मंत्रालय: 
विधि एवं न्याय

बिल की मुख्‍य विशेषताएं

  • बिल व्यक्तियों से यह अपेक्षा करता है कि वे अदालत या ट्रिब्यूनल के पास जाने से पहले मध्यस्थता के जरिए सिविल या कमर्शियल विवादों को निपटाने का प्रयास करें। मध्यस्थता के दो सत्रों के बाद कोई पक्ष मध्यस्थता से हट सकता है। मध्यस्थता की प्रक्रिया 180 दिनों के अंदर खत्म हो जानी चाहिए जिसे पक्षों द्वारा 180 दिनों के लिए और बढ़ाया जा सकता है।
     
  • भारतीय मध्यस्थता परिषद का गठन किया जाएगा। इसके कार्यों में मध्यस्थों का पंजीकरण, और मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं और मध्यस्थता संस्थाओं (मध्यस्थों को प्रशिक्षित करने और सर्टिफिकेट देने वाली) को मान्यता देना है।
     
  • बिल ऐसे विवादों को सूचीबद्ध करता है जो मध्यस्थता के लिए उपयुक्त नहीं हैं (जैसे क्रिमिनल अपराध के प्रॉसीक्यूशन से जुड़े हुए या तीसरे पक्ष के अधिकारों को प्रभावित करने वाले)। केंद्र सरकार इस सूची में संशोधन कर सकती है।
     
  • अगर पक्ष सहमत हैं तो वे मध्यस्थ के रूप में किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो वे मध्यस्थता सेवा प्रदाता को आवेदन कर सकते हैं कि वे मध्यस्थों के अपने पैनल से किसी व्यक्ति को नियुक्त करे।
     
  • मध्यस्थता के परिणामस्वरूप होने वाले समझौते बाध्यकारी होंगे और अदालती फैसलों की तरह लागू होंगे।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

  • बिल मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य करता है। मध्यस्थता विवाद निवारण की एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है। प्रश्न यह है कि मुकदमेबाजी से पहले पक्षों के लिए मध्यस्थता को अनिवार्य करना क्या उचित है। एक तरफ इससे आउट ऑफ कोर्ट सेटेलमेंट बढ़ सकते हैं और अदालतों में लंबित मामले कम हो सकते हैं। दूसरी तरफ मध्यस्थता को अनिवार्य करना उसकी स्वैच्छिक प्रकृति के खिलाफ है।
       
  • मध्यस्थों के पेशे को रेगुलेट करने के लिए गठित मध्यस्थता परिषद में पर्याप्त अनुभव वाले प्रैक्टीसिंग मध्यस्थों का प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता। यह भारतीय बार काउंसिल जैसे पेशेवर रेगुलेटर्स से भिन्न है।
     
  • मध्यस्थता परिषद को अपने अनिवार्य कार्यों से संबंधित रेगुलेशंस को जारी करने से पहले केंद्र सरकार से मंजूरी लेनी होगी। यह स्पष्ट नहीं है कि पूर्व मंजूरी की जरूरत क्यों है। यह प्रश्न इसलिए भी उठता है क्योंकि मध्यस्थता के कई मामलों में केंद्र सरकार एक पक्ष हो सकती है।
     
  • बिल अंतररष्ट्रीय मध्यस्थता पर तभी लागू होगा, जब यह भारत में संचालित की जाए। यह भारत से बाहर की गई अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थताओं के परिणामस्वरूप होने वाले समझौतों को लागू करने का प्रावधान नहीं करता।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

वैकल्पिक विवाद निवारण (एडीआर) के मायने ऐसा कोई भी जरिया है, जिससे विवादों को परंपरागत अदालती प्रणली से बाहर निपटाया जाए। भारत में एडीआर के माध्यमों में आर्बिट्रेशन, बातचीत, मध्यस्थता और लोक अदालतें शामिल हैं। मध्यस्थता एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है जिसमें पक्ष तीसरे स्वतंत्र व्यक्ति (मध्यस्थ) की सहायता से विवादों को हल करने का प्रयास करते हैं।[1] मध्यस्थ पक्षों पर समाधान थोपता नहीं है बल्कि एक ऐसा अनुकूल वातावरण तैयार करता है जिसमें वे अपने विवाद को हल कर सकें। मध्यस्थता प्रक्रिया पक्षों के अपनी पसंद पर निर्भर करती है और इस प्रक्रिया के कोई कड़े या बाध्यकारी नियम नहीं हैं।मध्यस्थता के कई लाभ हैं, जैसे उसकी प्रकृति स्वैच्छिक और गैर विरोधात्मक है, पूरी प्रक्रिया फ्लेक्सिबल और गोपनीय, तथा लागत प्रभावी होती है, इसके अलावा परस्पर सहमति से किया गया निपटारा अंतिम होता है।[2] एडीआर के माध्यम के रूप में, मध्यस्थता अदालतों पर मामलों के दबाव को कम करने में मदद कर सकती है। 

