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श्रम कानून सुधारों पर एक नजर

2019 में सरकार ने वेतन, सामाजिक सुरक्षा, व्यवसायगत सुरक्षा तथा औद्योगिक संबंधों पर चार श्रम संहिताएं पेश कीं।

वेतन संहिता को पारित कर दिया गया। श्रम संबंधी स्टैंडिंग कमिटी ने दूसरे बिल्स पर अपनी रिपोर्ट पेश की।

सितंबर 2020 में सरकार इन बिल्स के स्थान पर नए बिल्स लेकर आई।

  • केंद्र सरकार ने मौजूदा 29 श्रम कानूनों के स्थान पर चार संहिताएं लाने का प्रस्ताव रखा है। इसका उद्देश्य श्रम के रेगुलेशन को सरल और आधुनिक बनाना है।

  • श्रम सुधारों का उद्देश्य रोजगार को बढ़ावा देना, साथ ही श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना है। इस संबंध में जिन मुद्दों पर चर्चा की जाती है, उनमें छोटी फर्म्स को रेगुलेशन के दायरे में लाना, छंटनी की पूर्व अनुमति हेतु सीमा निर्धारित करना, श्रम प्रवर्तन की मजबूती, श्रम के फ्लेक्सिबल प्रकारों को मंजूरी देना और सामूहिक सौदेबाजी (कलेक्टिव बार्गेनिंग) को बढ़ावा देना शामिल है।

  • इसके अतिरिक्त बदलते समय के साथ श्रम कानूनों को पुनर्व्यवस्थित करने की जरूरत है ताकि उनका सरलीकरण और आधुनिकीकरण सुनिश्चित हो, साथ ही नए प्रकार के श्रम (जैसे गिग वर्क) के हिसाब से कानूनी प्रावधान बनाए जा सकें। इस नोट में इन चुनौतियों और चार संहिताओं के प्रस्तावों पर चर्चा की गई है। 

  • कवरेज: अधिकतर श्रम कानून एक निश्चित आकार (आम तौर पर 10 या उससे अधिक कर्मचारी) वाले इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होते हैं। आकार आधारित सीमा से फर्म्स पर अनुपालन का दबाव कम होता है। हालांकि कोई यह कह सकता है कि वेतन, सामाजिक सुरक्षा और कार्य स्थितियों से संबंधित बुनियादी सुरक्षा सभी इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होनी चाहिए। कुछ संहिताएं ऐसी आकार आधारित सीमाएं बरकरार रखती हैं।

  • छंटनी: 100 या उससे अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स को बंदी, कामबंदी या छंटनी के लिए सरकार की अनुमति की जरूरत होगी। यह कहा जा सकता है कि इससे फर्म्स के लिए किसी विपरीत स्थिति से निपटने का रास्ता बंद होता है और वे उत्पादन की मांग के मद्देनजर श्रमबल को समायोजित नहीं कर पाएंगी। औद्योगिक संबंध संहिता इस सीमा को 300 श्रमिक करती है और सरकार को इस बात की अनुमति देती है कि वह अधिसूचना के जरिए इस सीमा को बढ़ा सकती है।

  • श्रम प्रवर्तन: अनेक श्रम कानूनों के कारण उनका भिन्न-भिन्न अनुपालन था। इससे फर्म्स पर अनुपालन का दबाव अधिक था। दूसरी तरफ श्रम प्रवर्तन प्रणाली अप्रभावी थी, क्योंकि प्रवर्तन कम होता था, अपर्याप्त सजा थी और इंस्पेक्टर अपने फायदे के लिए काम करते थे। संहिता में इनमें से कुछ पहलुओं को संबोधित किया गया है।

  • कॉन्ट्रैक्ट श्रम: श्रम अनुपालन और आर्थिक समस्याओं के कारण कॉन्ट्रैक्ट श्रम का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाता है। फिर भी कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को बुनियादी संरक्षण जैसे निर्धारित वेतन नहीं मिलता है। संहिता में इस मुद्दे को पूरी तरह संबोधित नहीं किया गया है। हालांकि औद्योगिक संबंध संहिता में अल्पावधि के श्रम के एक नए रूप- निश्चित अवधि के रोजगार को पेश किया गया है।

  • ट्रेड यूनियन्स: रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन्स अनेक हैं लेकिन नियोक्ताओं से औपचारिक रूप से बातचीत करने वाली यूनियन्स को ‘मान्यता’ देने का कोई मानदंड नहीं है। औद्योगिक संबंध संहिता में यूनियन्स को मान्यता देने के प्रावधान हैं। 

  • सरलीकरण और आधुनिकीकरण: संहिता श्रम कानूनों को काफी हद तक सरल बनाती है लेकिन कुछ मामलों में असफल है। इसके अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा संहिता ‘गिग’ और ‘प्लेटफॉर्म’ वर्कर्स के लिए योजनाओं को अधिसूचित करने के प्रावधान करती है लेकिन इन परिभाषाओं में स्पष्टता की कमी है।

  • डेलिगेटेड लेजिसलेशन: संहिता कई मुख्य पहलुओं पर नियम नहीं बनाती, जैसे सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की एप्लिकेबिलिटी, और स्वास्थ्य एवं सुरक्षा मानदंड। सवाल यह है कि क्या इन मुद्दों को विधायिका को निर्धारित करना चाहिए या इस काम को सरकार को सौंपा जाना चाहिए। 

संबंधित लेजिसलेटिव ब्रीफ्स:

सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2019

औद्योगिक संबंध संहिता, 2019

व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियां संहिता, 2019

वेतन संहिता, 2017

विचारणीय मुद्दे: 2020 की तीन संहिताएं

रोशनी सिन्हा

roshni@prsindia.org

21 सितंबर, 2020

संदर्भ

श्रम संविधान की समवर्ती सूची में आने वाला विषय है। इसलिए संसद और राज्य विधानसभाएं, दोनों श्रम को रेगुलेट करने के लिए कानून बना सकती हैं। मौजूदा वक्त में श्रम के विभिन्न पहलुओं, जैसे औद्योगिक विवादों का निपटारा, कार्य स्थितियां और सामाजिक सुरक्षा एवं वेतन को रेगुलेट करने वाले 100 राज्य स्तरीय और 40 केंद्रीय कानून हैं।[1] श्रम संबंधी दूसरे राष्ट्रीय आयोग (2002) ने मौजूदा श्रम कानूनों को जटिल बताया था, जिसमें अप्रचलित प्रावधान और असंगत परिभाषाएं हैं।[2]  श्रम कानूनों के अनुपालन को आसान बनाने और एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए एनसीएल ने केंद्रीय श्रम कानूनों को व्यापक समूहों में एकीकृत करने का सुझाव दिया, जैसे (i) औद्योगिक संबंध, (ii) वेतन, (iii) सामाजिक संरक्षण, (iv) सुरक्षा और (v) कल्याण और कार्य स्थितियां। 

2019 में श्रम और रोजगार मंत्रालय ने 29 केंद्रीय कानूनों को एकीकृत करके श्रम संहिताओं पर चार बिल पेश किए। ये संहिताएं निम्नलिखित को रेगुलेट करती हैं (i) वेतन, (ii) व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियां (iii) सामाजिक सुरक्षा, और (iv) औद्योगिक संबंध। वेतन संहिता यानी कोड ऑन वेजेज़, 2019 को संसद ने पारित कर दिया, जबकि अन्य तीन क्षेत्रों पर केंद्रित बिल्स को श्रम संबंधी स्टैंडिंग कमिटी को भेज दिया गया। स्टैंडिंग कमिटी ने सभी तीन बिल्स पर अपनी रिपोर्ट सौंपी।[3] सरकार ने सितंबर, 2020 में इन तीन बिल्स के स्थान पर नए बिल्स पेश किए। इस नोट में श्रम कानून से संबंधित मुख्य मुद्दों और चार नई संहिताओं के प्रावधानों को स्पष्ट किया गया है। इस नोट को चार संहिताओं पर हमारे लेजिसलेटिव ब्रीफ्स और तीन नए बिल्स पर नोट के साथ पढ़ा जाना चाहिए।

