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काम की रफ़्तार में लगातार पिछड़ती संसद


मंदिरा काला, बीबीसी न्यूज़, 07 मई, 2013

संसद के मौजूदा बजट सत्र में जारी गतिरोध को देखते हुए इस धारणा को बल मिल रहा है कि एक संस्था के रूप में संसद की गरिमा घट रही है. पंद्रहवीं लोकसभा में महत्वपूर्ण विधायी कार्यों को निपटाने में जिस तरह की बाधा आई, उससे इस धारणा को और बल मिला है.

साल 1950 में गठित लोकसभा की हर साल औसतन 127 बैठकें हुईं थीं. लेकिन 2012 में यह औसत घटकर 73 दिन का रह गया. इस तरह संसद की बैठकों की संख्या में तो गिरावट आने के साथ-साथ गतिरोध की वजह से बर्बाद होने वाले घंटों की संख्या बढ़ी है.

पिछले 25 साल में देखें तो सबसे अधिक समय पंद्रहवीं लोकसभा में ही बरबाद हुआ है.

इन अवरोधों के कारण सदन की कार्यवाही कई बार स्थगित की गई. इससे संसद सदस्यों के लिए आरक्षित समय से समझौता करना पड़ा. इस समय का उपयोग सरकार के कामकाज और उसकी जवाबदेही की पड़ताल में किया जा सकता था.

इसमें सबसे अधिक नुकसान प्रश्नकाल का हुआ. प्रश्नकाल की संकल्पना इसलिए की गई थी ताकि सांसद मंत्रियों से सरकार की योजनाओं और नीतियों पर सवाल कर सकें.

संसद की राह देखते विधेयक

पंद्रहवीं लोकसभा में केवल 11 फीसदी मौखिक सवालों का ही जवाब दिया गया. हालांकि संसद में खराब हुए समय की भरपाई और विधायी तथा वित्तीय कामकाज निपटाने के लिए बैठकों का समय बढ़ाने का प्रावधान है. लेकिन ऐसा शायद ही कभी किया गया हो.

संसद की कार्यवाही का एक बड़ा हिस्सा और सरकार की नीतियों की जांच-पड़ताल, वित्त और विधायी गतिविधियां संसद की स्थायी समितियों में होती हैं.

संसद में पेश होने वाले अधिकतर विधेयकों को संबंधित स्थायी समितियों के भेज दिया जाता है. इन समितियों का काम विधेयकों का परीक्षण, उनके प्रावधानों पर लोगों की राय जानना, उन पर सुझाव देना, संशोधन पेश करना और इसके बाद रिपोर्ट पेश करना होता है जिससे सदन को उस विधेयक पर बहस में आसानी हो.

पिछले 60 सालों में सरकारी बिलों के परीक्षण में समिति व्यवस्था उन्नत बनी हुई है. लेकिन संसद में बिलों के पास करने की संख्या घट रही है.

पहली लोकसभा में हर साल औसतन 72 विधेयक पास हुए. पंद्रहवीं लोकसभा में यह संख्या घटकर 40 रह गई है. संसद ने 2012 में केवल 32 विधेयक ही पास किए. इस लोकसभा के शुरुआती सत्र से ही कराधान, भूमि अधिग्रहण, उच्च शिक्षा, पेंशन जैसे महत्त्वपूर्ण विधेयक लंबित हैं.

प्राइवेट मेंबर बिल

प्राइवेट मेंबर बिल के जरिए भी संसद सदस्यों को कानून बनाने में अपनी भूमिका निभाने का मौका मिलता है. हालांकि प्राइवेट मेंबर बिल बहुत कम ही कानून बन पाते हैं. संसद ने आजतक केवल 14 प्राइवेट मेंबर बिल ही पास किए हैं. इनमें से छह विधेयक 1956 में पास किए गए थे.

इसके बावजूद 13वीं लोकसभा से अब तक संसद में तीन सौ प्राइवेट मेंबर बिल पेश किए गए हैं. इनमें से केवल 15 पर ही लोकसभा में चर्चा हुई.

स्वाभाविक है कि संसद के काम करने के तरीके पर जनता की आलोचना से इसके एक संस्था के रूप में कमज़ोर होने पर ज़्यादा बात की गई है. इसके बजाय कि उन बदलावों पर बात की जाए जो संसद के सांस्थानिक रूप से बेहतर ढंग से काम करने को संभव बनाते हैं.

संसद के जारी सत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जारी गतिरोध संसदीय लोकतंत्र का प्रतीक बन गया है. इस गतिरोध को तोड़ना कोई नहीं चाहता है.

संसदीय राजनीति में किसी मुद्दे पर बहस की रणनीति में खास किस्म के प्रस्ताव या नियम या व्यवस्था (मतदान का प्रावधान) का इस्तेमाल विपक्ष अक्सर सरकार को घेरने के लिए करता है. संसदीय राजनीति में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की भूमिका है. एक ऐसा तंत्र विकसित करने की जरूरत है जिसमें दोनों को अपनी बात रखने का मौका मिल सके.

मई 2012 में संसद मे अपनी पहली बैठक की 60वीं सालगिरह मनाई. इस दौरान सांसदों ने संसद की प्रासंगिकता, वैधानिकता और लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने की संसद की भूमिका पर ज़ोर दिया.

शायद संसद की भूमिका का महत्व बताने के लिए सांसदों को इस पर चर्चा करने की ज़रूरत है कि संसद को प्रभावी ढंग से चलाने के लिए किस तरह की सांस्थानिक प्रक्रिया की ज़रूरत है.

संसद के समक्ष मौजूद चुनौतियों का जवाब खुद इसके अंदर से ही मिल सकता है, खुद सांसदों से.

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