वर्तमान में, भारत में निम्नलिखित प्रकार से मध्यस्थता हो सकती है: (i) अदालतों से भेजी गई (सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत अदालतें मध्यस्थता के लिए मामलों को भेज सकती हैं), (ii) निजी (जैसे ऐसे कॉन्ट्रैक्ट के तहत जिसमें मध्यस्थता का क्लॉज हो), या (iii)  कुछ विशेष कानूनों में प्रदत्त (जैसे कमर्शियल अदालत एक्ट, 2015, उपभोक्ता संरक्षण एक्ट, 2019 या कंपनी एक्ट, 2013)।[3],[4],[5],[6]  मध्यस्थता सेवाएं निजी एडीआर केंद्रों या मध्यस्थता केंद्रों, साथ ही अदालतों या ट्रिब्यूनल्स द्वारा गठित केंद्रों (जिन्हें कोर्ट एनेक्स्ड मीडिएशन सेंटर्स कहा जाता है) द्वारा प्रदान की जाती हैं। नेशनल लीगल सर्विसेज़ अथॉरिटी के 2021-22 के एक डेटा के अनुसार, भारत में 464 एडीआर केंद्र (जिनमें से 397 चालू हैं), 570 मध्यस्थता केंद्र और 16,565 मध्यस्थ हैं, और इस अवधि के दौरान मध्यस्थता के जरिए लगभग 53,000 मामलों का निपटान किया गया था।[7] 

ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और इटली जैसे विभिन्न देशों में मध्यस्थता के लिए अलग से कानून हैं जो सिर्फ उसी पर केंद्रित हैं।[8] भारत में कई मौकों पर यह सुझाव दिया गया कि मध्यस्थता पर अलग से कानून लागू किया जाना चाहिए, जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में और भारत में आर्बिट्रेशन की व्यवस्था के संस्थानीकरण की समीक्षा करने वाली उच्च स्तरीय समिति ने 2017 में यह सुझाव दिया था।8,[9]  इसके अतिरिक्त 2020 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने मध्यस्थता के जरिए विवाद निपटान के लिए एक ड्राफ्ट एंब्रेला कानून को तैयार किया था।[10]  मध्यस्थता बिल, 2021 मध्यस्थता, खासकर संस्थागत मध्यस्थता को बढ़ावा देने का प्रयास करता है, और मध्यस्थता के जरिए विवाद निपटान के समझौतों को प्रभावी बनाने की व्यवस्था तैयार करता है। बिल को कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी स्टैंडिंग कमिटी को भेजा गया है।  

मुख्य विशेषताएं  

  • मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थतासिविल या कमर्शियल विवाद के मामले में व्यक्ति को अदालत या किन्हीं ट्रिब्यूनल्स (जिन्हें अधिसूचित किया जाएगा) से संपर्क करने से पहले मध्यस्थता के जरिए विवाद को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। अगर सभी पक्ष मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता के जरिए कोई समझौता नहीं कर पाते तो भी अदालत या ट्रिब्यूनल कार्यवाही के किसी भी चरण में उन पक्षों को मध्यस्थता के लिए भेज सकते हैं, अगर वे पक्ष इस संबंध में कोई अनुरोध करते हैं।
     
  • मध्यस्थता के लिए अनुपयुक्त विवादबिल में ऐसे विवादों की सूची है जो मध्यस्थता के लिए अनुपयुक्त हैं। उनमें निम्नलिखित विवाद शामिल हैं: (i) नाबालिगों या मानसिक रूप से अस्वस्थ लोगों के खिलाफ दावों से संबंधित, (ii) क्रिमिनल अपराध के प्रॉसीक्यूशन से जुड़े हुए, और (iii) तीसरे पक्ष के अधिकारों को प्रभावित करने वाले। केंद्र सरकार इस सूची में संशोधन कर सकती है।
     