श्रम सुधारों से संबंधित मुख्य मुद्दे

श्रम कानूनों का सरलीकरण

श्रम पर दूसरे राष्ट्रीय आयोग (एनसीएल) ने केंद्रीय कानूनों के एकीकरण का सुझाव दिया था। उसने कहा था कि केंद्र और राज्य स्तर पर अनेक श्रम कानून मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त श्रम कानूनों को टुकड़े-टुकड़े करके जोड़ा गया है जिसके कारण ये कानून तदर्थ किस्म के, जटिल, परस्पर असंगत और भिन्न-भिन्न परिभाषाओं वाले हैं, साथ ही उसमें पुरानी धाराएं हैं।2  उदाहरण के लिए वेतन, औद्योगिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंधों और सामाजिक सुरक्षा पर अनेक कानून हैं। इनमें से कई कानून श्रमिकों की विभिन्न श्रेणियों को रेगुलेट करते हैं, जैसे कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक और प्रवासी श्रमिक, और कई विशिष्ट उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारियों जैसे सिने वर्कर्स, निर्माण श्रमिक, सेल्स प्रमोशन कर्मचारियों, और पत्रकारों पर केंद्रित हैं। इसके अतिरिक्त अनेक कानूनों में एक समान शब्दों की परिभाषाओं में अंतर है जैसे ‘संबंधित सरकार’, ‘श्रमिक’, ‘कर्मचारी’, ‘इस्टैबलिशमेंट’, और ‘वेतन’, जिसके कारण उनकी व्याख्या भी अलग-अलग है। इसके अतिरिक्त कुछ कानूनों में अप्रचलित प्रावधान और विस्तृत निर्देश हैं (जैसे कारखाना एक्ट, 1948 में थूकदान को रखने और निरंतर दीवारों की पुताई करने से संबंधित प्रावधान भी हैं)।

आयोग ने श्रम कानूनों को आसान बनाने और उनके एकीकरण पर जोर दिया था ताकि पारदर्शिता बरकरार रहे और परिभाषाओं एवं पद्धतियों में एकरूपता बनी रहे। चूंकि विभिन्न श्रम कानून कर्मचारियों की विभिन्न श्रेणियों पर और विभिन्न सीमाओं के साथ लागू होते हैं, उनके एकीकरण से श्रमिकों को अधिक कवरेज मिलेगा। एनसीएल के सुझावों के बाद संसद में वेतन, औद्योगिक संबंधों, सामाजिक सुरक्षा तथा व्यवसायगत सुरक्षा पर चार संहितों को पेश किया गया।

संहिताएं श्रम कानूनों को काफी हद तक सरल बनाती है लेकिन कुछ मामलों में असफल हैं। उदाहरण के लिए व्यवसायगत सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा संबंधी संहिताएं उन सभी कानूनों के विशिष्ट प्रावधानों को बहाल रखती हैं जिन्हें इन संहिताओं में समाहित किया गया है। जैसे व्यवसायगत सुरक्षा संहिता में सभी कर्मचारियों के अवकाश से संबंधित प्रावधान हैं, लेकिन उसमें सेल्स प्रमोशन कर्मचारियों के लिए अतिरिक्त अवकाश की पात्रता बरकरार है (यानी मेडिकल अवकाश सेवा की अवधि का एक बटा अठारहवां हिस्सा)। इसी प्रकार भले ही संहिताओं में विभिन्न शब्दों की परिभाषाओं को काफी हद तक तार्किक बनाया गया है लेकिन कई मायनों में उनमें एकरूपता नहीं है। उदाहरण के लिए वेतन, व्यवसायगत सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा से संबंधित संहिताओं में ‘कॉन्ट्रैक्टर’ की एक समान परिभाषा है लेकिन औद्योगिक संबंध संहिता में इस शब्द को स्पष्ट नहीं किया गया है। अंत में सरकार भले ही यह कह रही हो कि 40 केंद्रीय कानूनों को समाहित किया जाएगा, चारों संहिताएं सिर्फ 29 कानूनों का स्थान लेती हैं। इस नोट के अनुलग्नक में उन कानूनों की सूची दी गई है जिन्हें इन संहिताओं में समाहित किया गया है।

रोजगार सृजन के साथ-साथ श्रम को संरक्षण देना

छठी आर्थिक जनगणना (2013-14) में कहा गया था कि भारत में 5.9 करोड़ इस्टैबलिशमेंट्स में 13.1 करोड़ लोग काम करते हैं (जिनमें से 72% स्वरोजगार प्राप्त हैं और 28% ने कम से कम से एक श्रमिक को नौकरी पर रखा है)।[4] 79% ऐसे इस्टैबलिशमेंट्स में काम करते हैं जहां 10 से कम कर्मचारी हें। श्रम को रेगुलेट करने की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि श्रमिकों को उनके अधिकार तो मिलें ही, साथ ही ऐसा परिवेश तैयार हो जहां कंपनियों का उत्पादन बढ़े और विकास संभव हो। साथ ही रोजगार का सृजन भी हो। कंपनियों को बदलते कारोबारी परिवेश को अपनाना आसान हो और वे उनके अनुसार अपने उत्पादन (और रोजगार) को बदल सकें। इसी तरह श्रमिकों को निश्चित न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के मानदंडों और सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार को सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था प्राप्त हो। इसके लिए ऐसे श्रम प्रशासन की जरूरत होगी जो विवादों को उचित तरीके से सुलझाए और अधिकारों के प्रवर्तन को सुनिश्चित करे।

यह कहा जा सकता है कि भारत में कंपनियों का आकार छोटा रहा है जिसके निम्नलिखित कारण हैं: (i) अगर व्यवसाय को संचालित करना व्यावहारिक नहीं है तो भी छंटनी/बंदी के लिए पूर्व अनुमति लेने के भय से श्रम बाजार में उत्पन्न होने वाली कठोरता (लेबर रिजिडिटी) (किसी विपरीत स्थिति से बाहर निकलने का विकल्प न होना), और (ii) अधिक प्रशासनिक दबाव क्योंकि कई प्रकार के श्रम कानूनों के कारण निरीक्षण, रिटर्न और रजिस्ट्रेशन भी अनेक प्रकार के होते हैं।[5] इससे कंपनियों के विकास में रुकावट आती है।5 रजिस्टर्ड कारखानों के वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (2017-18) में कहा गया है कि 47% कारखाने 20 से कम श्रमिकों को काम पर रखते हैं लेकिन 5% रोजगार प्रदान करते हैं और 4% उत्पादन करते हैं।[6]  साथ ही अधिक प्रशासनिक दबाव से भ्रष्टाचार बढ़ता है और सरकारी तंत्र में मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति बढ़ती है।5 

तालिका 1: श्रमिक के आकार के अनुसार रजिस्टर्ड कारखानों की विशेषताएं (एएसआई 2017-18)

विशेषताएं

0-19

20-99

100-499

500-4999

न्यूनतम 5000

कुल कारखानों का %

47.1%

33.8%

14.3%

4.4%

0.3%

अचल पूंजी का उपयोग

3.5%

8.2%

19.6%

44.7%

24.1%

संलग्न लोग

5.0%

18.4%

32.1%

35.9%

8.6%

उत्पादन

4.1%

15.3%

25.8%

40.1%

14.6%

शुद्ध मूल्य संवर्धन

2.2%

11.7%

25.0%

47.5%

13.6%

स्रोत: वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (2017-18); पीआरएस।

उत्पादन की मांग के अनुसार लोगों को काम पर रखने और हटाने के कठोर नियमों के चलते व्यापार में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को काम पर अधिक रखा जाने लगा।5  कारखानों में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले श्रमिकों का हिस्सा 2004-05 में 26% से बढ़कर 2017-18 में 36% हो गय़ा। इसी दौरान प्रत्यक्ष तौर पर काम पर रखे गए कर्मचारियों का हिस्सा 74% से गिरकर 64% हो गया।[7],[8] 

हालांकि यह पाया गया है कि कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के वेतन और सामाजिक सुरक्षा के देय अधिकारों का उस सीमा तक प्रवर्तन नहीं किया जाता, जिस सीमा तक स्थायी कर्मचारियों के अधिकारों का संरक्षण होता है और उन्हें संकटपूर्ण कार्य स्थितियों का सामना करना पड़ता है।2  इसके अतिरिक्त विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में श्रम प्रवर्तन कमजोर है और श्रमिकों को पर्याप्त संरक्षण नहीं मिलता, सामूहिक सौदेबाजी की सफलता भी निम्न है क्योंकि बार्गेनिंग एजेंट्स को मान्यता नहीं मिलती, और श्रम कानूनों का कवरेज पर्याप्त नहीं है।5,[9]  आवर्ती श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट (2018-19) में कहा गया था कि गैर कृषि क्षेत्र के 70% वेतनभोगी कर्मचारियों के पास लिखित कॉन्ट्रैक्ट नहीं होता, 54% वैतनिक अवकाश के पात्र नहीं होते और 52% को कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलता।[10]   

