मंत्रालय: 
गृह मामले

बिल की मुख्‍य विशेषताएं

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) का स्थान लेने का प्रयास करती है। सीआरपीसी गिरफ्तारी, अभियोजन (प्रॉसीक्यूशन) और जमानत की प्रक्रिया प्रदान करती है।

  • बीएनएसएस सात साल या उससे अधिक की सजा वाले अपराधों के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य करता है। फोरेंसिक विशेषज्ञ फोरेंसिक सबूत इकट्ठा करने और प्रक्रिया को रिकॉर्ड करने के लिए अपराध स्थलों का दौरा करेंगे।

  • सभी ट्रायल, पूछताछ और कार्यवाही इलेक्ट्रॉनिक मोड में संचालित की जा सकती है। इलेक्ट्रॉनिक संचार उपकरणों, जिनमें डिजिटल सबूत की संभावना है, को जांच, पूछताछ या ट्रायल के दौरान प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाएगी।

  • अगर कोई घोषित अपराधी मुकदमे से बचने के लिए भाग गया है और उसकी गिरफ्तारी की तत्काल कोई संभावना नहीं है, तो उसकी अनुपस्थिति में मुकदमा चलाया जा सकता है और फैसला सुनाया जा सकता है।

  • जांच या कार्यवाही के लिए नमूना हस्ताक्षर या लिखावट के साथ-साथ उंगलियों के निशान और आवाज के नमूने भी एकत्र किए जा सकते हैं। ऐसे व्यक्ति से भी नमूने इकट्ठे किए सकते हैं जिसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।

प्रमुख मुद्दे और विश्‍लेषण

  • बीएनएसएस 15 दिनों तक की पुलिस हिरासत की अनुमति देता है, जिसे न्यायिक हिरासत की 60- या 90- दिनों की अवधि के शुरुआती 40 या 60 दिनों के दौरान भागों में रखा जा सकता है। अगर पुलिस ने 15 दिन की हिरासत अवधि समाप्त नहीं की है तो इस प्रावधान से पूरी अवधि के लिए जमानत से इनकार किया जा सकता है।

  • अपराध की आय से अर्जित संपत्ति को कुर्क करने की शक्तियों में वैसे सुरक्षा उपाय नहीं हैं, जैसे मनी लॉन्ड्रिंग निवारण कानून में दिए गए हैं।

  • अगर कोई आरोपी किसी अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम कारावास की अवधि हिरासत में काट चुका हो तो सीआरपीसी उसके लिए जमानत का प्रावधान करती है। बीएनएसएस कई आरोपों का सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए इस सुविधा से इनकार करता है। चूंकि कई मामलों में कई सेक्शंस के तहत आरोप लगाए जाते हैं, इसलिए इस प्रावधान से जमानत की गुंजाइश कम हो सकती है।

  • आर्थिक अपराधों सहित कई मामलों में हथकड़ी के उपयोग की अनुमति है जोकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध है। 

  • बीएनएसएस में सेवानिवृत्त या स्थानांतरित जांच अधिकारियों द्वारा एकत्र सबूतों को उनके परवर्ती (सक्सेसर) अधिकारी द्वारा प्रस्तुत करने की अनुमति है। यह साक्ष्य के सामान्य नियमों का उल्लंघन करता है, जिसमें दस्तावेज़ के लेखक से जिरह की जा सकती है।

  • सीआरपीसी में बदलावों पर उच्च स्तरीय समितियों की सिफारिशें जैसे सजा संबंधी दिशानिर्देशों में सुधार और अभियुक्तों के अधिकारों को संहिताबद्ध करना बीएनएसएस में शामिल नहीं किया गया है।

भाग क : बिल की मुख्य विशेषताएं

संदर्भ

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) को लागू करने के लिए स्थापित प्रक्रियात्मक कानून है। यह अपराधों की जांच, गिरफ्तारी, अभियोजन और जमानत की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। भारत में कानूनी प्रणालियों की बहुलता की समस्या के समाधान के लिए सीआरपीसी पहली बार 1861 में पारित किया गया।[1] तब से इसे कई मौकों पर संशोधित किया गया। 1973 में तत्कालीन कानून को रद्द किया गया और उसकी जगह मौजूदा सीआरपीसी लाई गई, जिसमें अग्रिम जमानत जैसे बदलाव किए गए।[2]  प्ली बार्गेनिंग के प्रावधानों और गिरफ्तार व्यक्तियों के अधिकारों जैसे बदलावों को जोड़ने के लिए इसे 2005 में संशोधित किया गया था।[3]