  • एप्लिकेबिलिटीबिल भारत में मध्यस्थता की कार्यवाहियों पर लागू होगा, जहां (i) सिर्फ घरेलू पक्ष हैं, (ii) कम से कम एक पक्ष विदेशी पार्टी है और वह कमर्शियल विवाद से संबंधित है (यानी अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता), और (iii) अगर मध्यस्थता के समझौते में कहा जाता है कि मध्यस्थता इस बिल के अनुसार होगी। अगर केंद्र या राज्य सरकार एक पक्ष है, तो बिल निम्नलिखित मामलों में लागू होगा: (क) कमर्शियल विवाद, और (ख) सरकार द्वारा अधिसूचित कोई अन्य विवाद।
     
  • मध्यस्थता की प्रक्रियामध्यस्थता की प्रक्रिया गोपनीय होगी और इसे 180 दिनों में खत्म होना चाहिए (जिसे पक्षों द्वारा 180 दिनों तक और बढ़ाया जा सकता है)। कोई पक्ष दो सत्रों के बाद मध्यस्थता से हट सकता है। अदालतों द्वारा संचालित मध्यस्थता सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के निर्धारित नियमों के अनुसार की जानी चाहिए।
     
  • मध्यस्थमध्यस्थों को निम्नलिखित द्वारा नियुक्त किया जा सकता है: (i) आपसी रजामंदी से पक्षों द्वारा, या (ii) मध्यस्थता सेवा प्रदाता (मध्यस्थता का संचालन करने वाली संस्था) द्वारा। मध्यस्थों को हितों के किसी टकराव का खुलासा करना चाहिए जोकि उनकी स्वतंत्रता पर संदेह पैदा करता हो। तब पक्ष उसे बदलने का विकल्प चुन सकते हैं।
     
  • भारतीय मध्यस्थता परिषदकेंद्र सरकार भारतीय मध्यस्थता परिषद की स्थापना करेगी। परिषद में एक चेयरपर्सन, दो पूर्णकालिक सदस्य (मध्यस्थता या एडीआर के अनुभव वाले), तीन पदेन सदस्य (विधि सचिव और व्यय सचिव), और एक अल्पकालिक सदस्य (इंडस्ट्री बॉडी से जुड़ा हुआ) होंगे। परिषद के कार्यों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) मध्यस्थों का पंजीकरण, और (ii) मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं और मध्यस्थता संस्थाओं (जो मध्यस्थों को प्रशिक्षित करती और उन्हें सर्टिफिकेट देती है) को मान्यता देना।
     
  • मध्यस्थता समझौता करारमध्यस्थता के परिणामस्वरूप समझौते (सामुदायिक मध्यस्थता को छोड़कर) अंतिम, बाध्यकारी होंगे और अदालती फैसलों की तरह लागू होंगे। उन्हें निम्नलिखित आधार पर चुनौती दी जा सकती है: (i) धोखाधड़ी, (ii) भ्रष्टाचार, (iii) प्रतिरूपण (इनपर्सोनेशन), या (iv) मध्यस्थता के लिए अनुपयुक्त विवादों से संबंधित।
     
  • सामुदायिक मध्यस्थताकिसी क्षेत्र के निवासियों के बीच शांति और सौहार्द को प्रभावित करने की आशंका वाले विवादों को हल करने के लिए सामुदायिक मध्यस्थता के प्रयास किए जा सकते हैं। यह तीन मध्यस्थों के पैनल द्वारा किया जाएगा (इनमें समुदाय के प्रतिष्ठित लोग और रेज़िडेंट वेल्फेयर एसोसिएशंस के प्रतिनिधि शामिल हो सकते हैं)।

