रणाली के हस्तक्षेप की जरूरत होती है। हालांकि भारत में कमर्शियल विवादों को हल करने में लगभग चार साल (1,420 दिन) लग जाते हैं।[1]  इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे लंबित मामलों का बहुत अधिक संख्या में मौजूद होना और मुकदमेबाजी की जटिल प्रक्रियाएं।1  2013 में विभिन्न उच्च न्यायालयों में 32,656 दीवानी मामले लंबित थे जिनमें 52% कमर्शियल विवाद थे।[2] 

पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय लॉ कमीशन और कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी जैसी विभिन्न एक्सपर्ट बॉडीज़ ने यह कहा कि कमर्शियल विवादों का फास्ट ट्रैक निपटारा किया जाना चाहिए।2,[3],[4]  उन्होंने कहा कि अधिकतर कमर्शियल विवादों का असर देश में वित्तीय निवेश और आर्थिक गतिविधियों पर पड़ता है, खास तौर से अधिक मूल्य वाले कमर्शियल विवादों का। इसके अतिरिक्त लॉ कमीशन ने अपनी 253 वीं रिपोर्ट में कहा था कि इन कमर्शियल विवादों के जल्द निपटारे के लिए स्वतंत्र मैकेनिज्म और स्पेशलाइज्ड एक्सपर्टीज़ की जरूरत है।2 

इसके बाद कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन और कमर्शियल अपीलीय डिविजन एक्ट, 2015 बनाया गया। इसके अंतर्गत जिला स्तर पर कमर्शियल अदालतों और उच्च न्यायालयों में कमर्शियल डिविजन्स और कमर्शियल अपीलीय डिविजन्स की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य अधिक मूल्य वाले कमर्शियल विवादों (एक करोड़ रुपए से अधिक मूल्य के) का फास्ट ट्रैक निपटारा करना था।[5] 

दिसंबर 2017 में राज्य सरकारों ने देश के विभिन्न जिलों में कुल 247 कमर्शियल अदालतों की स्थापना की।[6]  देश में ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार के लिए मई 2018 में कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन और कमर्शियल अपीलीय डिविजन (संशोधन) अध्यादेश, 2018 (कमर्शियल अदालतें अध्यादेश, 2018) जारी किया गया ताकि कमर्शियल अदालतों और उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन्स के आर्थिक क्षेत्राधिकार को एक करोड़ रुपए से घटाकर तीन लाख रुपए किया जा सके।

प्रमुख विशेषताएं

तालिका 1 में कमर्शियल अदालतें (संशोधन) अध्यादेश, 2018 की तुलना कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन् और कमर्शियल अपीलीय डिविजन एक्ट, 2015 (2015 का एक्ट) से की गई है।

तालिका 1: 2015 के एक्ट और कमर्शियल अदालतें (संशोधन) अध्यादेश, 2018 की तुलना

 

2015 का मौजूदा एक्ट

कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन और कमर्शियल अपीलीय डिविजन (संशोधन) अध्यादेश, 2018

कमर्शियल विवादों का न्यूनतम मूल्य

·     न्यूनतम एक करोड़ रुपए (इससे अधिक की राशि को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाएगा)।

·     न्यूनतम तीन लाख रुपए (इससे अधिक की राशि को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किया जाएगा)।

उच्च न्यायालयों में कमर्शियल डिविजन

·     सामान्य मूल दीवानी क्षेत्राधिकार वाले 5 उच्च न्यायालयों में कमर्शियल डिविजन्स की स्थापना करता है, ये हैं दिल्ली, बॉम्बे, कलकत्ता, मद्रास और हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय।

·     कोई परिवर्तन नहीं।

जिला स्तर पर कमर्शियल अदालतें

·     राज्य सरकारें जिला स्तर पर कमर्शियल अदालतों को स्थापित कर सकती हैं, उन क्षेत्रों में जहां उच्च न्यायालयों का मूल क्षेत्राधिकार न हो।

·     उन क्षेत्रों मे जिला स्तर पर कमर्शियल अदालतों की स्थापना करता है, जिनमें सभी 24 उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार है।