पिछले कई वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की विभिन्न तरीकों से व्याख्या की है और इसके कार्यान्वयन में संशोधन किया है। इनमें निम्न शामिल हैं: (i) अगर शिकायत संज्ञेय अपराध से संबंधित है तो एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है, (ii) सात साल से कम कारावास की सजा होने पर गिरफ्तारी को अपवाद बनाना, (iii) जमानती अपराध के लिए जमानत सुनिश्चित करना पूर्ण और अपरिहार्य अधिकार है और ऐसे मामलों में किसी स्वविवेक का प्रयोग नहीं किया जाए।4 न्यायालय ने हिरासत में पूछताछ के लिए दिशानिर्देश स्थापित करने और त्वरित सुनवाई के महत्व पर जोर देने जैसे प्रक्रियात्मक पहलुओं पर भी फैसला सुनाया है।[4] हालांकि आपराधिक न्याय प्रणाली को लंबित मामलों, मुकदमे में देरी और वंचित समूहों के साथ व्यवहार जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है।[5] सीआरपीसी का स्थान लेने वाली भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) को 11 अगस्त, 2023 को पेश किया गया था। यह जमानत के प्रावधानों में संशोधन करता है, संपत्ति की कुर्की का दायरा बढ़ाता है और पुलिस और मजिस्ट्रेट की शक्तियों में बदलाव करता है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी ने इस बिल की समीक्षा की थी।

मुख्य विशेषताएं

सीआरपीसी भारत में आपराधिक न्याय के प्रक्रियात्मक पहलुओं को प्रशासित करती है। एक्ट की प्रमुख विशेषताओं में निम्न शामिल हैं:

  • अपराधों को अलग-अलग करना: सीआरपीसी अपराधों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करती है: संज्ञेय और गैर-संज्ञेय। संज्ञेय अपराध वे होते हैं जिनमें पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और जांच शुरू कर सकती है। गैर-संज्ञेय अपराधों के लिए वारंट की आवश्यकता होती है, और कुछ मामलों में पीड़ित या तीसरे पक्ष की शिकायत की आवश्यकता होती है।

  • अपराध की प्रकृति: सीआरपीसी यातायात उल्लंघन से लेकर हत्या तक विभिन्न प्रकार के फौजदारी अपराधों से निपटती है। यह जमानती और गैर-जमानती अपराधों के बीच अंतर करती है, उन अपराधों को निर्दिष्ट करती है जिनके लिए आरोपी को पुलिस हिरासत में जमानत लेने का अधिकार है।

बीएनएसएस सीआरपीसी के अधिकांश प्रावधानों को बरकरार रखता है। प्रस्तावित प्रमुख परिवर्तनों में शामिल हैं:

  • विचाराधीन कैदियों की हिरासत: सीआरपीसी के अनुसार, अगर किसी आरोपी ने कारावास की अधिकतम अवधि का आधा समय हिरासत में बिताया है, तो उसे व्यक्तिगत बांड पर रिहा किया जाना चाहिए। यह मृत्युदंड वाले अपराधों पर लागू नहीं होता है। बिल में कहा गया है कि यह प्रावधान इन पर भी लागू नहीं होगा: (i) आजीवन कारावास की सजा वाले अपराध, और (ii) ऐसे व्यक्ति जिनके खिलाफ एक से अधिक अपराधों में कार्यवाही लंबित है।

  • मेडिकल जांच: सीआरपीसी बलात्कार के मामलों सहित कुछ मामलों में आरोपी की मेडिकल जांच की अनुमति देती है। ऐसी जांच कम से कम एक उप-निरीक्षक स्तर के पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा की जाती है। बिल में प्रावधान है कि कोई भी पुलिस अधिकारी ऐसी जांच का अनुरोध कर सकता है।

  • फॉरेंसिंक जांच: बिल न्यूनतम सात साल की कैद की सजा वाले अपराधों के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य बनाता है। ऐसे मामलों में फोरेंसिक विशेषज्ञ सबूत इकट्ठा करने के लिए अपराध स्थलों का दौरा करेंगे और प्रक्रिया को मोबाइल फोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण पर रिकॉर्ड करेंगे। अगर किसी राज्य में फोरेंसिक सुविधा नहीं है, तो वह दूसरे राज्य की सुविधा का उपयोग करेगा।

  • हस्ताक्ष और उंगलियों के निशान: सीआरपीसी एक मजिस्ट्रेट को किसी भी व्यक्ति को नमूना हस्ताक्षर या लिखावट प्रदान करने का आदेश देने का अधिकार देती है। बिल में इसका विस्तार करते हुए उंगलियों के निशान और आवाज के नमूनों को शामिल किया गया है। यह इन नमूनों को ऐसे व्यक्ति से एकत्र करने की अनुमति देता है जिसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।

  • प्रक्रियाओं के लिए समय सीमा: बिल विभिन्न प्रक्रियाओं के लिए समय सीमा निर्धारित करता है। जैसे इसके तहत बलात्कार पीड़ितों की जांच करने वाले चिकित्सकों को सात दिनों के भीतर जांच अधिकारी को अपनी रिपोर्ट सौंपनी होगी। अन्य निर्दिष्ट समय सीमा में शामिल हैं: (i) बहस पूरी होने के 30 दिनों के भीतर फैसला देना (60 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है), (ii) पीड़ित को 90 दिनों के भीतर जांच की प्रगति के बारे में बताना, और (iii) सत्र अदालत द्वारा आरोपों की सुनवाई के 60 दिनों के भीतर आरोप तय करना।