अध्ययनों से प्रदर्शित होता है कि मजबूत वृद्धि और रोजगार सृजन भी कई दूसरे पहलुओं पर निर्भर होते हैं जिनमें इंफ्रास्ट्रक्चर विकास, वित्त तक पहुंच, कुशल श्रमशक्ति की उपलब्धता, दक्षता बढ़ाने को प्रोत्साहन और भ्रष्टाचार में कमी शामिल हैं।[11],[12]  हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि मौजूदा कानूनों से न तो उद्योगों को फायदा हुआ है (चूंकि उनकी वृद्धि में बाधा आई है) और न ही श्रमिकों को (औपचारीकरण की कमी और कमजोर प्रवर्तन के कारण)। एक्सपर्ट कमिटियों ने इस समस्या को हल करने के लिए कई सुझाव दिए हैं। हम इन सुझावों के विभिन्न पहलुओं और चार नई श्रम संहिताओं के प्रावधानों पर चर्चा कर रहे हैं। 

श्रम कानूनों के अंतर्गत इस्टैबलिशमेंट्स का कवरेज

संदर्भ: अधिकतर श्रम कानून एक निश्चित आकार वाले इस्टैबलिशमेंट्स (आम तौर पर 10 या उससे अधिक श्रमिकों वाले) पर लागू होते हैं। ऐसे में निम्न संख्यात्मक सीमा के कारण इस्टैबलिशमेंट्स कोशिश करते हैं कि कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई ही न जाए ताकि वे श्रम रेगुलेशन के दायरे से बाहर ही रहें। इसके अतिरिक्त ये कानून सिर्फ संगठित क्षेत्र पर लागू होते हैं (श्रमशक्ति का लगभग 7%)9

प्रस्तावित सुधार: यह तर्क दिया जा सकता है कि छोटी कंपनियों को विभिन्न श्रम कानूनों से इसलिए छूट दी जाती है ताकि छोटे उद्योगों पर अनुपालन का दबाव कम हो और उनकी आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा मिले।[13],[14]  इससे निम्न संख्यात्मक सीमा वाले इस्टैबलिशमेंट्स अपने आकार को छोटा बनाए रखते हैं, ताकि उन्हें श्रम कानूनों का पालन न करना पड़े।13,14  छोटे इस्टैबलिशमेंट्स की वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए कुछ राज्यों ने अपने श्रम कानूनों में संशोधन किए हैं और उनके अनुपालन की सीमा बढ़ाई है। उदाहरण के लिए राजस्थान ने कारखाना एक्ट, 1948 की एप्लिकेबिलिटी की सीमा को 10 श्रमिकों से बढ़ाकर 20 श्रमिक कर दिया है (अगर बिजली का इस्तेमाल होता है) और 20 श्रमिकों से बढ़ाकार 40 श्रमिक कर दिया है (अगर बिजली का इस्तेमाल नहीं होता)। आर्थिक सर्वेक्षण (2018-19) में कहा गया था कि राजस्थान में कुछ श्रम कानूनों की सीमा बढ़ाने से राज्य के कुल उत्पादन और प्रति कारखाना कुल उत्पादन में वृद्धि देखी गई है।9

दूसरी तरफ कुछ लोगों का तर्क यह है कि वेतन, सामाजिक संरक्षण, कार्यस्थल पर सुरक्षा और काम की अच्छी स्थितियों से जुड़े बुनियादी प्रावधानों को सभी इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होना चाहिए, भले ही उनका आकार कोई भी हो।2,13  इस संबंध में एनसीएल ने सुझाव दिया था कि छोटे स्तर की इकाइयों (20 कर्मचारियों से कम) के लिए अलग कानून होना चाहिए और इनमें कुछ नियमों जैसे वेतन भुगतान, कल्याणकारी सुविधाओं, सामाजिक संरक्षण, छंटनी और तालाबंदी, विवाद निवारण से संबंधित प्रावधान भी उतने कड़े नहीं होने चाहिए। इसके अतिरिक्त असंगठित क्षेत्र के इस्टैबलिशमेंट्स (जोकि श्रम कानूनों के दायरे से बाहर आते हैं) के लिए नेशनल कमीशन फॉर इंटरप्राइजेज़ इन द अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर (एनसीईयूएस) ने कृषि एवं गैर कृषि श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा और काम की न्यूनतम शर्तों पर सुझाव दिए थे और दोनों क्षेत्रों के लिए अलग-अलग बिल्स का सुझाव दिया था।[15] उल्लेखनीय है कि आर्थिक सर्वेक्षण (2018-19) में अनुमान लगाया गया था कि लगभग 93% श्रमबल अनौपचारिक है।9 

आईएलओ (2005) ने कहा था कि उसके केवल 10% सदस्य देशों ने छोटे उद्यमों को श्रम रेगुलेशंस से पूरी तरह छूट दी है।[16]  अधिकतर देशों ने मिश्रित तरीके के नियमों को लागू किया है। जैसे यूएस, यूके, दक्षिण अफ्रीका और फिलीपींस के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा कानून सभी श्रमिकों को सार्वभौमिक कवरेज प्रदान करते हैं (यूएस और यूके में सिर्फ घरेलू कामगारों को यह प्राप्त नहीं है)।[17] हालांकि इन कानूनों की कुछ बाध्यताएं सिर्फ एक सीमा से अधिक कर्मचारियों वाले उद्योगों पर लागू हैं। उदाहरण के लिए यूएस में कार्य संबंधी दुर्घटनाओं के लिए अनिवार्य रिकॉर्ड कीपिंग की शर्त 10 कर्मचारियों से कम वाले इस्टैबलिशमेंट्स या ‘कम जोखिमपरक’ उद्योगों पर लागू नहीं होती।

संहिताओं के प्रावधान: वेतन और औद्योगिक संबंधों पर केंद्रित श्रम संहिताएं सभी इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू होती है, और इसमें सीमित अपवाद हैं। सामाजिक सुरक्षा और व्यवसायगत सुरक्षा पर केंद्रित संहिताएं एक निश्चित आकार वाले इस्टैबलिशमेंट्स (आम तौर पर 10 या 20 श्रमिकों से अधिक) पर लागू रहेंगी। हालांकि व्यवसायगत सुरक्षा संहिता में कहा गया है कि संख्या की सीमा वाली एप्लिकेबिलिटी (10 या उससे अधिक) उन इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू नहीं होगी जहां खतरनाक गतिविधियां संचालित होती हैं। इसके अतिरिक्त इसमें असंगठित श्रमिकों के लिए अलग से एक सामाजिक सुरक्षा फंड अधिसूचित किए जाने का प्रावधान है। संहिता कारखाने की सीमा को 10 से 20 (बिजली के साथ) और 20 से 40 (बिजली के बिना) करती है।

सामाजिक सुरक्षा संहिता सरकार को असंगठित श्रमिकों, गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लाभ के लिए योजनाएं बनाने का अधिकार देती है। औद्योगिक संबंध और व्यवसायगत सुरक्षा संहिताएं सरकार को अनुमति देती हैं कि वे नई संहिताओं को जनहित में कुछ प्रावधानों से छूट दे सकती है। हमने सामाजिक सुरक्षा संहिता पर अपने लेजिसलेटिव ब्रीफ में सभी श्रमिकों को सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा कवरेज प्रदान करने पर एनसीएल के विस्तृत सुझावों का सारांश प्रस्तुत किया है।

छंटनी, तालाबंदी और नौकरी से निकालने के लिए श्रमिकों की संख्या की सीमा

संदर्भ: औद्योगिक विवाद एक्ट (आईडीए), 1947 में 100 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले कारखानों, खदानों और बागानों से यह अपेक्षा की गई है कि वे तालाबंदी या कर्मचारियों को नौकरी से हटाने या उनकी छंटनी करने से पहले सरकार की अनुमति लेंगे। यह कहा जा सकता है कि पूर्व अनुमति की शर्त से कंपनियों की निकासी बाधित होती है और उत्पादन की मांग को देखते हुए श्रम शक्ति को समायोजित करने की क्षमता भी अवरुद्ध होती है।