भाग ख : प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

क्या मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य करना उचित है

मध्यस्थता एक स्वैच्छिक निवारण प्रक्रिया है। जहां मुकदमेबाजी या आर्बिट्रेशन में विवाद पर अधिनिर्णय लिया जाता है, वहीं मध्यस्थता में पक्षों की सहमति से समझौता किया जाता है। बिल सिविल और कमर्शियल विवादों में मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य करता है। प्रश्न यह है कि क्या एक ऐसी प्रक्रिया में भाग लेने को जरूरी किया जाना चाहिए जोकि अनिवार्यतः स्वैच्छिक है। उल्लेखनीय है कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत अदालत विवादित पक्षों को उनकी सहमति के बिना मध्यस्थता के लिए भेज सकता है।मध्यस्थता को अनिवार्य करने के संभावित लाभों और नुकसानों पर अलग-अलग राय है। हम यहां इन पर चर्चा कर रहे हैं। 

मध्यस्थता एक लागत प्रभावी विवाद निवारण प्रक्रिया है जोकि आउट ऑफ कोर्ट सेटेलमेंट करके अदालतों का दबाव कम करने में मदद करती है। मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता में भाग लेना अनिवार्य करने से अदालतों में लंबित मामले में कमी आ सकती है और निपटान की दर कुछ तेज हो सकती है। एक तर्क यह भी हो सकता है कि बिल पक्षों को प्रक्रिया में भाग लेने के लिए सिर्फ मजबूर कर रहा है, निपटान के लिए नहीं। पक्ष दो सत्रों के बाद मध्यस्थता से हट सकते हैं। इस संबंध में नीति आयोग (2021) का कहना है कि कुछ सत्रों तक अनिवार्य मध्यस्थता का यह मॉडल कई देशों, जैसे इटली, ब्राजील और तुर्की में सफल रहा है।10 ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड जैसे अन्य देशों में कुछ विवादों के लिए मध्यस्थता वैधानिक रूप से अनिवार्य है, या वहां अदालतों को मध्यस्थता का आदेश देने की अनुमति है।[11]

दूसरी तरफ मध्यस्थता में भाग लेने को अनिवार्य करना, उसकी स्वैच्छिक प्रकृति के विपरीत है। संभव है कि इससे मध्यस्थता को बहुत बढ़ावा न मिले, क्योंकि अनिच्छुक पक्ष औपचारिकतावश शुरुआती सत्रों में भाग ले सकते हैं और फिर इस प्रक्रिया से हट सकते हैं। इससे विवाद निवारण में और देरी होगी और नतीजा अतिरिक्त लागत (कॉस्ट्स) के रूप में नजर आएगा। उल्लेखनीय है कि बिल पक्षों के लिए कम से कम दो सत्रों में भाग लेना अनिवार्य करता है, और ऐसा न करने पर लागत (कॉस्ट्स) वहन करनी पड़ सकती है।    

इसके अतिरिक्त मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य करने से पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित मध्यस्थ भी उपलब्ध होने चाहिए। नीति आयोग (2021) ने कहा था कि भारत में मध्यस्थता को अनिवार्य करने के लिए फ्रेमवर्क बनाते समय इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि मध्यस्थ कितनी संख्या में उपलब्ध हैं और क्या इकोसिस्टम में इतनी क्षमता है कि वह बड़ी संख्या में मध्यस्थों को उपलब्ध करा सके।10  उसने मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता की व्यवस्था को चरणबद्ध तरीके से शुरू करने का सुझाव दिया था, पहले कुछ विशेष श्रेणी के विवादों के लिए और अंततः व्यापक श्रेणी के विवादों के लिए। उसने कहा था कि विवादों की श्रेणियों में विस्तार के साथ मध्यस्थों एवं एडीआर केंद्रों की क्षमता में भी वृद्धि होनी चाहिए। 

भारतीय मध्यस्थता परिषद

बिल में प्रावधान है कि केंद्र सरकार भारतीय मध्यस्थता परिषद की स्थापना करेगी। परिषद के कार्यों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) मध्यस्थों का पंजीकरण, (ii) मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं (मध्यस्थता की व्यवस्था करने वाले संस्थान) और मध्यस्थता संस्थाओं (मध्यस्थों को प्रशिक्षण, शिक्षा और सर्टिफिकेट देने वाले) को मान्यता देना, (iii) मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं की ग्रेडिंग, और (iv) मध्यस्थ, मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं और मध्यस्थता संस्थाओं के पेशेवर आचरण के लिए मानदंड बनाना। हम परिषद से जुड़े दो मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।  