·     जिन क्षेत्रों में उच्च न्यायालयों का मूल क्षेत्राधिकार है, वहां राज्य सरकारें कमर्शियल अदालतों के आर्थिक क्षेत्राधिकार को निर्दिष्ट कर सकती हैं जो तीन लाख रुपए से कम नहीं होगा और उन क्षेत्रों की जिला अदालतों के आर्थिक क्षेत्राधिकार से अधिक नहीं होगा।

·     राज्य सरकारें उन क्षेत्रों में जिला जज से नीचे के स्तर पर कमर्शियल अदालतों को स्थापित कर सकती हैं, जहां उच्च न्यायालयों का मूल क्षेत्राधिकार न हो।

सभी उच्च न्यायालयों में कमर्शियल अपीलीय डिविजन

·     (i) उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन्स, और (ii) जिला स्तर की कमर्शियल अदालतों के आदेशों के खिलाफ अपील की सुनवाई के लिए सभी 24 उच्च न्यायालयों में कमर्शियल अपीलीय डिविजन की स्थापना करता है।

·     कोई परिवर्तन नहीं।

जिला स्तर पर कमर्शियल अपीलीय अदालतें

·     कोई प्रावधान नहीं।

·     जिन क्षेत्रों में उच्च न्यायालयों का मूल क्षेत्राधिकार नहीं है, उनमें राज्य सरकारें जिला स्तर पर कमर्शियल अपीलीय अदालतों की स्थापना कर सकती हैं।

·     ये अदालतें जिला जज के स्तर से नीचे की कमर्शियल अदालतों के आदेशों के खिलाफ अपील की सुनवाई करेंगी ।

कमर्शियल अदालतों में जजों की नियुक्ति

·     राज्य सरकारें उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस की सहमति से कमर्शियल अदालतों में जजों की नियुक्ति करेंगी, जोकि राज्य की हायर ज्यूडीशियल सर्विस से चुने जाएंगे।

·     राज्य सरकारें उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस की सहमति से जिला जज या जिला जज के नीचे के स्तर की कमर्शियल अदालतों के जजों की नियुक्ति कर सकती हैं।

अदालती कार्यवाही से पहले सुलह

·     कोई प्रावधान नहीं।

·     जिन मामलों में सभी पक्षों द्वारा तत्काल राहत की मांग नहीं की जाती, उनमें मुकदमा दायर करने से पहले सुलह का एक अनिवार्य प्रावधान प्रस्तावित करता है।

·     इसे तीन महीने में पूरा करना होगा (जिसे दो महीने तक बढ़ाया जा सकता है)।

प्रति दावा (काउंटर क्लेम)

·     अगर दीवानी अदालत में न्यूनतम एक करोड़ रुपए के कमर्शियल विवाद में प्रतिदावा दायर किया गया है तो दीवानी अदालत इस मुकदमे को कमर्शियल अदालत या उच्च न्यायालय की कमर्शियल डिविजन में ट्रांसफर कर सकती है।

·     प्रावधान हटाया गया।

Note:  Original ordinary civil jurisdiction refers to when a court has the power to hear a fresh caseIn India, five High Courts (i.e., High Courts of Delhi, Bombay, Calcutta, Madras and Himachal Pradesh) have ordinary original civil jurisdiction.  The 19 remaining High Courts only have appellate jurisdiction, i.e., they can hear appeals from the others of subordinate courts.

Sources: The Commercial Courts, Commercial Division and Commercial Appellate Division of High Courts Act, 2015, The Commercial Courts, Commercial Division and Commercial Appellate Division of High Courts (Amendment) Ordinance, 2018; PRS.

भाग ख: प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

कमर्शियल अदालतों के आर्थिक क्षेत्राधिकार में कटौती

2015 का एक्ट न्यूनतम एक करोड़ रुपए के मूल्य वाले कमर्शियल विवादों में फैसला सुनाने के लिए जिला स्तर पर कमर्शियल अदालतों और उच्च न्यायालयों में कमर्शियल डिविजन्स की स्थापना करता है। अध्यादेश इस सीमा को तीन लाख रुपए करता है। इससे यह प्रश्न उठता है कि क्या कमर्शियल अदालतों के आर्थिक क्षेत्राधिकार को कम करना उचित है।

तालिका 2: कमर्शियल विवादों के न्यूनतम मूल्य पर एक्सपर्ट बॉडीज का सुझाव

व्रर्ष

एक्सपर्ट बॉडी

न्यूनतम मूल्य (रुपए में)