  • अदालतों की हेरारकी: सीआरपीसी भारत में फौजदारी मामलों पर फैसले के लिए अदालतों की एक हेरारकी तय करती है। ये अदालतें इस प्रकार हैं: (i) मजिस्ट्रेट अदालतें: अधिकांश फौजदारी मामलों की सुनवाई के लिए जिम्मेदार अधीनस्थ अदालतें, (ii) सत्र अदालतें: सत्र न्यायाधीश की अध्यक्षता में, मजिस्ट्रेट अदालतों से अपील सुनती हैं, (iii) उच्च न्यायालयों: के पास फौजदारी मामलों और अपीलों को सुनने और निर्णय लेने का अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र है और (iv) सर्वोच्च न्यायालय: उच्च न्यायालयों से अपील सुनता और कुछ मामलों में अपने मूल क्षेत्राधिकार का प्रयोग करता है। सीआरपीसी राज्य सरकारों को 10 लाख से अधिक आबादी वाले किसी भी शहर या कस्बे को महानगरीय क्षेत्र के रूप में अधिसूचित करने का अधिकार देती है। ऐसे क्षेत्रों में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट होते हैं। बिल इस प्रावधान को हटाता है।

भाग ख: मुख्य मुद्दे और विश्लेषण

बिल पुलिस की शक्तियों को बढ़ा सकता है

सीआरपीसी सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करने, अपराधों को रोकने और आपराधिक जांच करने की पुलिस की शक्तियों को नियंत्रित करती है। इन शक्तियों में गिरफ्तारी, हिरासत, तलाशी, जब्ती और बल का उपयोग शामिल है। ये शक्तियां व्यक्तियों को पुलिस शक्तियों के दुरुपयोग से बचाने के लिए प्रतिबंधों के अधीन हैं, जिसके परिणामस्वरूप बल का अत्यधिक उपयोग, अवैध हिरासत, हिरासत में यातना और अधिकार का दुरुपयोग होता है।[6] सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस शक्तियों के ऐसे मनमाने प्रयोग को रोकने के लिए विभिन्न दिशानिर्देश भी जारी किए हैं।4,[7]  बिल हिरासत, पुलिस कस्टडी और हथकड़ी के उपयोग से संबंधित प्रावधानों में संशोधन करता है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ मुद्दे उठते हैं।

पुलिस हिरासत की प्रक्रिया में बदलाव

संविधान और सीआरपीसी 24 घंटे से अधिक पुलिस हिरासत में रखने पर रोक लगाते हैं।[8] अगर जांच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो पाती है तो मजिस्ट्रेट को इसे 15 दिन तक बढ़ाने का अधिकार है। अगर वह संतुष्ट है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं, तो वह न्यायिक हिरासत को 15 दिनों से अधिक बढ़ा सकता है। हालांकि कुल हिरासत 60 या 90 दिनों (अपराध के आधार पर) से अधिक नहीं हो सकती। बीएनएसएस इस प्रक्रिया को संशोधित करता है। इसमें कहा गया है कि 15 दिनों की पुलिस हिरासत को 60 या 90 दिनों की अवधि में से शुरुआती 40 या 60 दिनों के दौरान किसी भी समय पूर्ण या आंशिक रूप से अधिकृत किया जा सकता है। इससे इस दौरान जमानत से इनकार किया जा सकता है, अगर पुलिस यह तर्क देती है कि उन्हें उस व्यक्ति को वापस पुलिस हिरासत में लेने की आवश्यकता है।

यह गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट, 1976 जैसे कानूनों से अलग है, जहां पुलिस हिरासत पहले 30 दिनों तक सीमित है।[9]  सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि सामान्य नियम के तौर पर रिमांड के पहले 15 दिनों में पुलिस हिरासत ली जानी चाहिए।[10]  40 या 60 दिनों के विस्तार को अपवाद के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। बीएनएसएस में यह जरूरी नहीं किया गया है कि जांच अधिकारी न्यायिक हिरासत में किसी के लिए पुलिस हिरासत की मांग करते समय कारण बताए। स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने इस खंड की व्याख्या को स्पष्ट करने का सुझाव दिया है।[11]