प्रस्तावित सुधार: श्रम संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2009) ने सुझाव दिया था कि व्यावसायिक कार्यकुशलता को संतुलित करने के लिए सरकार कुछ संशोधनों पर विचार कर रही है जिसमें पूर्व नोटिस, पर्याप्त मुआवजा और नौकरी से निकाले गए कर्मचारियों को दूसरे लाभ देना शामिल हैं।[18] एनसीएल ने कहा था कि जो कंपनियां आर्थिक रूप से अक्षम साबित हो रही हैं, उन्हें बंद करने की अनुमति दी जानी चाहिए, पर पहले उनकी तालाबंदी के आधारों और आर्थिक क्षमता की कमी के कारणों की जांच सुनिश्चित होनी चाहिए। इसलिए उसने सुझाव दिया था कि 300 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले इस्टैबलिशमेंट की तालाबंदी के लिए पूर्व अनुमति की शर्त बरकरार रखी जा सकती है और उसे सभी प्रकार के इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू किया जा सकता है। हालांकि छंटनी और कर्मचारियों को नौकरी से निकालने के लिए पूर्व अनुमति की शर्त को हटाया जाना चाहिए। श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए उचित समय पर नोटिस और मुआवजा जैसे प्रावधान होने चाहिए। साथ ही श्रमिकों के प्रतिनिधियों से सलाह ली जानी चाहिए और तालाबंदी के खिलाफ न्यायिक प्रक्रिया का प्रावधान भी होना चाहिए। उसने यह सुझाव भी दिया था कि सरकार को अंशदान आधारित बेरोजगारी बीमा (कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड एक्ट के अंतर्गत आने वाले इस्टैबलिशमेंट्स में) पर विचार करना चाहिए ताकि नौकरी से निकाले गए कर्मचारियों या उन कर्मचारियों की देखभाल की जा सके, जिनके इस्टैबलिशमेंट्स बंद हो गए हैं। यह लाभ एक साल के लिए या दोबार रोजगार मिलने तक, जो भी पहले हो, देय होगा।

तालाबंदी, छंटनी और नौकरी से निकालने पर एनसीएल के सुझावों का सारांश इस तालिका में दिया गया है:

तालिका 2आईडी एक्ट के प्रावधानों और तालाबंदी, छंटनी और नौकरी से निकालने पर एनसीएल के प्रस्तावित सुझावों के बीच तुलना

प्रावधान

आईडी एक्ट, 1947

एनसीएल के सुझाव

पूर्व अनुमति

  • 100 या उससे अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स में छंटनी, तालाबंदी और नौकरी से निकालने के लिए जरूरी
  • छंटनी और नौकरी से निकालने के लिए जरूरी नहीं
  • 300 या उससे अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स में तालाबंदी के लिए जरूरी

बकाया चुकाना, एक पूर्व शर्त

  • नहीं
  • हां

नोटिस की अवधि

  • एक महीना
  • दो महीने

मुआवजा

  • 15 दिन की दर पर (तालाबंदी और नौकरी से निकालने के लिए)
  • छंटनी पर 50% वेतन
  • इस पर आधारित कि उद्यम लाभपरक है या नुकसान में है
  • 100 से अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स में तालाबंदी: 30 दिन (तीन साल से घाटे में चलने वाले बीमार उद्यम जिन्होंने बैंकरप्सी/वाइंडिंग अप के लिए फाइल किया गया हो), और 45 दिन (लाभ कमाने वाले उद्यमों के लिए) 
  • 100 से अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स में नौकरी से निकालने के लिए: 45 दिन (ऐसे बीमार उद्यमों के लिए जोकि कर्मचारियों को नौकरी से निकालकर वायबल होना चाहते हैं) और 60 दिन (लाभ कमाने वाले उद्यमों के लिए)
  • 100 या उससे कम श्रमिकों वाले उद्यमों को 50% चुकाना होगा
  • छंटनी के लए 50% वेतन। अगर छंटनी एक महीने से ज्यादा तक चलती है तो 300 या उससे अधिक श्रमिकों वाले इस्टैबिलशमेंट्स को सरकारी मंजूरी हासिल करनी होगी

स्रोत: औद्योगिक विवाद एक्ट, 1947; एनसीएल की दूसरी रिपोर्ट; पीआरएस।

कुछ राज्यों ने आईडीए, 1947 के सीमा संबंधी प्रावधान में संशोधन किए हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान ने 2014 में एक्ट में संशोधन किया था ताकि 100 श्रमिकों की सीमा को बढ़ाकर 300 श्रमिक किया जा सके। आईएलओ की रिपोर्ट (2020) कहती है कि केवल 22 देशों (भारत, पाकिस्तान और थाइलैंड सहित) में सामूहिक बर्खास्तगियों को सरकारी अथॉरिटीज़ से अधिकृत होना चाहिए।[19]  इनमें से सात देशों में (भारत, श्रीलंका और कोलंबिया सहित) श्रमिक प्रतिनिधियों से सलाह की कोई जरूरत नहीं होती। दूसरी तरफ अधिकतर देशों में श्रमिकों के प्रतिनिधियों और संबंधित अथॉरिटीज़ को अधिसूचित करना जरूरी होता है, लेकिन पूर्व अनुमति की जरूरत नहीं होती।

संहिता के प्रावधान:  औद्योगिक संबंध संहिता इस श्रमिकों की संख्या की सीमा को 300 करती है, और आईडीए, 1947 के अंतर्गत निर्दिष्ट नोटिस और मुआवजे की शर्तों को बरकरार रखती है। इसमें सरकार को अधिसूचना के जरिए संख्या सीमा को बढ़ाने की अनुमति है।

श्रम प्रशासन

संदर्भ: अधिकतर श्रम कानूनों में नियोक्ता इकाइयों के लिए अनुपालन संबंधी अलग-अलग शर्तें होती हैं। श्रम कानूनों की बहुलता के कारण निरीक्षण, रिटर्न और रजिस्ट्रेशन भी कई प्रकार के हैं। एक निजी अध्ययन में कहा गया है कि राज्यों में 423 श्रम कानून, 31,605 अनुपालन और 2,913 फाइलिंग्स हैं।[20] दूसरी तरफ यह कहा गया कि खराब प्रवर्तन, अपर्याप्त जुर्माने और इंस्पेक्टर्स की अपनी जेब भरने की प्रवृत्ति के कारण श्रम प्रवर्तन मशीनरी प्रभावी नहीं है। इसके अतिरिक्त विवाद निवारण प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिए सुधारों की जरूरत है।

प्रस्तावित सुधार: विभिन्न कमिटीज़ ने तीन क्षेत्रों पर काम करने के लिए सुधारों को प्रस्तावित किया: अनुपालन का दबाव, कानूनों का प्रवर्तन और विवादों का निवारण।

अनुपालन का दबाव कम करना: एनसीएल ने सुझाव दिया कि नियोक्ता इकाइयों के रिटर्न के आधार पर चुनींदा निरीक्षण के साथ सेल्फ सर्टिफिकेशन की व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाया जाए (जहां सुरक्षा की जरूरत हो, वहां नियमित निरीक्षण के अपवाद के साथ)।2 हालांकि श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए असंगठित क्षेत्र में नियमित निरीक्षण को बहाल रखा जा सकता है। प्रवर्तन तंत्र को जवाबदेह बनाने के लिए सुपीरियर अधिकारियों को सभी स्तरों पर 10% जांच करनी चाहिए। कुछ राज्यों जैसे गुजरात, पंजाब और हरियाणा ने कुछ कानूनों के लिए सेल्फ सर्टिफिकेशन चालू कर दिया है। एक कमिटी (चेयर: अनवरुल हूडा, योजना आयोग) ने थर्ड पार्टी निरीक्षण की व्यवस्था को समर्थन दिया है जिसमें बाहरी और मान्यता प्राप्त एजेंसियां रेगुलेटरी अनुपालन को सर्टिफाई करेंगी और संयुक्त निरीक्षण और निरीक्षण के वार्षिक कैलेंडर की प्रणाली होगी।[21]  उल्लेखनीय है कि भारत ने आईएलओ कनवेंशन 81 को मंजूरी दी है जोकि लेबर इंस्पेक्टर्स के इस अधिकार पर जोर देता है कि वे श्रम कानूनों के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए पूर्व नोटिस के बिना किसी परिसर में प्रवेश कर सकते हैं। इसके मद्देनजर योजना आयोग के अंतर्गत गठित वर्किंग ग्रुप (2012-17) ने सुझाव दिया था कि मौजूदा प्रणाली को बरकरार रखा जाए और उसमें शिकायत आधारित निरीक्षण और सेल्फ सर्टिफिकेशन का प्रावधान भी जोड़ा जाए।[22]  