2003

17वां लॉ कमीशन

एक करोड़ (या पांच करोड़)

2009

कमर्शियल उच्च न्यायालय बिल, 2009

पांच करोड़

2010

कमर्शियल उच्च न्यायालय बिल, 2009 पर सिलेक्ट कमिटी

एक करोड़

2015

20वां लॉ कमीशन

एक करोड़

2015

कमर्शियल अदालतें, उच्च न्यायालयों की कमर्शियल डिविजन और कमर्शियल अपीलीय डिविजन बिल, 2015 

एक करोड़

2015

कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी

दो करोड़

पिछले कुछ वर्षों के दौरान लॉ कमीशन और पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमिटीज़ ने कहा कि इतनी बड़ी संख्या में लंबित मामलों के कारण ज्यूडीशियल सिस्टम समय पर मुकदमों का निपटारा नहीं कर पाता।2,3,4 2003 और 2015 में लॉ कमीशन ने अधिक मूल्य वाले कमर्शियल विवादों को हल करने के लिए कमर्शियल अदालतों की स्थापना का सुझाव दिया था और कहा था कि इसके लिए एक कानून बनाया जाए। कमीशन का कहना था कि अधिक मूल्य वाले कमर्शियल विवादों पर फैसला देने के लिए स्पेशलाइज्ड एक्सपर्टीज की जरूरत है और उसका विदेशी निवेश और देश की आर्थिक वृद्धि पर बहुत असर होता है।[7]  जैसा कि तालिका 2 में स्पष्ट है, यह सुझाव दिया गया कि कमर्शियल अदालतों में जिन मामलों की सुनवाई की जाए, उनका न्यूनतम मूल्य एक करोड़ रुपए से अधिक होना चाहिए।

 

न्यूनतम मूल्य को तीन लाख रुपए करने से कमर्शियल अदालतों में दायर होने वाले मामलों की संख्या बढ़ जाएगी और इस प्रकार अपेक्षाकृत अधिक मूल्य वाले मामलों को कम वरीयता दी जाएगी। उल्लेखनीय है कि 2015 के एक्ट की जांच करते समय विधि और न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने सुझाव दिया था कि कमर्शियल विवादों के न्यूनतम मूल्य को एक करोड़ रुपए से बढ़ाकर दो करोड़ रुपए कर दिया जाए।4  यह कहा गया था कि मूल्य कम करने से बहुत से मामले ट्रांसफर किए जा सकते हैं जिससे कमर्शियल अदालतों पर अत्यधिक बोझ पड़ सकता है। इस प्रकार जिस उद्देश्य से उनकी स्थापना की गई थी, वह विफल हो सकता है।

मामलों के लंबित होने के अन्य कारण

लॉ कमीशन, संविधान समीक्षा आयोग और विधि एवं न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने लंबित मामलों के निपटारे के लिए कुछ सुधारों का सुझाव दिया था। यह कहा जा सकता है कि जब तक इन समस्याओं को हल नहीं किया जाता, तब तक कमर्शियल अदालतें, कमर्शियल विवादों के शीघ्र निपटान में प्रभावी साबित नहीं हो सकतीं।

  • रिक्त पद (वेकेंसी) और जजों की संख्या: भारत में विभिन्न अदालतों में जजों के रिक्त पदों के कारण मामलों के निपटान पर असर पड़ता है। मार्च 2017 तक उच्च न्यायालयों में जजों के 41% और निचली अदालतों में 23% पद खाली थे।[8] विधि और न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2015) ने कहा था कि जब तक रिक्त पद भरे नहीं जाते और जजों की संख्या बढ़ाई नहीं जाती, तब तक कमर्शियल अदालतें स्पेशलाइज्ड अदालतों के तौर पर काम नहीं कर सकतीं।4  साथ ही कमर्शियल विवादों में स्पेशलाइज्ड एक्सपर्टीज़ वाले जजों के बिना मामलों का जल्द निपटान नहीं किया जा सकता।4  जजों की संख्या बढ़ाने के बारे में में कई सुझाव दिए गए, ताकि देरी और बकाये मामलों की समस्या हल की जा सके।7,[9],[10],[11]   इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
     