हिरासत की शक्तियों में संशोधन

संविधान के अनुच्छेद 22 के तहत पुलिस हिरासत में रहने वाले किसी व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है।8  सीआरपीसी भी यह प्रावधान करती है। बीएनएसएस इस प्रावधान को बरकरार रखता है। इसमें कहा गया है कि पुलिस किसी भी ऐसे व्यक्ति को हिरासत में ले सकती है या हिरासत से हटा सकती है जो संज्ञेय अपराधों को रोकने के लिए किसी अधिकारी द्वारा दिए गए निर्देशों का विरोध करता है, इनकार करता है या उनकी अनदेखी करता है। हिरासत के बाद, हिरासत में लिए गए व्यक्ति को या तो: (i) मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जा सकता है, या (ii) छोटे-मोटे मामलों में, अवसर बीत जाने पर रिहा किया जा सकता है। वाक्यांश 'अवसर बीत जाने' परिभाषित नहीं है। स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने ऐसी परिस्थितियों में हिरासत के लिए एक स्पष्ट समय सीमा बताने का सुझाव दिया है।11

हथकड़ी का उपयोग करने की शक्ति अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकती है

बीएनएसएस गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी के इस्तेमाल का प्रावधान करता है। हथकड़ी का उपयोग केवल निम्नलिखित को गिरफ्तार करने के लिए किया जा सकता है: (i) आदतन या बार-बार हिरासत से भागने वाला अपराधी, या (ii) बलात्कार, एसिड हमला, संगठित अपराध, आर्थिक अपराध, भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले अपराधों का आरोपी व्यक्ति। यह प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है।[12]

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि हथकड़ी का इस्तेमाल अमानवीय, अनुचित, मनमाना और अनुच्छेद 21 के प्रतिकूल है।[13]  चरम मामलों में जब हथकड़ी का इस्तेमाल करना हो, तो एस्कॉर्टिंग अथॉरिटी को ऐसा करने के लिए कारण दर्ज करने होंगे।13 इसके अलावा उसने कहा कि न्यायिक सहमति प्राप्त किए बिना मुकदमे से गुजर रहे किसी भी कैदी को हथकड़ी नहीं लगाई जा सकती।[14]  इसलिए न्यायालय ने हथकड़ी के उपयोग पर निर्णय लेने का विवेक ट्रायल कोर्ट पर छोड़ दिया है।12 स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने उन अपराधों से आर्थिक अपराधों को बाहर करने का सुझाव दिया है जहां हथकड़ी का उपयोग किया जा सकता है।11 कमिटी की रिपोर्ट में असहमति के एक नोट में कहा गया है कि हथकड़ी का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब हिंसा का खतरा हो या संदिग्ध के हिरासत से भागने की आशंका हो।11

आरोपियों के अधिकार

एक से ज्यादा आरोपों के मामले में अनिवार्य जमानत की सीमित गुंजाइश

सीआरपीसी के अनुसार, अगर किसी विचाराधीन कैदी ने किसी अपराध के लिए अधिकतम कारावास की आधी सजा काट ली है, तो उसे निजी मुचलके पर रिहा किया जाना चाहिए। यह प्रावधान मौत की सजा वाले अपराधों पर लागू नहीं होता है। बीएनएसएस ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है और कहा है कि पहली बार के अपराधियों को अधिकतम सजा का एक तिहाई पूरा करने के बाद जमानत मिल जाती है। हालांकि इसमें कहा गया है कि यह प्रावधान इन पर लागू नहीं होगा: (i) आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध, और (ii) जहां अपराध से अधिक या कई मामलों में जांच, पूछताछ या मुकदमा लंबित है। चूंकि आरोप पत्रों में अक्सर कई अपराधों को सूचीबद्ध किया जाता है, तो इससे कई विचाराधीन कैदी अनिवार्य जमानत के लिए अयोग्य हो सकते हैं।

उदाहरण के लिए 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि अवैध खनन खान और खनिज (विकास और रेगुलेशन) एक्ट, 1957 के तहत एक अपराध है, और आईपीसी के तहत चोरी माना जाता है।[15]  इसी तरह, लापरवाही और खतरनाक तरीके से गाड़ी चलाना मोटर वाहन एक्ट, 1988 के साथ-साथ आईपीसी के तहत दंडनीय अपराध है।[16]  ऐसे मामलों में आरोपी व्यक्ति अनिवार्य जमानत प्राप्त करने के पात्र नहीं होंगे।

जमानत मिलने से अभियुक्त मुकदमे की प्रतीक्षा के दौरान हिरासत से रिहा हो सकते हैं, बशर्ते वे कुछ शर्तों को पूरा करते हों।[17] दोषसिद्धि से पहले हिरासत में इसलिए लिया जाता है ताकि मुकदमे के लिए आरोपी की आसान उपलब्धता सुनिश्चित हो सके और सबूतों के साथ कोई छेड़छाड़ न हो। अगर ये सुनिश्चित हो जाएं तो हिरासत की जरूरत नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जमानत नियम है और कारावास अपवाद है।[18]  इसके अलावा, उसने कहा है कि विचाराधीन कैदियों को जल्द से जल्द रिहा किया जाना चाहिए और जो लोग गरीबी के कारण जमानत नहीं दे सकते, वे सिर्फ इसी वजह से जेल में नहीं रखे जाने चाहिए।[19]