1998 के एक्ट में 19 श्रमिकों और 40 श्रमिकों तक के इस्टैबिलशमेंट्स के लिए यह अनिवार्य है कि वे 16 केंद्रीय कानूनों (वेतन, कारखानों और कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को कवर करने वाले कानूनों सहित) के अंतर्गत संयुक्त वार्षिक रिटर्न और यूनिफाइड रजिस्टर सौंपेंगे। एनसीएल ने यह सुझाव दिया कि इसे सभी इस्टैबलिशमेंट्स पर लागू किया जाए ताकि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत रखे जाने/फाइल किए जाने वाले रजिस्टर्स और रिटर्न्स को सरल बनाया जा सके।[23]  इसके अतिरिक्त तकनीकी प्रकार के अपराधों, जैसे रजिस्टर न रखने या रिटर्न फाइल न करने के लिए सजा न दी जाए, बल्कि इन्हें कंपाउंडिंग अपराध बनाया जाए यानी इन्हें निपटाया जाए।

कानून के प्रवर्तन में सुधार: विभिन्न कमिटियों ने सुझाव दिया कि श्रमबल बढ़ाकर और श्रम प्रवर्तन संरचना में सुधार करके प्रवर्तन प्रणाली में मजबूती लाई जाए।22,[24]  एनसीएल ने सुझाव दिया कि प्रवर्तन तंत्र की कार्यक्षमता में सुधार के लिए संरचना, प्रशिक्षण और उपलब्ध सुविधाओं को उन्नत बनाया जाए। इसके अतिरिक्त राज्य श्रम तंत्र के संदर्भ में उसने सुझाव दिया कि केंद्र सरकार निरीक्षकों के अनुपात और श्रम विभागों के इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए नियम निर्धारित करे। विभिन्न कमिटियों ने यह भी कहा कि अपराधों के लिए मौजूदा जुर्माने पर्याप्त नहीं हैं और वे अवरोधक (डेटेरेंट) का काम नहीं करते।2,22  उन्होंने सुझाव दिया कि विभिन्न अपराधों के लिए निर्धारित जुर्माना अपराध की गंभीरता पर आधारित हो सकता है, वह इस बात पर भी आधारित हो सकता है कि अपराध कितनी बार किया गया है और जुर्माना चुकाने की क्षमता कितनी है।

विवादों के शांतिपूर्ण समाधान को मजबूत करना: एनसीएल ने सभी श्रम मामलों (जिसमें वेतन, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण शामिल हैं) में एकीकृत अधिनिर्णय प्रणाली के तौर पर श्रम अदालतों, लोक अदालतों और श्रम संबंध आयोगों (एलआरसीज़) की प्रणाली का सुझाव दिया था। एलआरसीज़ एक अपीलीय निकाय के तौर पर काम करेंगे जोकि श्रम अदालतों के फैसलों के खिलाफ अपील की सुनवाई करेंगे। इनकी अध्यक्षता न्यायाधीशों द्वारा की जाएगी (या जज के रूप में क्वालिफाइड वकीलों द्वारा) और इनमें नियोक्ताओं, कर्मचारियों, अर्थशास्त्रियों के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में होंगे।

केंद्रीय इस्टैबलिशमेंट्स और दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई के इस्टैबलिशमेंट्स में संचालित किए गए प्रदर्शन ऑडिट (2001-2006) में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने कहा था कि विभिन्न कारणों से अधिनिर्णय प्रक्रिया का प्रभाव कम हो जाता है, जैसे: (i) सरकार श्रम विवादों को अधिनिर्णय के लिए भेजने में देरी करती है, (ii) मामलों के निस्तारण में देरी होती है (2001-2006 में चार महानगरों में श्रम अदालतों द्वारा लिए गए 35 से 57% मामले 2007 से लंबित हैं), (iii) गैजेट में अदालती आदेशों के प्रकाशन में देरी होती है, और (iv) फैसलों को लागू करने में देरी होती है।[25]  इस संबंध में कैग और एनसीएल ने सुझाव दिया था कि: (i) सरकार श्रम विवादों को श्रम अदालतों को भेजे, इस पूर्व शर्त को समाप्त किया जाए, (ii) मामलों पर तीन सुनवाई में फैसला किया जाए (रिकॉर्डेड कारणों से इसे बढ़ाया जाए), (iii) सरकारी गैजेट में प्रकाशित होने का इंतजार किए बिना फैसले को लागू किया जाए, और (iv) केंद्रीय और राज्य क्षेत्र में फैसलों को समय पर लागू करने की प्रणाली तैयार की जाए। एनसीएल ने यह भी कहा था कि कई कानून (जैसे ग्रैच्युटी का भुगतान) सिर्फ इंस्पेक्टर को शिकायत दर्ज करने की अनुमति देते हैं। उसने सुझाव दिया कि पीड़ित व्यक्तियों (या उसकी ट्रेड यूनियन) को भी सीधे शिकायत दर्ज करने का अधिकार दिया जाना चाहिए।

संहिता के प्रावधान: संहिता कुछ मामलों में वेब आधारित निरीक्षण (जिसके साथ रैंडम तरीके से निरीक्षण किया जा सकता है) और थर्ड पार्टी सर्टिफिकेशन (कुछ मामलों में अधिसूचित वर्ग के इस्टैबलिशमेंट्स के लिए) तथा कॉमन रजिस्टर और रिटर्न्स के लिए कुछ प्रावधान करती है। हालांकि इसके विवरण डेलिगेटेड लेजिसलेशन पर छोड़े गए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मामलों में, जैसे सामाजिक सुरक्षा संहिता, पहले की तरह विभिन्न अथॉरिटीज़ में भिन्न भिन्न पहलुओं (जैसे प्रॉविडेंट फंड और बीमा) के अनुपालन की जानकारी देना अनिवार्य होगा। संहिताएं कई मामलों में जुर्माने और सजा को भी बढ़ाती है और कुछ मामलों में अपराधों की कंपाउंडिंग की अनुमति देती हैं। विवाद निवारण के संबंध में औद्योगिक संबंध संहिता सरकार द्वारा विवाद को रेफर करने और गैजेट में फैसले को प्रकाशित करने की अनिवार्यता को समाप्त करती है और औद्योगिक अदालतों/ट्रिब्यूनलों के स्थान पर दो सदस्यीय ट्रिब्यूनल (एक न्यायिक और एक प्रशासनिक सदस्य) का प्रावधान करती है।

कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक

संदर्भ: यह कहा जाता है कि श्रम अनुपालनों और आर्थिक क्षतिपूर्तियों के कारण कॉन्ट्रैक्ट श्रम बढ़ा है। कारखानों में कुल श्रमिकों में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों का हिस्सा 2004-05 में 26% से बढ़कर 2017-18 में 36% हो गया, जबकि इस दौरान प्रत्यक्ष रूप से नौकरी पर रखे गए श्रमिकों का हिस्सा 74% से घटकर 64% हो गया।7,8 इस परिवर्तन से श्रमिकों की संवेदनशीलता बढ़ी, चूंकि कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को बुनियादी संरक्षण (जैसे पक्का वेतन) नहीं मिलते और वे उन मामलों में नियमितीकरण के पात्र नहीं होते, जहां सरकार द्वारा कॉन्ट्रैक्ट श्रम प्रतिबंधित है।[26]

प्रस्तावित सुधार: एनसीएल ने कहा था कि संगठनों को आर्थिक कार्यकुशलता के आधार पर अपने श्रमबल को समायोजित करने की फ्लेक्सिबिलिटी मिलनी चाहिए। वर्तमान में कॉन्ट्रैक्ट श्रम (रेगुलेशन और उन्मूलन) एक्ट, 1970 सरकार को अधिकार देता है कि वह कुछ मामलों में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को रोजगार देने से प्रतिबंधित करे, जैसे: (i) काम बारामासी किस्म का है, या (ii) कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक का काम इस्टैबलिशमेंट के कारोबार के लिए जरूरी है, या (iii) इस्टैबलिशमेंट में वैसा ही काम नियमित कर्मचारी करते हैं। 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इस्टैबलिशमेंट में कॉन्ट्रैक्ट श्रम के इस्तेमाल पर प्रतिबंध होने के बावजूद कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को श्रमबल में स्वतः नियमित होने का अधिकार नहीं है।26 इसके बाद नियोक्ता कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को काम पर रखने के लिए और भी आजाद हो गए। अब अधिक फ्लेक्सिबिलिटी देने के लिए एनसीएल ने सुझाव दिया है कि अगर छुटपुट मौसमी मांग हो तो कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को इस्टैबलिशमेंट के मुख्य कार्य में प्रयोग करने की अनुमति दी जाए। इसके अतिरिक्त उसने सुझाव दिया कि इस्टैबलिशमेंट के मुख्य और गैर मुख्य कामों के बीच अंतर किया जाना चाहिए और उस काम के प्रकार को परिभाषित किया जाना चाहिए जिनमें कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को काम पर रखा जा सकता है। र रखने के लिए मुक्त हो गए। त होने का अधिकार नहीं है। प्रतिबंध होने के बावजूद कॉनट्उल्लेखनीय है कि आंध्र प्रदेश ने 2003 में कानून में संशोधन पारित किए थे जोकि मुख्य गतिविधियो में कॉन्ट्रैक्ट श्रम को प्रतिबंधित करता था और गैर मुख्य गतिविधियों की सूची निर्दिष्ट करता था जिनमें प्रतिबंध लागू नहीं होंगे (जैसे सैनिटेशन और सिक्योरिटी सर्विस)। इसमें फर्म की मुख्य गतिविधियों में काम एकाएक बढ़ने (एक निर्दिष्ट अवधि में काम पूरा करने के लिए) पर कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के रोजगार की अनुमति दी गई। आईएलओ के अनुसार (2016), इंडोनेशिया और ब्राजील जैसे देश भी मुख्य गतिविधियों में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के प्रयोग को सीमित करते हैं।[27] इसके अतिरिक्त चीन में कुल श्रमबल में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के प्रयोग को सीमित किया गया है और इसे रेगुलेशन के जरिए तय किया गया है (2014 में श्रमबल के 10% पर निर्धारित)।