परिषद में प्रैक्टिस करने वाले मध्यस्थों का प्रतिनिधित्व जरूरी नहीं

मध्यस्थता परिषद के मुख्य कार्यों में मध्यस्थों का सर्टिफिकेशन, आकलन और पंजीकरण तथा उनके पेशेवर एवं नैतिक आचरण के लिए मानदंड बनाना है। परिषद में सात सदस्य होंगे जिनमें मध्यस्थता या एडीआर के अनुभव वाले दो पूर्णकालिक सदस्य तथा विधि एवं व्यय सचिव जैसे पदेन सदस्य शामिल हैं। बिल में परिषद के सदस्य के रूप में प्रैक्टिस करने वाले मध्यस्थों को जरूरी नहीं किया गया है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि व्यय सचिव को परिषद का सदस्य क्यों बनाया गया है। आम तौर पर प्रोफेशनल्स (जैसे वकील, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स और डॉक्टर्स) को रेगुलेट करने वाले वैधानिक निकायों में वे सदस्य जरूरी होते हैं जिनका उस संबंधित क्षेत्र में काफी अनुभव होता है या वे प्रैक्टिस कर रहे होते हैं।[12],[13],[14] जबकि परिषद के पूर्ण कालिक सदस्यों को मध्यस्थता या एडीआर कानूनों तथा व्यवस्थाओं से संबंधित ज्ञान या अनुभव जरूर होना चाहिए, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वे अनुभव वाले प्रैक्टिसिंग मध्यस्थ हों। उदाहरण के लिए, बिल परिषद के पूर्ण कालिक सदस्य के रूप में एक मध्यस्थ की नियुक्ति की अनुमति देगा। मध्यस्थों के पेशेवर आचरण के मानदंडों को निर्धारित करने जैसे कार्यों के लिए एक मध्यस्थ सबसे उपयुक्त नहीं हो सकता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय आब्रिटेशन परिषद के गठन के लिए 2019 में आर्बिट्रेशन को नियंत्रित करने वाले कानून में संशोधन किया गया था। परिषद के कार्यों में आर्बिट्रल संस्थानों की ग्रेडिंग करना और आर्बिट्रेटर्स का एक्रिडिटेशन शामिल है।[15] यह प्रावधान अभी प्रभावी नहीं हुआ है। 2019 के संशोधन में मध्यस्थता परिषद के लिए एक पूर्णकालिक सदस्य होना आवश्यक है जो एक प्रख्यात आर्बिट्रेशन प्रैक्टीशनर हो और उसे संस्थागत आर्बिट्रेशन में पर्याप्त ज्ञान और अनुभव प्राप्त हो।

रेगुलेशंस जारी करने से पहले केंद्र सरकार की मंजूरी की जरूरत उचित नहीं हो सकती

बिल के अंतर्गत परिषद रेगुलेशंस जारी करके अपने मुख्य काम करेगी। उसे इन रेगुलेशंस को जारी करने से पहले केंद्र सरकार से मंजूरी लेनी होगी। रेगुलेशंस निम्नलिखित निर्दिष्ट कर सकते हैं: (i) मध्यस्थों के लिए पेशेवर मानदंड, (ii) मध्यस्थों को पंजीकृत करने और मध्यस्थता संस्थाओं एवं मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं को मान्यता देने की शर्तें, और (iii) मध्यस्थता सेवा प्रदाताओं की ग्रेडिंग का तरीका। प्रश्न यह है कि क्या यह उचित है कि परिषद को रेगुलेशंस जारी करने से पहले केंद्र सरकार से मंजूरी जरूर लेनी पड़े। 

पहला, अगर परिषद को अपने अनिवार्य कार्य करने के लिए केंद्र सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है तो उसकी भूमिका नाममात्र की होगी। दूसरा, केंद्र सरकार (या एजेंसियां, निगम और उसके स्वामित्व या नियंत्रण वाले सार्वजनिक/स्थानीय निकाय) बिल के अंतर्गत मध्यस्थता के मामलों में एक पक्ष हो सकती है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय मेडिकल कमीशन (जो डॉक्टरों की शिक्षा और पेशे को रेगुलेट करती है) और भारतीय बार काउंसिल (सिवाय, जब गैर नागरिकों के लिए वकालत की प्रैक्टिस की शर्तों को निर्धारित करना हो) के लिए नियम और रेगुलेशंस जारी करने से पहले ऐसी मंजूरी लेना जरूरी नहीं है।12,14  दूसरी तरफ भारतीय चार्टर्ड एकाउंटेंट्स संस्थान (आईसीएआई) और भारतीय कंपनी सचिव संस्थान (आईसीएसआई) की संबंधित परिषदों द्वारा जारी रेगुलेशंस केंद्र सरकार की मंजूरी के अधीन हैं।13,[16] 