  • लंबित मामलों के आधार पर जजों की संख्या तय करना: उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या के आधार पर जजों की संख्या तय की जानी चाहिए। साथ ही, एडीशनल जजों को स्थायी पदों पर नियुक्त करने के लिए उनके द्वारा मामलों के निपटारे की दर पर विचार किया जाना चाहिए। 
     
  • जजों की संख्या दोगुना करना: निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में जजों की मौजूदा संख्या को बढ़ाया जा सकता है।
     
  • एक साल के लिए रिटायर्ड जजों की नियुक्ति: बकाये मामलों के निपटान के लिए एक वर्ष की अवधि के लिए रिटायर्ड जजों और मशहूर वकीलों को एड हॉक जजों के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है।
     
  • मुकदमेबाजी की जटिल प्रक्रिया: लॉ कमीशन (2015) ने सुझाव दिया था कि सिर्फ कमर्शियल अदालतों की स्थापना करने से विवादों पर जल्द फैसले नहीं लिए जा सकते।2कमीशन ने इंग्लैंड और सिंगापुर की कमर्शियल अदालतों का अध्ययन किया और सुझाव दिया कि भारत में कानूनी प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है। जैसे विभिन्न पक्षों द्वारा बार-बार स्थगन की मांग करने से न्यायिक विलंब और अदालतों में मामले लंबित होते हैं।2  विधि और न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने 2015 के एक्ट पर विचार करते समय सुझाव दिया था कि अगर विभिन्न पक्ष एक सीमा से अधिक बार स्थगन की मांग करते हैं तो उसकी एवज में उनसे कीमत वसूली जाए और हर बार स्थगन की मांग करने पर उस कीमत को उत्तरोत्तर बढ़ाया जाए।4 लॉ कमीशन (2015) ने कहा था कि हर सुनवाई पर फीस मिलने की मौजूदा परंपरा से वकील मामलों को लंबित करते रहते हैं। कमीशन ने सुझाव दिया था कि अदालती फीस को इससे जोड़ा जाना चाहिए कि वादी को अपना मामला पेश करने में कितना समय लगा है।

परिशिष्ट

रेखाचित्र 1: अध्यादेश में प्रस्तावित कमर्शियल अदालतों की हेरारकी

 

[1]. “Ease of Doing Business”, 122nd Report of the Department Related Standing Committee on Commerce, December 21, 2015, http://164.100.47.5/newcommittee/reports/EnglishCommittees/Committee%20on%20Commerce/122.pdf.

[2]. “Commercial Division and Commercial Appellate Division of High Courts and Commercial Courts Bill, 2015”, Law Commission,  Report No. 253, January 2015, http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/Report_No.253_Commercial_Division_and_Commercial_Appellate_Division_of_High_Courts_and__Commercial_Courts_Bill._2015.pdf.

[3]. “Proposals for Constitution Of Hi-Tech Fast – Track Commercial Divisions In High Courts”, Law Commission, Report No. 188, December 2003, http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/188th%20report.pdf.

[4]. Report No.78, Standing Committee on Personnel, Public Grievances, Law and Justice: ‘The Commercial Courts, Commercial Division and Commercial Appellate Division of High Courts Bill, 2015, Rajya Sabha, December 2015, http://www.prsindia.org/uploads/media/Commercial%20courts/SCR-%20Commercial%20Courts%20bill.pdf.

[5]. The Commercial Courts, Commercial Division and Commercial Appellate Division of High Courts Act, 2015, https://indiacode.nic.in/bitstream/123456789/2156/1/201604.pdf.

[6]. Rajya Sabha Starred Question No.14, Ministry of Law and Justice, December 15, 2017.

[7]. “Arrears and Backlog: Creating Additional Judicial (wo)man power, Law Commission of India, Report No. 245, July 7, 2014, http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/Report245.pdf.

[8]. Court News, Supreme Court of India, Volume 12, No.1, January to March 2017.

[9]. Vision Statement presented by the Law Minister to the Chief Justice of India at the National Consultation for Strengthening the Judiciary towards Reducing Pendency and Delays, October 2009.

[10]. Advisory Council of the National Mission for Justice Delivery and Legal Reforms, chaired by the Union Law Minister, on May 15, 2012; Conference of Chief Justices and Chief Ministers, 2012.

[11]. National Commission to Review the Working of the Constitution, Volume. 1, Chapter 7, http://lawmin.nic.in/ncrwc/finalreport/v1ch7.htm.

 

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