संसद के शीतकालीन सत्र के आखिरी दिन लोकसभा में उपभोक्ता संरक्षण विधेयक, 2018 पेश किया गया था। यह विधेयक उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की जगह लेगा, जो 30 साल से अधिक पुराना कानून है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की विश्लेषक रूपल सुहाग ने विधेयक के कुछ अहम प्रावधानों का विश्लेषण किया
नए कानून की जरूरत क्यों पड़ी?
वस्तु एवं सेवाओं के उपभोक्ता बाजारों में बड़े बदलाव और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के उभार एवं ई-कॉमर्स के तेजी से बढऩे से नया कानून बनाना जरूरी हो गया है। वर्ष 1986 के अधिनियम में मामलों के धीमे निस्तारण और प्रशासनिक दिक्कतों जैसी कमियों के कारण सरकार ने 2015 में उपभोक्ता संरक्षण विधेयक पेश किया। इसके बाद यह विधेयक उपभोक्ता मामलों की संसदीय स्थायी को भेजा गया। समिति ने 8 महीनों तक विचार-विमर्श करने के बाद विधेयक में कई बदलावों की सिफारिश
की है।
क्या विनिर्माता, सेवा प्रदाता या विक्रेता को उत्पाद जिम्मेदारी के तहत दोषी ठहराया जा सकता है?
जब उत्पाद या सेवा में खामी के कारण किसी उपभोक्ता को चोट लगती है, संपत्ति को नुकसान पहुंचता है या उसकी मृत्यु हो जाती है तो वह उत्पाद जवाबदेही के तहत हर्जाने का दावा कर सकता है। वर्ष 2018 के विधेयक में उन परिस्थितियों का जिक्र किया गया है, जिनमें किसी उत्पाद विनिर्माता, सेवा प्रदाता और विक्रेता को उत्पाद जवाबदेही के तहत जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। वर्तमान कानून में उत्पाद जिम्मेदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। वर्ष 2015 के विधेयक में उत्पाद जवाबदेही के प्रावधान शामिल किए गए, लेकिन उसमें सेवा प्रदाताओं से उत्पाद जवाबदेही का दावा करने के लिए नियम एवं शर्तों का उल्लेख नहीं किया गया।
प्रस्तावित कानून के तहत उत्पाद जवाबदेही का दावा करने के लिए पीडि़त उपभोक्ता को विनिर्माता, सेवा प्रदाता या विक्रेता से संबंधित विधेयक में दी गईं शर्तों में से किसी एक को साबित करना होगा। यह 2015 के विधेयक में सुधार है। वर्ष 2015 के विधेयक में विनिर्माता की जवाबदेही तय करने के लिए उपभोक्ता को खराब उत्पाद से संबंधित सभी सात शर्तें साबित करनी होती थीं। स्थायी समिति ने पाया कि इन सभी शर्तों को साबित करने से उपभोक्ता पर अनावश्यक दबाव बढ़ेगा, जिससे वह एक भी शर्त पूरी न होने पर जवाबदेही का दावा नहीं कर पाएगा।
क्या विधेयक में ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस को लेकर कोई प्रावधान किए गए हैं?
पहले के विधेयक से इतर वर्तमान विधेयक में तेजी से बढ़ते ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस को शामिल किया गया। विधेयक में ई-कॉमर्स को डिजिटल या इलेक्ट्रॉनिक नेटवर्क पर डिजिटल उत्पादों सहित वस्तुुओं एवं सेवाओं की खरीद एवं बिक्री के रूप में परिभाषित किया गया है। यह केंद्र सरकार को ई-कॉमर्स में अनुचित व्यापार पद्धतियों को रोकने की शक्तियां देता है। इस उद्योग का नियमन कैसे किया जाएगा, इसका स्पष्ट पता विधेयक के कानून बनने के बाद जारी नियमों से चलेगा।
भ्रामक विज्ञापनों से उपभोक्ताओं को कैसे बचाया जाएगा?
2018 का विधेयक केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण को उन मिथ्या या भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ निर्देश देने और जुर्माना लगाने की शक्तियां देता है, जो किसी उपभोक्ता के हितों के लिए नुकसानदेह हैं या उपभोक्ता के अधिकारों का हनन करते हैं। जुर्माने में दो साल तक की जेल और 10 लाख रुपये का अर्थदंड शामिल है। दोबारा अपराध करने पर जेल 5 साल और अर्थदंड 50 लाख रुपये तक बढ़ाया जा सकता है। प्राधिकरण भ्रामक विज्ञापन का प्रचार करने वाले पर भी जुर्माना लगा सकता है। यह जुर्माना 10 लाख रुपये और दोबारा दोषी पाए जाने पर 50 लाख रुपये तक हो सकता है।
विधेयक में उपभोक्ताओं और विनिर्माताओं के बीच अनुचित अनुबंधों को लेकर क्या उपाय किए गए हैं?
विधेयक में उपभोक्ताओं और विनिर्माताओं के बीच अनुचित अनुबंधों को 2015 के विधेयक के समान परिभाषित किया गया है। अनुचित अनुबंधों में करार के तहत अत्यधिक सिक्योरिटी जमा करना, अनुबंध तोडऩे पर अधिक जुर्माना और बिना किसी कारण के करार को एकतरफा रद्द करने जैसी छह शर्तें शामिल हैं। स्थायी समिति ने सिफारिश की थी कि विधेयक में ये तय करने के नियम दिए जाने चाहिए कि कोई अनुबंध अनुचित है या नहीं। अगर यह पाया जाता है कि इस अनुबंध में उल्लिखित छह शर्तों से अन्य पाई जाती हैं तो इसे अनुचित माना जाएगा। इस विधेयक के अन्य प्रमुख प्रावधानों में जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मध्यस्थता प्रकोष्ठ और उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग की स्थापना और मिलावटी उत्पादों के विनिर्माण पर जुर्माना शामिल हैं।