हालांकि एनसीएल ने इस बात को भी मान्यता दी है कि कॉन्ट्रैक्ट श्रम में रोजगार सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा नहीं होती, वेतन कम मिलता है और सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार को दबाया जाता है। उदाहरण के लिए रेलवे में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों पर एक अनुपालन ऑडिट (2017) में कैग ने कहा था कि कई चुनींदा मामलों में रेलवे ऐसा कोई रिकॉर्ड पेश नहीं कर पाया जिससे यह पता चलता हो कि नियमों का अनुपालन ठीक से हो रहा है या नहीं।[28]  जहां रिकॉर्ड्स पेश किए गए, वहां यह गौर किया गया कि 37% मामलों में कॉन्ट्रैक्टर्स से लाइसेंस हासिल नहीं किए गए, 28% मामलों में न्यूनतम वेतन नहीं चुकाए गए, 75% मामलों में ईएसआई रजिस्ट्रेशन हासिल नहीं किए गए और कोई निरीक्षण नहीं किए गए। कैग के सुझावों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) उन एजेंसियों को कॉन्ट्रैक्ट देना, जोकि श्रम विभाग, ईपीएफओ या ईएसआईसी इत्यादि के साथ रजिस्टर्ड हैं, और (ii) कॉन्ट्रैक्टर्स के बिल्स को क्लियर करने से पहले अनुपालन की चेकलिस्ट को निर्दिष्ट करना।

कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए एनसीएल ने निम्नलिखित सुझाव दिए: (i) एक से काम के लिए कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को नियमित श्रमिकों के बराबर पारिश्रमिक देना (और अगर नियमित श्रमिक नहीं हैं तो तुलनात्मक दक्षता श्रेणी के श्रमिकों के निम्रमिकों को नियमित श्रमिकों के बराबर पारिश्रमिक देना (और अगर नियमित श्रमिक नहीं हैं तो तुलनात्मक दकनतम वेतन के बराबर), (ii) मुख्य नियोक्ता की जिम्मेदारी सुनिश्चित करना कि वह कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा और अन्य लाभ प्रदान करेगा, और (iii) स्थायी पदों पर कैजुअल या अस्थायी श्रमिकों को दो साल से अधिक काम पर नहीं रखा जाए। उल्लेखनीय है कि एक्ट के अंतर्गत अधिसूचित केंद्रीय नियमों में हमेशा से एक समान काम के लिए नियमित और कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के बीच वेतन समानता कायम करने की अपेक्षा की जाती है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने (2009 में) इसकी व्याख्या इस तरह की थी कि नियोक्ता दो श्रेणियों के श्रमिकों के एक समान कार्य करने के लिए दक्षता, काम की प्रकृति, श्रमिकों की विश्वसनीयता और जिम्मेदारी जैसे कारकों पर विचार कर सकता है।[29] 

2018 में केंद्र सरकार ने केंद्रीय क्षेत्र के इस्टैबलिशमेंट्स में निर्धारित अवधि के रोजगार के प्रावधानों को पेश किया था।[30]  निर्धारित अवधि के रोजगार का अर्थ यह है कि श्रमिक और नियोक्ता के बीच हस्ताक्षरित अनुबंध के आधार पर श्रमिक को निर्धारित अवधि के लिए काम पर रखा जाए। इससे नियोक्ता मांग में थोड़ी बहुत बढ़ोतरी होने पर उत्पादन में उतार-चढ़ाव को पूरा कर सकता है (जैसे वस्तुओं को सप्लाई करने के कॉन्ट्रैक्ट को पूरा करने के लिए), और उसे बड़े पैमाने पर श्रमबल को रखने की जरूरत नहीं है। इससे श्रमिकों को रोजगार सुरक्षा भी मिलेगी, हालांकि यह सुरक्षा स्थायी कर्मचारियों को मिलने वाली सुरक्षा से कम होगी। हालांकि निर्धारित अवधि के कॉन्ट्रैक्ट के रीन्यू न होने के डर से कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक प्रबंधन के सामने अपनी समस्याएं पेश नहीं करेंगे। हमने औद्योगिक संबंध संहिता, 2019 पर अपने लेजिसलेटिव ब्रीफ में निर्धारित अवधि के श्रमिकों को काम पर रखने के लाभ और हानियों को विस्तार से स्पष्ट किया है।

संहिता के प्रावधान: वर्तमान में कॉन्ट्रैक्ट श्रम वाले प्रावधान उन इस्टैबलिशमेंट्स/कॉन्ट्रैक्टर्स पर लागू होते हैं जहां कम से कम 20 श्रमिक काम करते हैं। व्यवसायगत सुरक्षा एवं स्वास्थ्य संहिता ने इस सीमा को 50 श्रमिक किया है। इसके अतिरिक्त यह विशिष्ट परिस्थितियों (इसमें काम की मांग का एकाएक बढ़ना शामिल है) के अतिरिक्त मुख्य गतिविधियों में कॉन्ट्रैक्ट श्रम पर प्रतिबंध लगाती है। यह उन गैर मुख्य गतिविधियों की सूची भी निर्दिष्ट करती है जहां यह प्रतिबंध लागू नहीं होगा। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं: (i) सैनिटेशन का काम, (ii) सिक्योरिटी सेवाएं, और (iii) अनिरंतर प्रकृति की कोई गतिविधि, भले ही वह इस्टैबलिशमेंट की मुख्य गतिविधि हो।

कॉन्ट्रैक्टर की जिम्मेदारी के संबंध में संहिता कॉन्ट्रैक्टर लाइसेंस देने की शर्तों को नियमों के हवाले करती है। इसके अतिरिक्त वह कॉन्ट्रैक्टर द्वारा कल्याणकारी सुविधाएं प्रदान की मुख्य जिम्मेदारी नियोक्ता को सौंपती है। वह मुख्य नियोक्ता के इस्टैबलिशमेंट में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों के स्वतः सम्मिलित होने का प्रावधान करती है, जहां वे बिना लाइसेंस वाले कॉन्ट्रैक्टर के जरिए संलग्न किए गए हैं। औद्योगिक संबंध संहिता में निर्धारित अवधि वाले श्रमिकों को नियुक्त करने का प्रावधान भी पेश किया गया है।

ट्रेड यूनियन

संदर्भ: देश में रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन्स बड़ी संख्या में मौजूद हैं जिनमें इस्टैबलिशमेंट की अपनी यूनियन्स भी शामिल हैं। लेकिन ऐसा कोई मानदंड नहीं है जोकि यह तय करे कि कौन सी यूनियन्स प्रबंधन के साथ औपचारिक बातचीत कर सकती है। यूनियन्स के साथ किए गए सेटलमेंट्स सिर्फ भागीदार यूनियन्स के लिए बाध्यकारी होते हैं। इससे श्रमिकों के सामूहिक सौदेबाजी करने के अधिकार पर असर होता है। इसके अतिरिक्त इस पर भी सवाल खड़े किए जाते हैं कि ट्रेड यूनियन्स में गैर कर्मचारियों को कितनी हद तक शामिल किया जा सकता है।