कुछ अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता समझौतों को लागू करने का कोई प्रावधान नहीं

बिल कमर्शियल विवादों की अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थताओं (यानी जहां कम से कम का एक पक्ष विदेशी है) पर लागू होता है, अगर वे भारत में संचालित की जाती हैं। हालांकि ऐसे मामले हो सकते हैं जिसमें किसी दूसरे देश में संचालित की जाने वाली मध्यस्थता में कोई भारतीय पक्ष शामिल हो। ऐसे मामलों में भारत में करार को लागू करने में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। बिल में प्रावधान है कि मध्यस्थता के करार को उसी तरह लागू किया जाएगा, जैसे अदालत के फैसले या आदेश को लागू किया जाता है। इसमें भारत के बाहर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के परिणामस्वरूप होने वाले करार शामिल नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि मध्यस्थता पर सिंगापुर कन्वेंशन में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के परिणामस्वरूप होने वाले करार को सीमा पार लागू करने का फ्रेमवर्क दिया गया है।[17],[18]  7 अगस्त, 2019 को भारत ने इस कन्वेँशन पर दस्तखत किए थे, लेकिन उसने अब तक इसकी पुष्टि नहीं की है।

मध्यस्थों के लिए चार पंजीकरण जरूरी

बिल सिविल और कमर्शियल विवादों के मामलों में मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता को अनिवार्य करता है। जब तक पक्ष अन्यथा सहमत न होंमुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता करने वाले मध्यस्थों को चार शर्तों को पूरा करना होगा। उन्हें भारतीय मध्यस्थता परिषद में पंजीकृत होना चाहिए और कोर्ट एनेक्स्ड मीडिएशन सेंटर, मान्यता प्राप्त मध्यस्थता सेवा प्रदाता या जिलाहिरीय लागू करने के लटिस करने ी होगी, और लीगल सर्विसेज़ अथॉरिटी (राष्ट्रीय, राज्य या जिला) के पैनल में होना चाहिए। यानी उन्हें इन सभी जगहों पर पंजीकृत होना चाहिए/उनके पैनल में होना चाहिए। यह स्पष्ट नहीं है कि इन मध्यस्थों के लिए इनमें से कोई एक शर्त पूरी करना पर्याप्त क्यों नही है। उदाहरण के लिए एक मध्यस्थ जो परिषद के साथ पंजीकृत हैलेकिन कोर्ट एनेक्स्ड मीडिएशन सेंटर या एक मान्यता प्राप्त मध्यस्थता सेवा प्रदाता के पैनल में नहीं है, वह मुकदमेबाजी से पहले मध्यस्थता करने के लिए पात्र नहीं होगा।

[1]‘Mediation’, Mediation and Conciliation Project Committee, Supreme Court of India.

[2]Mediation Training Manual of India, Mediation and Conciliation Project Committee, Supreme Court of India. 

[3]. Section 89, The Code of Civil Procedure, 1908Afcons Infrastructure Ltd. vs. Cherian Varkey Construction Co., Supreme Court of India, Civil Appeal No. 6000 of 2010, July 26, 2010.

[6]. Section 442, The Companies Act, 2013.

[9]M.R. Krishna Murthi vs. New India Assurance Co. Ltd., Supreme Court of India, Civil Appeal Nos. 2476-2477 of 2019, March 5, 2019.

[11]. Section 60I, Family Law Act 1975 (Australia); The Civil Procedure Act 2005 (New South Wales, Australia); Halsey vs. Milton Keynes General NHS Trust, Court of Appeal (England), [2004] 4 All ER 920.

[17]United Nations Convention on International Settlement Agreements Resulting from Mediation, United Nations Commission on International Trade Law (UNCITRAL), March 2019.

[18]Singapore Convention on Mediation (Convention Text), last accessed on January 20, 2022.

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