प्ली बार्गेनिंग की गुंजाइश सीमित हो सकती है

प्ली बार्गेनिंग बचाव और अभियोजन पक्ष के बीच एक समझौता होता है जहां अभियुक्त कम अपराध या कम सजा के लिए दोषी माने जाने का निवेदन करता है। इसे 2005 में सीआरपीसी में जोड़ा गया था।3 मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात साल से अधिक कारावास की सजा वाले कुछ अपराध प्ली बार्गेनिंग के अधीन नहीं हैं। सीआरपीसी किसी छोटे अपराध के लिए या अपराध को कम करने के लिए बार्गेनिंग यानी सौदेबाजी की अनुमति नहीं देती है- ऐसे में आरोपी द्वारा अपराध कबूल कर लिया माना जाएगा और उसे अपराध के लिए दोषी ठहराया जाएगा। बीएनएसएस इस प्रावधान को बरकरार रखता है। यह भारत में प्ली बार्गेनिंग को सेंटेंस बार्गेनिग तक सीमित करता है, यानी आरोपी की दोषी याचिका (गिल्टी प्ली) के बदले में हल्की सजा।

साथ ही, बीएनएसएस एक शर्त जोड़ता है कि आरोपी को आरोप तय होने की तारीख से 30 दिनों के भीतर प्ली बार्गेनिंग के लिए आवेदन दाखिल करना होगा। यह समय सीमा कम सजा की मांग के अवसर को सीमित करके प्ली बार्गेनिंग के प्रभाव को कम कर सकता है।

जेलों में भीड़

जमानत पर प्रतिबंध लगाने और प्ली बार्गेनिंग के दायरे को सीमित करने से जेलों में भीड़ कम करने में रुकावट आ सकती है। दिसंबर 2021 तक भारत की जेलों में 5.5 लाख से अधिक कैदी थे, जिनकी कुल ऑक्यूपेंसी दर 130% थी।20  2021 में विचाराधीन कैदी भारत में कुल कैदियों का 77% थे।[20]  लगभग 30% विचाराधीन कैदी एक वर्ष या उससे अधिक समय से हिरासत में थे।20  लगभग 8% विचाराधीन कैदी तीन साल या उससे अधिक समय से हिरासत में थे। 20  

स्थानांतरित या सेवानिवृत्त अधिकारियों के लिए गवाही देने वाले परवर्ती अधिकारी

बीएनएसएस का कहना है कि अगर कोई अधिकारी जिसने किसी जांच या मुकदमे के लिए दस्तावेज़ या रिपोर्ट तैयार की है, वह अनुपलब्ध है, तो न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि उनका परवर्ती अधिकारी अधिकारी दस्तावेज़ पर गवाही दे। इस प्रावधान के अंतर्गत आने वाले अधिकारियों में लोक सेवक, चिकित्सा अधिकारी और जांच अधिकारी (आईओ) शामिल हैं। अनुपलब्धता के कारणों में निम्न शामिल हैं: (i) मृत्यु, (ii) स्थानांतरण, (iii) सेवानिवृत्ति, और (iv) देरी की संभावना। हालांकि परवर्ती अधिकारियों को न्यायालय के समक्ष गवाही देने की अनुमति देने से मामलों में तेजी आने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह साक्ष्य के सामान्य नियमों के विपरीत हो सकता है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि आईओ द्वारा दर्ज किए गए बयान उसी अधिकारी द्वारा प्रदान किए जाने चाहिए, क्योंकि परवर्ती अधिकारी आईओ की जांच को प्रमाणित करने में सक्षम नहीं हो सकता है। गृह मामलों से संबंधित स्टैंडिंग कमिटी (2023) ने कहा है कि आईओ के पास जांच के तहत मामले की महत्वपूर्ण जानकारी होती है।11 उनकी जिरह काफी मूल्यवान है, खासकर जब उनके द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजों को सबूत के रूप में उपयोग किया जाता है।11  कमिटी ने इस प्रावधान से आईओ को हटाने का सुझाव दिया है।11 एक असहमत सदस्य ने कहा कि केवल अधिकारी की मृत्यु के मामले को छोड़कर, सभी अधिकारियों को जिरह के लिए उपलब्ध होना चाहिए।11

संपत्ति की कुर्की पर सुरक्षा उपाय

वह संपत्ति जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आपराधिक गतिविधि के परिणामस्वरूप प्राप्त की जाती है, अपराध की आय कहलाती है। सीआरपीसी पुलिस को संपत्ति जब्त करने की शक्ति प्रदान करती है: (i) जिसके बारे में अभिकथन या संदेह है कि वह चुराई हुई है, या (ii) जिसे किसी अपराध के होने का संदेह पैदा करने वाली परिस्थितियों में पाया गया हो। यह केवल चल संपत्तियों पर लागू है।[21]  बीएनएसएस इसे अचल संपत्तियों तक बढ़ाता है। बीएनएसएस में जब्त की गई संपत्ति के साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा, इससे संबंधित प्रावधान मनी लॉन्ड्रिंग निवारण कानून, 2002 (पीएमएलए) के प्रावधानों से भिन्न हैं। पीएमएलए निर्दिष्ट अपराधों के संबंध में मनी लॉन्ड्रिंग से प्राप्त संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान करता है।[22] 