प्रस्तावित सुधार: 2015 तक भारत में 12,420 रजिस्टर्ड ट्रेड यूनियन्स थीं जिनमें से हरेक में औसत 1,883 सदस्य थे।[31] किसी इस्टैबलिशमेंट में बड़ी संख्या में यूनियन्स होने से सामूहिक सौदेबाजी की प्रक्रिया में अड़चन आती है क्योंकि उन सभी से सेटेलमेंट करना मुश्किल होता है। नियोक्ता कम्प्लायंट यूनियन के साथ समझौते के जरिए अनुकूल सेटेलमेंट की कोशिश कर सकते हैं, भले ही उस यूनियन के पास अधिकतर श्रमिकों का समर्थन हासिल न हो। एनसीएल ने सुझाव दिया कि ऐसी यूनियन को ‘मान्यता’ दी जाए जिसके पास 66% सदस्यों का समर्थन हासिल हो। अगर किसी यूनियन के पास 66% सदस्यों का समर्थन हासिल न हो तो 25% से अधिक समर्थन वाली यूनियन को नेगोसिएशन कॉलेज में आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। मान्यता के लिए वोट यूनियन में नियमित सबस्क्रिप्शन के आधार पर दिया जाए जिसे श्रमिक के वेतन से काट लिया जाए- सबस्क्रिप्शन के नियमित भुगतान से विभिन्न यूनियन्स के सदस्यों की संख्या की निरंतर पुष्टि होगी। जिन इस्टैबलिशमेंट्स में 300 से कम कर्मचारी हैं, उनके लिए नेगोशिएटिंग यूनियन का निर्धारण श्रम संबंध आयोग कर सकता है (वह गुप्त बैलेट का इस्तेमाल कर सकता है) ताकि कंपनी के प्रबंधन के शोषण को कम किया जा सके। श्रम संबंधी स्टैंडिंग कमिटी (2009) ने भी ट्रेड यूनियन्स को अनिवार्य रूप से मान्यता देने का समर्थन किया था।18

इसके अतिरिक्त असंगठित क्षेत्र में कम यूनियनाइजेशन को देखते हुए उसने ऐसे विशिष्ट प्रावधानों का सुझाव दिया था जिनकी मदद से असंगठित क्षेत्र में श्रमिक ट्रेड यूनियंस बना सकें, और वे रजिस्ट्रेशन करा सकें, उन स्थितियों में भी जहां नियोक्ता-कर्मचारी संबंध मौजूद न हों या इन संबंधों को कायम करना मुश्किल हो। बाहरियों की भागीदारी के प्रश्न पर एनसीएल ने कहा था कि अगर ट्रेड यूनियंस एक्ट यूनियंस में ‘बाहरियों’ की सदस्यता की कुल संख्या की सीमा तय कर देता, तो यह उचित होता।    

संहिता के प्रावधान: औद्योगिक संबंध संहिता में नेगोशिएटिंग यूनियंस में 51% की सदस्यता का प्रावधान है। यह प्रतिशत न होने की स्थिति में नेगोशिएटिंग काउंसिल बनाई जा सकती है। लेकिन संहिता में यह स्पष्ट नहीं है कि वोट कैसे किया जाएगा। इसके अतिरिक्त बाहरी की भागीदारी की संख्या की सीमा में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है (जोकि अधिकतम 33% है और अधिकतम पांच सदस्यों के अधीन है)। असंगठित क्षेत्र की यूनियंस में बाहरियों की संख्या अधिकतम 50% हो सकती है। हालांकि संहिता के अंतर्गत हड़ताल के लिए दो हफ्ते का नोटिस देना जरूरी है जोकि सामूहिक सौदेबाजी के अधिकारों को कमजोर करता है।

प्रत्यायोजित विधान (डेलिगेटेड लेजिसलेशन)

संविधान के अंतर्गत विधानमंडल के पास कानून बनाने की शक्ति होती है और सरकार उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार होती है। अक्सर विधानमंडल सामान्य सिद्धांतों और नीतियों के साथ एक कानून बनाता है और फिर सुविधा और फ्लेक्सिबिलिटी देने के लिए सरकार को विस्तृत नियम बनाने का अधिकार सौंप देता है। हालांकि कुछ कार्यों और शक्तियों को सरकार को नहीं सौंपा जाना चाहिए। इनमें कानून के सिद्धांतों को निर्धारित करने के लिए विधायी नीति बनाना शामिल है। कोई नियम डेलिगेटेड एक्ट के दायरे के भीतर भी होना चाहिए। प्रश्न यह है कि कौन सा मामला विधानमंडल के पास रहना चाहिए और किसे सरकार को डेलिगेट किया जा सकता है।    

श्रम संहिताएं कानूनों के कई अनिवार्य पहलुओं को सरकार को सौंपती हैं। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं: (i) छंटनी, नौकरी से निकालने और इस्टैबलिशमेंट को बंद करने की सीमा को बढ़ाना, (ii) विभिन्न सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की एप्लिकेबिलिटी हेतु इस्टैबलिशमेंट्स के लिए सीमा तय करना, (iii) इस्टैबलिशमेंट्स के लिए सुरक्षा मानदंडों और कार्य स्थितियों को निर्दिष्ट करना, और (iv) न्यूनतम वेतन के निर्धारण के लिए नियम बनाना।

उभरती चुनौतियां

सरकारी आंकड़ों के आधार पर मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट (2016) ने अनुमान लगाया था कि यूएस और यूरोपीय संघ में वर्किंग एज के 10-15% वयस्क अपनी प्राथमिक जीविका ‘स्वतंत्र कार्य’ से अर्जित करते हैं।[32]  परंपरागत फ्रीलांस वर्क के अतिरिक्त स्वतंत्र कार्य में उभरते हुए डिजिटल प्लेटफॉर्म्स शामिल होते हैं जो कार्य आधारित ‘क्राउड वर्क’ (जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर फ्रीलांस वर्क) और ‘ऑन डिमांड वर्क’ (जैसे टैक्सी और रेस्त्रां एग्रीगेटर्स) के अवसर प्रदान करते हैं। संहिता को जिन सवालों को हल करना है, उनमें से एक यह है कि क्या स्व-नियुक्त व्यक्तियों (यानी फ्रीलांसर्स), जोकि अपने कार्य पर स्वतंत्र रूप से नियंत्रण रखते हैं (जिसमें सेवा शर्तें, शेड्यूलिंग और भुगतान की शर्तें शामिल हैं) और स्व नियुक्ति व्यक्तियों, जो सिंगल प्लेटफॉर्म के लिए मुख्य रूप से कार्य करते हैं और ये प्लेटफॉर्म्स उनके कार्य की शर्तों पर कुछ हद तक नियंत्रण रखते हैं (यानी एग्रीगेटर), के बीच कोई अंतर किया जाना चाहिए। अगर ऐसा है तो संहिताओं को इस बात पर विचार करना चाहिए कि कर्मचारियों को अधिकार देने वाले विभिन्न प्रावधान किस हद तक सिंगल प्लेटफॉर्म्स के लिए काम करने वाले कर्मचारियों पर लागू होने चाहिए।  

उल्लेखनीय है कि गिग अर्थव्यवस्था में श्रमिक आम तौर पर स्वतंत्र कॉन्ट्रैक्टर्स के तौर पर वर्गीकृत किए जाते हैं और इसलिए उन्हें विभिन्न श्रम कानूनों के अंतर्गत संरक्षण नहीं मिलता, जिसमें सामाजिक सुरक्षा लाभ शामिल हैं।[33] विश्व स्तर पर कुछ क्षेत्रों ने उन सिद्धांतों को स्पष्ट किया है जिनके आधार पर ऐसे नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों को चिन्हित किया जा सकता है जिन्हें गलती से स्वतंत्र कॉन्ट्रैक्ट वर्क में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरण के लिए कैलीफोर्नियां में 2019 में एक बिल पारित किया गया जोकि कुछ स्वतंत्र कॉन्ट्रैक्टर्स को कर्मचारी वर्गीकृत करता है और उन्हें स्वास्थ्य बीमा जैसे कुछ लाभों का हकदार बनाता है, अगर उन्हें नौकरी देने वाली कंपनी निम्नलिखित साबित नहीं कर पाती: (i) व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला काम कंपनी के सामान्य कारोबार से अलग है, (ii) कंपनी व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले कार्य के तरीके पर नियंत्रण नहीं रखती, और (iii) व्यक्ति उसी प्रकृति के व्यापार या व्यवसाय में साधारणतया संलग्न है, जो संपन्न किए जाने वाले कार्य में शामिल है।[34]  