पीएमएलए के कुछ सुरक्षा उपाय बीएनएसएस के तहत उपलब्ध नहीं हैं। पीएमएलए के तहत, कुर्की की प्रकृति अस्थायी होती है, वह भी 180 दिनों तक के लिए।22 कुर्की का आदेश क्यों नहीं दिया जाना चाहिए, इसका कारण बताने के लिए कम से कम 30 दिनों की नोटिस अवधि दी जानी चाहिए।22  कुर्की के दौरान, अचल संपत्ति के इस्तेमाल से इनकार नहीं किया जा सकता।22 बीएनएसएस कोई समय सीमा प्रदान नहीं करता है कि कब तक संपत्ति कुर्क की जा सकती है। इसमें आरोपी को 14 दिन का कारण बताओ नोटिस देने का प्रावधान है।

मौजूदा कानूनों के साथ ओवरलैप

पिछले कई वर्षों में, आपराधिक प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को रेगुलेट करने के लिए विशेष कानून बनाए गए हैं। हालांकि बीएनएसएस ने कुछ प्रक्रियाओं को बरकरार रखा है।

आपराधिक पहचान के लिए डेटा कलेक्शन

2005 में सीआरपीसी में संशोधन करके मजिस्ट्रेट को गिरफ्तार व्यक्तियों से लिखावट या हस्ताक्षर के नमूने प्राप्त करने का अधिकार दिया गया।

[23]  बिल मजिस्ट्रेट को उंगलियों के निशान और आवाज के नमूने एकत्र करने का अधिकार देकर इस प्रावधान का विस्तार करता है। बिल उन व्यक्तियों से भी इस डेटा को एकत्र करने की अनुमति देता है जिन्हें किसी भी जांच के तहत गिरफ्तार नहीं किया गया है। आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) एक्ट, 2022 उंगलियों के निशान, लिखावट और जैविक नमूनों सहित डेटा की एक विस्तृत श्रृंखला एकत्र करने की अनुमति देता है।[24]  इस तरह का डेटा दोषियों, किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों या गैर-आरोपी व्यक्तियों से भी एकत्र किया जा सकता है और 75 साल तक संग्रहीत किया जा सकता है। अपराधियों और अभियुक्तों के डेटा कलेक्शन की अनुमति देने के लिए हाल ही में एक व्यापक कानून पारित किया गया है। ऐसे में डेटा कलेक्शन के प्रावधानों को बहाल करने और उन्हें बीएनएसएस में शामिल करने की जरूरत स्पष्ट नहीं है। 2022 के कानून की संवैधानिक वैधता दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।[25] 

वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण

सीआरपीसी के तहत, एक मजिस्ट्रेट पर्याप्त आय वाले व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह अपने पिता या माता (जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं) के भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता प्रदान करे। अगर आदेश का पालन नहीं किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट देय राशि वसूलने के लिए वारंट जारी कर सकता है और व्यक्ति को एक महीने तक की कैद या भुगतान होने तक की सजा दे सकता है। बीएनएसएस ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है जो माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण एक्ट, 2007 के प्रावधानों का दोहराव है। उस एक्ट के तहत राज्य सरकारें वरिष्ठ नागरिकों और माता-पिता को देय भरण-पोषण पर निर्णय लेने के लिए मेनटेनेंस ट्रिब्यूनल का गठन करती हैं।

[26]  ट्रिब्यूनल देय राशि वसूलने के लिए वारंट जारी कर सकता है, और व्यक्ति को एक महीने तक की कैद या भुगतान होने तक की सजा दे सकता है। इस एक्ट के प्रावधान अन्य कानूनों के प्रावधानों के स्थान पर लागू होते हैं।

बीएनएसएस में सार्वजनिक व्यवस्था संबंधी कार्य बरकरार

सीआरपीसी अपराधों की जांच और मुकदमे की प्रक्रिया प्रदान करती है। इसमें शांति बरकरार रखने के लिए सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल रखने के प्रावधान भी शामिल हैं। इसमें ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो जिला मजिस्ट्रेट को सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करने के लिए आवश्यक आदेश जारी करने की अनुमति देते हैं। बीएनएसएस ने इन प्रावधानों को (अलग-अलग अध्यायों में) बरकरार रखा है। चूंकि मुकदमेबाजी और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करना अलग-अलग कार्य हैं, इसलिए सवाल यह है कि क्या उन्हें एक ही कानून में शामिल किया जाना चाहिए या क्या उनसे अलग से निपटा जाना चाहिए। संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार, सार्वजनिक व्यवस्था राज्य का विषय है।

[27] हालांकि सीआरपीसी के तहत मामले (संविधान के प्रारंभ से पहले) समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं। [28]

विभिन्न समितियों के सुझाव

तालिका 1 में आपराधिक सुधारों पर सरकार को सलाह देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित विभिन्न समितियों और विधि आयोग के प्रमुख सुझावों का उल्लेख है: 

तालिका 1: सीआरपीसी पर विभिन्न समितियों और विधि आयोग के मुख्य सुझाव

सुझाव

बिल में शामिल हैं अथवा नहीं

आपराधिक न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सजा संबंधी दिशानिर्देश निर्धारित करने के लिए एक वैधानिक समिति का गठन करें।[29]

नहीं

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त अभियुक्तों के अधिकारों को सीआरपीसी में शामिल किया जाए।30

नहीं

प्रक्रिया, जब जांच 24 घंटे में पूरी नहीं हो सकती (सीआरपीसी सेक्शन 167) - सात साल से अधिक की सजा वाले अपराधों के संबंध में पुलिस हिरासत की अधिकतम अवधि 30 दिन होगी।29

नहीं। पुलिस हिरासत की अधिकतम अवधि 15 दिन है। इसे निम्न प्रकार बढ़ाया जा सकता है: (i) 60 दिन जहां अपराध के लिए कम से कम 10 साल की कैद की सजा हो, या (ii) किसी अन्य अपराध के लिए 40 दिन। (बीएनएसएस क्लॉज 187)।

गलत तरीके से आरोपित लोगों को मुआवजा दें।[30]

नहीं

गिरफ्तारी[31]

गिरफ्तार व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद एक चिकित्सा अधिकारी द्वारा जांच की जानी चाहिए (सीआरपीसी सेक्शन 54)। अधिकारी को व्यक्ति पर लगी किसी भी चोट और ऐसी चोटों के अनुमानित समय को रिकॉर्ड करना चाहिए। हिरासत के दौरान हर 48 घंटे में जांच दोहराई जानी चाहिए।

आशिक रूप से। हिरासत के हर 48 घंटे में मेडिकल जांच का प्रावधान नहीं है। (बीएनएसएस क्लॉज 53)।

पुलिस को बयान/कबूल करना

पुलिस को दिए गए बयान (सीआरपीसी सेक्शन 162) - बयानों को पढ़ा जाना चाहिए और बयान देने वाले द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिए और एक प्रति उसे दी जानी चाहिए। ऐसे बयानों का इस्तेमाल बयान देने वाले का खंडन करने और उसकी पुष्टि करने के लिए किया जा सकता है।30

नहीं, मूल प्रावधान बीएनएसएस क्लॉज 181 में बरकरार रखा गया है।

जमानत[32]

जमानत को किसी अपराध के संदिग्ध या आरोपी व्यक्ति की अस्थायी रिहाई के रूप में परिभाषित करें, इस गारंटी के साथ कि वे बाद की तारीख में अदालत में पेश होंगे।

बीएनएसएस का क्लॉज 479 जमानत के लिए एक अलग परिभाषा प्रदान करता है।

गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किया जाना (सीआरपीसी सेक्शन 50) – इसके तब तक कोई मायने नहीं, जब तक गिरफ्तार व्यक्ति को उस भाषा में लिखित रूप से सूचित नहीं किया जाता जिसे वह समझता है।

नहीं, मूल प्रावधान बीएनएसएस क्लॉज 47 में बरकरार रखा गया है।

मुकदमे के स्थगन पर, अदालत आरोपी को जमानत पर रिहा कर देगी या उसे आगे की हिरासत में भेज देगी और कारण दर्ज करेगी। (सीआरपीसी का सेक्शन 309 (2))

नहीं, मूल प्रावधान बीएनएसएस क्लॉज 346 में बरकरार रखा गया है।

जमानत से इनकार करने पर अदालत को इसका संक्षिप्त कारण बताना चाहिए।

नहीं

नोट: यह तालिका सीआरपीसी पर विभिन्न समितियों और विधि आयोग द्वारा दिए गए कुछ महत्वपूर्ण सुझावों पर प्रकाश डालती है। यह कोई विस्तृत सूची नहीं है।
स्रोत: एंडनोट्स देखें; पीआरएस।

ड्राफ्टिंग के मुद्दे

तालिका 2 में बिल के ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्दों का उदाहरण पेश किया गया है।

तालिका 2: बीएनएसएस में ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्दे

ड्राफ्टिंग संबंधी मुद्दे

क्लॉज

मुद्दे

 127

बीएनएस में राजद्रोह शब्द प्रकट नहीं होने के बावजूद बीएनएस (सेक्शन 150, 195, 297) में "राजद्रोही मामलों" का संदर्भ है।