सामाजिक सुरक्षा संहिता ‘गिग वर्कर्स’ और ‘प्लेटफॉर्म वर्कर्स’ की परिभाषाओं को प्रस्तुत करती है। गिग वर्कर का अर्थ है, ‘परंपरागत नियोक्ता-कर्मचारी संबंध’ के बाहर के श्रमिक। प्लेटफॉर्म वर्कर्स में ऐसे लोग शामिल होते हैं जोकि ‘परंपरागत नियोक्ता-कर्मचारी संबंध’ के बाहर होते हैं और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के जरिए संगठनों या व्यक्तियों को एक्सेस करते हैं और सेवाएं प्रदान करते हैं। संहिता असंगठित श्रमिकों को भी परिभाषित करती है जिसमें स्वनियुक्त व्यक्ति शामिल हैं। संहिता श्रमिकों की सभी श्रेणियों के लिए विभिन्न योजनाओं का प्रावधान करती है (और उस भूमिका को स्पष्ट करती है जोकि एग्रीगेटर को इनमें से कुछ योजनाओं में निभानी पड़ सकती है)। हालांकि इन तीनों की परिभाषाओं में कुछ ओवरलैपिंग हो सकती है जिससे इनमें से किस श्रेणी पर कौन सी सामाजिक सुरक्षा योजना लागू होंगीं, इसमें कुछ अस्पष्ट हो सकती है। हमने संहिता पर अपने लेजिसलेटिव ब्रीफ में इस मुद्दे पर चर्चा की है।

अनुलग्नक: श्रम कानूनों का विवरण

बिल निम्नलिखित 29 केंद्रीय कानूनों का स्थान लेता है। तालिका 3 में उन कानूनों की सूची दी गई है जोकि चार श्रम संहिताओं में शामिल किए जा रहे हैं। तालिका 4 में कुछ अन्य कानूनों की सूची है जोकि श्रम के दूसरे पहलुओं को रेगुलेट करते हैं लेकिन संहिताओं में इन्हें शामिल नहीं किया गया है।

तालिका 3: चार श्रम संहिताओं को समाहित करने वाले कानूनों का विवरण

श्रम संहिताएं

समाहित कानून

वेतन संहिता, 2019

  • वेतन भुगतान एक्ट, 1936;
  • न्यूनतम वेतन एक्ट, 1948;
  • बोनस भुगतान एक्ट, 1965; और
  • समान पारिश्रमिक एक्ट, 1976

व्यवसायगत सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य स्थितियां संहिता, 2019

  • फैक्ट्रीज़ एक्ट, 1948;
  • खान एक्ट, 1952;
  • डॉक श्रमिक (सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कल्याण) एक्ट, 1986;
  • भवन निर्माण और अन्य निर्माण श्रमिक (रोजगार का रेगुलेशन और सेवा शर्तें) एक्ट 1996;
  • बागान श्रमिक एक्ट, 1951;
  • कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक (रेगुलेशन और उन्मूलन) एक्ट, 1970;
  • अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिक (वर्कमेन) (रोजगार का रेगुलेशन और सेवा शर्तें) एक्ट, 1979;
  • वर्किंग जर्नलिस्ट और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी (सेवा शर्तें और विविध प्रावधान) एक्ट, 1955;
  • वर्किंग जर्नलिस्ट (वेतन की दरों का निर्धारण) एक्ट, 1958;
  • मोटर परिवहन श्रमिक एक्ट, 1961;
  • सेल्स प्रमोशन कर्मचारी (सेवा शर्तें) एक्ट, 1976;
  • बीड़ी और सिगार वर्कर्स (रोजगार की शर्तें) एक्ट, 1966; और
  • सिने वर्कर्स और सिनेमा थियेटर वर्कर्स (रोजगार का रेगुलेशन) एक्ट, 1981

औद्योगिक संबंध संहिता, 2019

  • ट्रेड यूनियंस एक्ट, 1926;
  • औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) एक्ट, 1946, और
  • औद्योगिक विवाद एक्ट, 1947

सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2019

  • कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड्स और विविध प्रावधान एक्ट, 1952;
  • कर्मचारी राज्य बीमा एक्ट, 1948;
  • कर्मचारी मुआवजा एक्ट, 1923;
  • इंप्लॉयमेंट एक्सचेंज (रिक्तियों की अनिवार्य अधिसूचना) एक्ट, 1959;
  • मातृत्व लाभ एक्ट, 1961;
  • ग्रैच्युटी भुगतान एक्ट, 1972;
  • सिने वर्कर्स कल्याण कोष एक्ट, 1981;
  • भवन निर्माण और अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण सेस एक्ट, 1996; और
  • असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा एक्ट, 2008
     

स्रोत: मौजूदा श्रम कानून; श्रम संहिताएं; पीआरएस।

तालिका 4: केंद्रीय कानून जोकि श्रम कानून से संबंधित हैं लेकिन संहिताओं में शामिल नहीं किए गए हैं

अतिरिक्त केंद्रीय कानून

एक्ट का ब्यौरा

श्रम कानून (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न देने और रजिस्टर रखने से छूट देने के लिए प्रक्रिया का सरलीकरण) एक्ट, 1988 

अधिकतम 19 श्रमिकों और अधिकतम 40 श्रमिकों वाले इस्टैबलिशमेंट्स को इस बात की अनुमति देता है कि वे 16 केंद्रीय कानूनों (जिनके दायरे में वेतन, कारखाने और कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक आते हैं) के अंतर्गत कंबाइन्ड वार्षिक रिटर्न और यूनिफाइड रजिस्टर्स सौंप सकते हैं।

एप्रेंटिस एक्ट, 1961

एप्रेंटिस के प्रशिक्षण के रेगुलेशन का प्रावधान करता है।

बंधुआ श्रमिक प्रणाली (उन्मूलन) एक्ट, 1976

बंधुआ श्रमिक प्रमाली के उन्मूलन का प्रावधान करता है।

बाल और किशोर श्रमिक (प्रतिबंध और रेगुलेशन) एक्ट,  1986

सभी व्यवसायों में बच्चों (14 वर्ष से कम आयु के) और जोखिमपरक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में किशोरों (14-17 वर्ष) के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है।

पब्लिक लायबिलिटी बीमा एक्ट 1991

पब्लिक लायबिलिटीबीमा के लिए प्रावधान करता है ताकि जोखिमपरक वस्तुओं की हैंडलिंग के दौरान हुई दुर्घटनाओं से प्रभावित लोगों को राहत दी जा सके।

डॉक श्रमिक (रोजगार का रेगुलेशन) एक्ट, 1948

डॉक वर्कर्स के रोजगार को रेगुलेट करने के लिए योजना बनाने का प्रावधान करता है। योजना के प्रबंधन के लिए एक बोर्ड बनाता है।

डॉक श्रमिक (रोजगार का रेगुलेशन) (मुख्य बंदरगाहों पर अनुपयुक्तता) एक्ट, 1997

डॉक श्रमिक (रोजगार का रेगुलेशन) एक्ट, 1948 के भारत के मुख्य बंदरगाहों के श्रमिकों पर अनुपयुक्तता का प्रावधान करता है।

कोयला खान प्रॉविडेंट फंड और विविध प्रावधान एक्ट, 1948

कोयला खदानों में काम करने वाले लोगों के लिए प्रॉविडेंट फंड, पेंशन, डिपॉजिट लिंक्ड बीमा और बोनस योजना बनाने का प्रावधान करता है।

प्रॉविडेंट फंड्स एक्ट, 1925

सरकार, स्थानीय प्रशासन, रेलवे और अन्य संस्थानों से मुख्य रूप से जुड़े प्रॉविडेंट फंड्स से संबद्ध।

नाविक प्रॉविडेंट फंड एक्ट, 1966

नाविकों के लिए प्रॉविडेंट फंडस योजना बनाने का प्रावधान करता है।

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न एक्ट, 2013

कार्यस्थल पर यौन शोषण की शिकायतों को दूर करने की प्रक्रिया तैयार करता है।

बॉयलर्स एक्ट, 1923

स्टीम बॉयलर्स की मैन्यूफैक्चरिंग और इस्तेमाल को रेगुलेट करता है।

मैला ढोने वालों का रोजगार और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) एक्ट, 1993

कुछ गतिविधियों के सिर पर मैला ढोने के रोजगार पर प्रतिबंध। वॉटर सील शौचालयों के निर्माण और रखरखाव को रेगुलेट करना।

मैला ढोने वालों के रोजगार पर प्रतिबंध और उनका पुनर्वास एक्ट, 2013

मैला ढोने, सीवर और सेप्टिक टैंकों की सुरक्षात्मक उपकरणों के बिना हाथ से सफाई करने तथा अस्वच्छ शौचालयों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाता है।

स्रोत: मौजूदा श्रम कानून; पीआरएस।

 

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