 187 (5)

एक मुद्रण संबंधी त्रुटि है जहां नए जोड़े गए प्रोविजो में 'पुलिस' के स्थान पर 'पॉलिसी' शब्द का उपयोग किया गया है।

 217

कहा गया है कि न्यायालय सरकार की पूर्व अनुमति के बिना बीएनएस के अध्याय VI के तहत अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता है। बीएनएस के अध्याय VI में मानव शरीर के खिलाफ हमले, अपहरण और हत्या जैसे अपराध शामिल हैं। सीआरपीसी में संबंधित सेक्शन आईपीसी के अध्याय VI (राज्य के खिलाफ अपराध) को संदर्भित करता है जो बीएनएस का अध्याय VII है।

 482

जमानत की शर्तें बीएनएसएस के अध्यायों को संदर्भित करती हैं। इन्हें बीएनएस के समान अध्यायों का संदर्भ देना चाहिए।

 125

शांति बनाए रखने के लिए बांड बीएनएस के अध्याय VIII (जिसमें सेना से संबंधित अपराध शामिल हैं) को संदर्भित करता है। इसे बीएनएस के अध्याय IX (सार्वजनिक शांति के विरुद्ध अपराध) का संदर्भ लेना चाहिए।

 377

क्लॉज गायब है। क्लॉज 376 के बाद क्लॉज 378 आता है।

 372

बीएनएस ने अनसाउंड माइंड के स्थान पर मेंटल इलनेस का इस्तेमाल किया है। बीएनएसएस के क्लॉज 372 में साउंड माइंड के आरोपी का संदर्भ है।

234, 243

सर्वोच्च न्यायालय ने आईपीसी में 'व्यभिचार' के अपराध को निरस्त कर दिया था। बीएनएस में व्यभिचार अपराध नहीं है। हालांकि बीएनएसएस के उदाहरण व्यभिचार को अपराध मानते हैं।

 532

बीएनएसएस में 'संहिता' के बजाय 'कोड' को संदर्भित करता है।

स्रोत: भारतीय न्याय संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और भारतीय साक्ष्य बिल, 2023; पीआरएस।

 

[1]. Stokes, Anglo-Indian Codes, Vol. 2, pages 2-3.

[4]. AIR 1997 SC 610, D.K. Basu v. State of West Bengal, Supreme Court, December 18, 1996, 1979 AIR 1360, Hussainara Khatoon v. State of Bihar, Supreme Court, February 12, 1979.

[5]. Report No. 78,  Law Commission of India, 1979.

[6]. Report No. 273, Law Commission of India, 2017.

[7]. 1978 AIR 597, Maneka Gandhi v. Union of India, Supreme Court, January 25, 1978.

[8]. Article 22, The Constitution of India, 1950, Section 51, The Code of Criminal Procedure, 1973.

[9]. Section 43D, the Unlawful Activities (Prevention Act), 1967.

[10]. 1992 AIR 1768, Central Bureau of Investigation v. Anupam J. Kulkarni, Supreme Court, May 8, 1992.

[11]. Report No. 247, ‘the Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita’, Standing Committee on Home Affairs, November 10, 2023.

[12]. ‘Guidelines regarding Arrest’, National Human Rights Commission. 

[13]. 1980 AIR 1535, Prem Shankar Shukla vs. Delhi Administration, Supreme Court, April 29, 1980.

[14]. 1995 3 SCC 743, Citizens for Democracy v. State of Assam, May 1, 1995.

[15]. Criminal Appeal 499 of 2011, State of NCT of Delhi vs Sanjay, Supreme Court, September 4, 2014.

[16]. Section 184, the Motor Vehicles Act, 1988, Section 279, The Indian Penal Code, 1860.

[17]. Chapter XXXIII, ‘Provision as to Bail and Bonds’, The Code of Criminal Procedure, 1973.

[18]. 1977 AIR 2447, State of Rajasthan v. Balchand, Supreme Court, September 20, 1977.

[19]. 2016 3 SCC 700, In re: Inhuman Conditions in 1382 Prisons, Supreme Court, February 5, 2016.

[20]. Prison Statistics of India (2021), National Crime Records Bureau.

[21]. 2019 20 SCC 119, Nevada Properties Pvt. Ltd. V. State of Maharashtra, Supreme Court, September 24, 2019.

[22]. Section 3, 5, 8, the Prevention of Money Laundering Act, 2002.

[23]. Section 311A, The Code of Criminal Procedure, 1973.

[25]. W.P. (CRL) 869/2022, Harshit Goel v. Union of India, Delhi High Court.

[27]. Entry 1, List II, Seventh Schedule, The Constitution of India.

[28]. Entry 2, List III, Seventh Schedule, The Constitution of India.

[30]. Report No. 277, Law Commission of India, 2018.

[31]. Report No. 177, Law Commission of India, 2001.

[32]. Report No. 268, Law Commission of India, 2017.

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